अभी क्या करें
सामाजिक मामलों के मंत्रालयों में सबसे बेतहर मंत्रियों की नियुक्ति हो. लफ्फाज विचारक नहीं, जल्दबाज लोग भी नहीं, अपनी पार्टी के सदस्यों, दोस्तों और परिवार वालों पर मेहरबानी बरसाने वाले भी नहीं. पार्टी के वफादार टट्टू नहीं, किसी खास निर्वाचन क्षेत्र के प्रति दिखावे के लिए ही सही, बिछ जाने वाले नहीं. बेशक, कोई ऐसा भी नहीं, जिसे अपने सुकून की बहुत ज्यादा फिक्र हो.
ऐसे लोग जिनमें यह जानने-समझने की बौद्घिक ललक हो कि ये समस्याएं क्यों इतनी विकराल हो जाती हैं. इतना सारा पैसा खर्च करके भी हासिल इतना मामूली क्यों है? ऐसे लोग, जो धैर्य के साथ सीखने की कोशिश करें, जिनमें निजी हितों के खिलाफ सतत संघर्ष छेडऩे की इच्छाशक्ति हो. शिक्षक, जो पढ़ाना नहीं चाहते, काम से नदारद डॉक्टर, कंपनियां, जो खुशी-खुशी नदियों में जहर घोल रही हैं और वे सब, जो इस देश को लूट रहे हैं, सबके खिलाफ एक सतत संघर्ष हो.
यह सब इतना आसान भी नहीं है. हमेशा नई-नई योजनाएं शुरू करने की हड़बड़ी जो होती है. जब जहां मुमकिन हो, तत्काल नई सरकार का ठप्पा लग जाए. लेकिन अगर नए मंत्री को सही ढंग से काम करने का मौका मिलेगा तो उन्हें इसे करने के लिए वक्त की दरकार होगी. धैर्य बहुत जरूरी है.
100 दिन में क्या करें
शुरू के 100 दिन वही सोचे-समझे काम करने का वक्त है, बाद में जिनके, थोड़े दिनों के लिए ही सही, अलोकप्रिय होने का अंदेशा है. यह बिलकुल साफ है कि शिक्षा का अधिकार कानून का सबसे बुरा पहलू फिर सतह पर आ जाएगा. बड़ी संख्या में गरीब तबके के बच्चों को शिक्षा देने वाले सस्ते निजी स्कूलों पर अजीब किस्म की न्यूनतम जरूरतें बताकर उनका दमन किया जा रहा है.
मसलन, शिक्षकों की तनख्वाह कितनी होनी चाहिए, स्कूल की बिल्डिंग कैसी दिखनी चाहिए. सौ दिन यह तय करने के लिए काफी नहीं है कि इस कानून में कैसे सुधार किया जाना चाहिए, लेकिन इसे लागू करने से तो रोका ही जा सकता है ताकि स्कूल चलते रहें.
जाहिर है कि इससे बवाल होगा. राजधानी में सरकारी शिक्षकों का ताकतवर कुनबा और उनके साथी शोर मचाएंगे. लेकिन जो कदम स्थितियों को और रोचक बना देगा, वह यह कि पेट्रोलियम पदार्थों पर दी जाने वाली सब्सिडी खत्म कर दी जाए. बहुत पहले से यह साफ हो चुका है कि ये चीजें हमारे पर्यावरण के लिए बुरी हैं और हमें पीछे धकेलने वाली हैं. इस फैसले को थोड़ा सुखद बनाने के लिए सरकार को यह भी ऐलान कर देना चाहिए कि मौजूदा पेट्रोलियम सब्सिडी का 50 फीसदी हिस्सा यूनिवर्सल कैश ट्रांसफर पर खर्र्च किया जाएगा.
एक साल में कर डालें
कैश ट्रांसफर के लिए किसी लंबी-चौड़ी व्यवस्था की जरूरत नहीं है. हर किसी को यूआइडी या विशिष्ट पहचान पत्र देने से यह सुनिश्चित करने में आसानी होगी कि कोई दो बार इसका लाभ न ले सके. अगर हर किसी के पास अपना बैंक खाता होगा तो ट्रांसफर करना आसान हो जाएगा.
किंग करेस्पॉन्डेंट ऐक्ट की वजह से यह प्रक्रिया अब ज्यादा आसान हो गई है, लेकिन बैंक अब भी सुस्त गति से काम कर रहे हैं. बैंकों के ऊपर और दबाव डाला जाए. साथ ही मोबाइल फोन के जरिए वित्तीय हस्तांतरण की ज्यादा सक्षम तकनीक अपनाने का प्रयास किया जाए (केन्या में बेहद लोकप्रिय एम-पीईएसए सिस्टम की तरह).
शिक्षा का अधिकार कानून को फिर से लिखे जाने के लिए एक वर्ष का समय काफी है. सुरक्षा के कुछ बुनियादी मुद्दों को छोड़कर स्कूलों का आकलन मुख्य रूप से इसी आधार पर होना चाहिए कि बच्चे सीख रहे हैं या नहीं. इसे विश्वसनीय ढंग से करने के लिए पढ़ाई के सतत मूल्यांकन की प्रक्रिया को फिर से शुरू करने की जरूरत है, जिसे शिक्षा का अधिकार कानून के तहत खत्म कर दिया गया था.
हमारे यहां कुपोषण की दर अफ्रीका के बेहद गरीब देशों के मुकाबले दोगुनी है, जबकि हम उससे बहुत ज्यादा संपन्न हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि बच्चों का पोषण माता-पिता की प्राथमिकताओं में नहीं है. हमें साफ तौर पर पता नहीं है कि इसे दूर करने के लिए क्या किया जाए, लेकिन यदि फिल्म और क्रिकेट के बड़े सितारों को पोषण के बड़े सरकारी कैंपेन का हिस्सा बनाया जाए तो इससे कोई नुकसान नहीं होगा.
स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में भी बहुत गड़बड़ियां हैं. नीतियों पर हमारी सारी बहस सरकारी नर्सों, डॉक्टरों और निजी अस्पतालों के इर्द-गिर्द घूमती रहती है. हम इस तथ्य को पूरी तरह दरकिनार कर देते हैं कि स्वास्थ्य सेवा का एक बड़ा वर्ग इस दुनिया के बाहर भी है, जहां सड़क किनारे लगी दुकानों पर झेला छाप डॉक्टर ऐंटीबायोटिक और स्टेरॉएड्स बांटा करते हैं.
इस समस्या से निबटने के लिए जरूरी है कि हम इस विषय पर बात करना शुरू करें. इसके लिए सरकार को व्यापक जनसहयोग के साथ एक राष्ट्रीय स्वास्थ्य आयोग की स्थापना करनी चाहिए ताकि स्वास्थ्य सेवाओं की पूरी व्यवस्था को आमूलचूल बदलने के लिए क्रांतिकारी ढंग से विचार किया जा सके. कहने का आशय यह है कि आयोग में सिर्फ डॉक्टरों की भर्ती न हो क्योंकि डॉक्टरों को अपना उल्लू भी तो सीधा करना है.
तीन साल में पूरा करें
पोषक तत्वों पर ध्यान देकर पोषण को बेहतर बनाने के लिए काफी कुछ किया जा सकता है. जैसे कि एनीमिया से लडऩे के लिए आयरन पर विशेष जोर दिया जाए. इन पोषक तत्वों को अपने पारंपरिक भोजन में शामिल करने के तरीके ढूंढना और उन्हें बड़े पैमाने पर उपलब्ध करना प्राथमिकता होनी चाहिए (इसे स्कूल के भोजन या सार्वजनिक वितरण प्रणाली का हिस्सा बनाने जैसा कुछ करके).
इस बात को लेकर लोगों में चेतना बढ़ रही है कि हमारे शहर किस कदर प्रदूषण के शिकार हैं. दिल्ली के आगे बीजिंग स्वर्ग जैसा लगता है. प्रदूषण फैलाने वालों की निगरानी होनी चाहिए और उन्हें दंडित किया जाना चाहिए.
हमारे शहरों के गरीब इलाकों में पीने का साफ पानी और समुचित साफ-सफाई अब भी दुर्लभ चीज है. जमीन से जुड़े पुराने नियम, शहरी विकास की नीरस योजनाएं और सुस्त और कमजोर शहरी प्रबंधन इसके लिए जिम्मेदार है. हमें यह सब बदलने की जरूरत है.
समन्वित बाल विकास योजना का मकसद गरीब बच्चों को आगे बढऩे का बुनियादी आधार मुहैया कराना था. लेकिन यह योजना इतने लचर ढंग से काम कर रही है कि ज्यादातर माता-पिता इसे बीच में ही छोड़ देते हैं. इस योजना पर एक बार फिर से विचार करने और फिर से इसका स्वरूप तय करने की जरूरत है.
पांच साल में पूरा करें
यह विवेकपूर्ण है कि पांच साल की समय सीमा के साथ कुछ लक्ष्य तय किए जाएं. इस दिशा में कई मूलभूत बिंदुओं पर विचार किया जा चुका है, लेकिन अभी और महत्वपूर्ण सवालों को खोजे जाने की जरूरत है.
शिक्षा के क्षेत्र में हमारा लक्ष्य यह होना चाहिए कि प्राइमरी शिक्षा की उम्र के 50 फीसदी से ज्यादा बच्चे शिक्षा हासिल करें और अपने स्तर की गणित के सवाल हल कर सकें. आर्थिक मदद के लिए यूनिवर्सल ट्रांसफर कार्यक्रम होना चाहिए, जिसमें शहरी और ग्रामीण सभी नागरिक शामिल हों. यह सहयोग प्रदान करने की प्रक्रिया में बैंक खातों तक हमारी वैश्विक पहुंच होगी, जहां लोग अपने धन को सुरक्षित रख सकेंगे.
बाल कुपोषण के मामले में हमारा लक्ष्य गंभीर कुपोषण के मामलों की दर को आधा करना है. वयस्कों के संबंध में गंभीर एनीमिया के मामलों में लगभग एक-तिहाई की कमी लाना है. शहरों में हमारा लक्ष्य यह होना चाहिए कि जिन लोगों तक पीने का साफ पानी और सफाई व्यवस्था नहीं पहुंच पा रही है, उनकी संख्या में एक-तिहाई की कमी आए. वायु में मौजूद प्रदूषक तत्वों की दर 60 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर से कम करना हमारा लक्ष्य होना चाहिए.
स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में अनुमानित लक्ष्य बहुत आसान है—आगामी पांच साल में शिशु और मातृ मृत्यु दर में एक-चौथाई की कमी. वृहत्तर लक्ष्य थोड़ा जटिल है और उसके स्वरूप और मात्रा को निर्धारित करना मुश्किल है: मसलन, हमारी स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था को तर्कसंगत और औचित्यपूर्ण बनाना.
सरकारी तंत्र में बड़ी संख्या में मौजूद डॉक्टरों और नर्सों का बेहतर इस्तेमाल करना, जो तनख्वाह लेने के अलावा बहुत कम काम करते हैं. नीम-हकीमों और आध्यात्मिक उपचारकों को एकजुट किया जाए ताकि उनका बेहतर प्रशिक्षण और नियमन किया जा सके.
इनमें से कोई काम आसान नहीं है. कुछ तो असंभव की हद तक मुश्किल हैं, लेकिन हम अपने देश पर गर्व महसूस करना चाहते हैं.
(लेखक एमआइटी, अमेरिका में इकोनॉमिक्स के फोर्ड फाउंडेशन इंटरनेशनल प्रोफेसर हैं)
सामाजिक मामलों के मंत्रालयों में सबसे बेतहर मंत्रियों की नियुक्ति हो. लफ्फाज विचारक नहीं, जल्दबाज लोग भी नहीं, अपनी पार्टी के सदस्यों, दोस्तों और परिवार वालों पर मेहरबानी बरसाने वाले भी नहीं. पार्टी के वफादार टट्टू नहीं, किसी खास निर्वाचन क्षेत्र के प्रति दिखावे के लिए ही सही, बिछ जाने वाले नहीं. बेशक, कोई ऐसा भी नहीं, जिसे अपने सुकून की बहुत ज्यादा फिक्र हो.
ऐसे लोग जिनमें यह जानने-समझने की बौद्घिक ललक हो कि ये समस्याएं क्यों इतनी विकराल हो जाती हैं. इतना सारा पैसा खर्च करके भी हासिल इतना मामूली क्यों है? ऐसे लोग, जो धैर्य के साथ सीखने की कोशिश करें, जिनमें निजी हितों के खिलाफ सतत संघर्ष छेडऩे की इच्छाशक्ति हो. शिक्षक, जो पढ़ाना नहीं चाहते, काम से नदारद डॉक्टर, कंपनियां, जो खुशी-खुशी नदियों में जहर घोल रही हैं और वे सब, जो इस देश को लूट रहे हैं, सबके खिलाफ एक सतत संघर्ष हो.
यह सब इतना आसान भी नहीं है. हमेशा नई-नई योजनाएं शुरू करने की हड़बड़ी जो होती है. जब जहां मुमकिन हो, तत्काल नई सरकार का ठप्पा लग जाए. लेकिन अगर नए मंत्री को सही ढंग से काम करने का मौका मिलेगा तो उन्हें इसे करने के लिए वक्त की दरकार होगी. धैर्य बहुत जरूरी है.
100 दिन में क्या करें
शुरू के 100 दिन वही सोचे-समझे काम करने का वक्त है, बाद में जिनके, थोड़े दिनों के लिए ही सही, अलोकप्रिय होने का अंदेशा है. यह बिलकुल साफ है कि शिक्षा का अधिकार कानून का सबसे बुरा पहलू फिर सतह पर आ जाएगा. बड़ी संख्या में गरीब तबके के बच्चों को शिक्षा देने वाले सस्ते निजी स्कूलों पर अजीब किस्म की न्यूनतम जरूरतें बताकर उनका दमन किया जा रहा है.
मसलन, शिक्षकों की तनख्वाह कितनी होनी चाहिए, स्कूल की बिल्डिंग कैसी दिखनी चाहिए. सौ दिन यह तय करने के लिए काफी नहीं है कि इस कानून में कैसे सुधार किया जाना चाहिए, लेकिन इसे लागू करने से तो रोका ही जा सकता है ताकि स्कूल चलते रहें.
जाहिर है कि इससे बवाल होगा. राजधानी में सरकारी शिक्षकों का ताकतवर कुनबा और उनके साथी शोर मचाएंगे. लेकिन जो कदम स्थितियों को और रोचक बना देगा, वह यह कि पेट्रोलियम पदार्थों पर दी जाने वाली सब्सिडी खत्म कर दी जाए. बहुत पहले से यह साफ हो चुका है कि ये चीजें हमारे पर्यावरण के लिए बुरी हैं और हमें पीछे धकेलने वाली हैं. इस फैसले को थोड़ा सुखद बनाने के लिए सरकार को यह भी ऐलान कर देना चाहिए कि मौजूदा पेट्रोलियम सब्सिडी का 50 फीसदी हिस्सा यूनिवर्सल कैश ट्रांसफर पर खर्र्च किया जाएगा.
एक साल में कर डालें
कैश ट्रांसफर के लिए किसी लंबी-चौड़ी व्यवस्था की जरूरत नहीं है. हर किसी को यूआइडी या विशिष्ट पहचान पत्र देने से यह सुनिश्चित करने में आसानी होगी कि कोई दो बार इसका लाभ न ले सके. अगर हर किसी के पास अपना बैंक खाता होगा तो ट्रांसफर करना आसान हो जाएगा.
किंग करेस्पॉन्डेंट ऐक्ट की वजह से यह प्रक्रिया अब ज्यादा आसान हो गई है, लेकिन बैंक अब भी सुस्त गति से काम कर रहे हैं. बैंकों के ऊपर और दबाव डाला जाए. साथ ही मोबाइल फोन के जरिए वित्तीय हस्तांतरण की ज्यादा सक्षम तकनीक अपनाने का प्रयास किया जाए (केन्या में बेहद लोकप्रिय एम-पीईएसए सिस्टम की तरह).
शिक्षा का अधिकार कानून को फिर से लिखे जाने के लिए एक वर्ष का समय काफी है. सुरक्षा के कुछ बुनियादी मुद्दों को छोड़कर स्कूलों का आकलन मुख्य रूप से इसी आधार पर होना चाहिए कि बच्चे सीख रहे हैं या नहीं. इसे विश्वसनीय ढंग से करने के लिए पढ़ाई के सतत मूल्यांकन की प्रक्रिया को फिर से शुरू करने की जरूरत है, जिसे शिक्षा का अधिकार कानून के तहत खत्म कर दिया गया था.
हमारे यहां कुपोषण की दर अफ्रीका के बेहद गरीब देशों के मुकाबले दोगुनी है, जबकि हम उससे बहुत ज्यादा संपन्न हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि बच्चों का पोषण माता-पिता की प्राथमिकताओं में नहीं है. हमें साफ तौर पर पता नहीं है कि इसे दूर करने के लिए क्या किया जाए, लेकिन यदि फिल्म और क्रिकेट के बड़े सितारों को पोषण के बड़े सरकारी कैंपेन का हिस्सा बनाया जाए तो इससे कोई नुकसान नहीं होगा.
स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में भी बहुत गड़बड़ियां हैं. नीतियों पर हमारी सारी बहस सरकारी नर्सों, डॉक्टरों और निजी अस्पतालों के इर्द-गिर्द घूमती रहती है. हम इस तथ्य को पूरी तरह दरकिनार कर देते हैं कि स्वास्थ्य सेवा का एक बड़ा वर्ग इस दुनिया के बाहर भी है, जहां सड़क किनारे लगी दुकानों पर झेला छाप डॉक्टर ऐंटीबायोटिक और स्टेरॉएड्स बांटा करते हैं.
इस समस्या से निबटने के लिए जरूरी है कि हम इस विषय पर बात करना शुरू करें. इसके लिए सरकार को व्यापक जनसहयोग के साथ एक राष्ट्रीय स्वास्थ्य आयोग की स्थापना करनी चाहिए ताकि स्वास्थ्य सेवाओं की पूरी व्यवस्था को आमूलचूल बदलने के लिए क्रांतिकारी ढंग से विचार किया जा सके. कहने का आशय यह है कि आयोग में सिर्फ डॉक्टरों की भर्ती न हो क्योंकि डॉक्टरों को अपना उल्लू भी तो सीधा करना है.
तीन साल में पूरा करें
पोषक तत्वों पर ध्यान देकर पोषण को बेहतर बनाने के लिए काफी कुछ किया जा सकता है. जैसे कि एनीमिया से लडऩे के लिए आयरन पर विशेष जोर दिया जाए. इन पोषक तत्वों को अपने पारंपरिक भोजन में शामिल करने के तरीके ढूंढना और उन्हें बड़े पैमाने पर उपलब्ध करना प्राथमिकता होनी चाहिए (इसे स्कूल के भोजन या सार्वजनिक वितरण प्रणाली का हिस्सा बनाने जैसा कुछ करके).
इस बात को लेकर लोगों में चेतना बढ़ रही है कि हमारे शहर किस कदर प्रदूषण के शिकार हैं. दिल्ली के आगे बीजिंग स्वर्ग जैसा लगता है. प्रदूषण फैलाने वालों की निगरानी होनी चाहिए और उन्हें दंडित किया जाना चाहिए.
हमारे शहरों के गरीब इलाकों में पीने का साफ पानी और समुचित साफ-सफाई अब भी दुर्लभ चीज है. जमीन से जुड़े पुराने नियम, शहरी विकास की नीरस योजनाएं और सुस्त और कमजोर शहरी प्रबंधन इसके लिए जिम्मेदार है. हमें यह सब बदलने की जरूरत है.
समन्वित बाल विकास योजना का मकसद गरीब बच्चों को आगे बढऩे का बुनियादी आधार मुहैया कराना था. लेकिन यह योजना इतने लचर ढंग से काम कर रही है कि ज्यादातर माता-पिता इसे बीच में ही छोड़ देते हैं. इस योजना पर एक बार फिर से विचार करने और फिर से इसका स्वरूप तय करने की जरूरत है.
पांच साल में पूरा करें
यह विवेकपूर्ण है कि पांच साल की समय सीमा के साथ कुछ लक्ष्य तय किए जाएं. इस दिशा में कई मूलभूत बिंदुओं पर विचार किया जा चुका है, लेकिन अभी और महत्वपूर्ण सवालों को खोजे जाने की जरूरत है.
शिक्षा के क्षेत्र में हमारा लक्ष्य यह होना चाहिए कि प्राइमरी शिक्षा की उम्र के 50 फीसदी से ज्यादा बच्चे शिक्षा हासिल करें और अपने स्तर की गणित के सवाल हल कर सकें. आर्थिक मदद के लिए यूनिवर्सल ट्रांसफर कार्यक्रम होना चाहिए, जिसमें शहरी और ग्रामीण सभी नागरिक शामिल हों. यह सहयोग प्रदान करने की प्रक्रिया में बैंक खातों तक हमारी वैश्विक पहुंच होगी, जहां लोग अपने धन को सुरक्षित रख सकेंगे.
बाल कुपोषण के मामले में हमारा लक्ष्य गंभीर कुपोषण के मामलों की दर को आधा करना है. वयस्कों के संबंध में गंभीर एनीमिया के मामलों में लगभग एक-तिहाई की कमी लाना है. शहरों में हमारा लक्ष्य यह होना चाहिए कि जिन लोगों तक पीने का साफ पानी और सफाई व्यवस्था नहीं पहुंच पा रही है, उनकी संख्या में एक-तिहाई की कमी आए. वायु में मौजूद प्रदूषक तत्वों की दर 60 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर से कम करना हमारा लक्ष्य होना चाहिए.
स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में अनुमानित लक्ष्य बहुत आसान है—आगामी पांच साल में शिशु और मातृ मृत्यु दर में एक-चौथाई की कमी. वृहत्तर लक्ष्य थोड़ा जटिल है और उसके स्वरूप और मात्रा को निर्धारित करना मुश्किल है: मसलन, हमारी स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था को तर्कसंगत और औचित्यपूर्ण बनाना.
सरकारी तंत्र में बड़ी संख्या में मौजूद डॉक्टरों और नर्सों का बेहतर इस्तेमाल करना, जो तनख्वाह लेने के अलावा बहुत कम काम करते हैं. नीम-हकीमों और आध्यात्मिक उपचारकों को एकजुट किया जाए ताकि उनका बेहतर प्रशिक्षण और नियमन किया जा सके.
इनमें से कोई काम आसान नहीं है. कुछ तो असंभव की हद तक मुश्किल हैं, लेकिन हम अपने देश पर गर्व महसूस करना चाहते हैं.
(लेखक एमआइटी, अमेरिका में इकोनॉमिक्स के फोर्ड फाउंडेशन इंटरनेशनल प्रोफेसर हैं)