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विदेश नीति और राष्ट्रीय सुरक्षाः लाल-बुझक्कड़ों की जगह विशेषज्ञों को अहमियत दें

नई सरकार को अपना रक्षा बजट बढ़ाना चाहिए, रक्षा नीति के मामले में सेना को शामिल करना चाहिए और क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग बढ़ाने के लिए उस क्षेत्र के विशेषज्ञों को नियुक्त करना चाहिए.

अपडेटेड 26 मई , 2014
आर्थिक कुप्रबंधन, भ्रष्टाचार, महंगाई, बढ़ता भुगतान घाटा और गिरती वृद्धि दर के कारण भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा और एक प्रभावी विदेश नीति बनाने की योग्यता पर बहुत उलटा असर पड़ा है. वित्तीय अपव्यय के चलते देश के रक्षा बजट में तेजी से कमी आई है, और यह जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) के 1.75 प्रतिशत से भी कम रह गया है—जो पांच दशकों में सबसे कम है.

सेना के पास महत्वपूर्ण हथियारों और उपकरणों की कमी है, जिनमें युद्धक विमान, पनडुब्बियां और पहाड़ों पर काम आने वाली तोपें आदि शामिल हैं. ये हमारी जमीनी और समुद्री सीमाओं पर मिलने वाली चुनौतियों से निबटने के लिए जरूरी हैं. इतना ही नहीं, हमारी लगातार बढ़ती रक्षा जरूरतों को पूरा करने के लिए एक औद्योगिक आधार बनाने की कोशिशों को भी कोई बल नहीं दिया गया है.

पड़ोसियों पर हमारा प्रभाव भी घट रहा है, क्योंकि उन्हें दी जाने वाली आर्थिक मदद में कमी की जा रही है. उन्नत औद्योगिक देशों को लग रहा है कि कारोबार करने के लिए भारत दुनिया के सबसे मुश्किल देशों में से एक है.

देश को अगर सुरक्षित और विश्व में सम्मानित होना है तो राजनैतिक स्थिरता, भ्रष्टाचार मुक्त सरकार और निवेश तथा वृद्धि को प्रोत्साहित करने वाली नीतियां बेहद जरूरी हैं. ऐसी सरकार समर्थन के लिए तुनकमिजाज क्षेत्रीय दलों पर आश्रित नहीं रह सकती.

स्थानीय उद्योग पर जोर
राष्ट्रीय सुरक्षा तभी सुनिश्चित की जा सकती है, जब रक्षा बजट को फिर से जीडीपी के 2.5 प्रतिशत के स्तर पर लाया जाए. इसके साथ ही उच्च-तकनीकी वाला उद्योग भी तेजी से विकसित करना होगा, खासकर विमानन, समुद्री जहाजों के निर्माण और संचार के क्षेत्र में. उच्च तकनीकी के क्षेत्र में विदेशी निवेश के रास्ते की अड़चनों को खत्म करना होगा. निजी क्षेत्र में पूंजी के प्रवाह और रणनीतिक उद्योगों में उसकी भागीदारी को प्रोत्साहन देना होगा.

रक्षा मंत्रालय का पुनर्गठन करने की भी जरूरत है. इसके लिए सेना, रक्षा वैज्ञानिकों और रक्षा मंत्रालय के नौकरशाहों में बेहतर सहयोग बनाना होगा. संपूर्ण परमाणु नियंत्रण संरचना को पुनर्गठित करने की जरूरत है. रक्षा उत्पादन की योग्यता बढ़ाने के लिए जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान, अमेरिका, इज्राएल और यूरोपीय यूनियन के कुछ चुनिंदा देशों को भागीदार बनाया जा सकता है.



कूटनीति के साथ व्यापार
भारत की सुरक्षा और विदेश नीति की चुनौतियां तथा प्राथमिकताएं पांच साल के लिए स्पष्ट होती हैं. कूटनीति, व्यापार और निवेश के प्रोत्साहन को साथ-साथ चलना होगा. ऑस्ट्रेलिया और कनाडा की तरह भारत को भी अपनी विदेश नीति, विदेश व्यापार और विदेशी सहयोग को एक ही मंत्रालय के तहत लाना चाहिए और इस मंत्रालय का नाम विदेशी मामले तथा व्यापार मंत्रालय रखा जा सकता है.

इस मंत्रालय में सिविल सेवा के सामान्य अधिकारियों को नियुक्त करने की जगह ऐसे अधिकारियों को नियुक्त करना चाहिए जो विदेशी मामलों में निपुण हों और व्यापार को बढ़ावा देने की इच्छा रखते हों. ऐसे अधिकारियों में प्रोफेशनल राजनयिकों के अलावा निजी क्षेत्र के बिजनेस अधिकारियों को अल्पकालिक कार्यकाल के लिए शामिल करना चाहिए. हमें पड़ोसी देशों के साथ आर्थिक सहयोग को ज्यादा प्राथमिकता देनी चाहिए.

चीन समेत अच्छी अर्थव्यवस्था वाले हमारे पूर्वी पड़ोसी देशों के अलावा तेल संपन्न खाड़ी देशों और ईरान के साथ आर्थिक भागीदारी बढ़ानी चाहिए ताकि निवेश और ऊर्जा सहयोग को बढ़ावा मिले. अफगानिस्तान को लेकर एक फायदेमंद नीति बनाने की सख्त जरूरत है, क्योंकि भारत अफगानिस्तान की सेना को मजबूत बनाने के प्रति ज्यादा रुचि दिखा रहा है. विदेश व्यापार में कूटनीति को जोडऩे से राष्ट्रीय हितों को किसी भी तरह से नजरअंदाज नहीं किया जा सकेगा.

नीति-निर्माण में सेना
नई सरकार अगर भारत के प्रति अंतरराष्ट्रीय विश्वास फिर से कायम करना चाहती है तो उसे यह संकेत देना होगा कि वह सत्ता में आने के तुरंत बाद अर्थव्यवस्था को तेजी से पटरी पर वापस लाना चाहती है. सुरक्षा के मुद्दों पर रक्षा मंत्रालय की नौकरशाही ऐसे किसी भी बदलाव के विरुद्ध रही है, जो उसकी हैसियत को प्रभावित करते हों. नरेश चंद्र समिति की कुछ सिफारिशें अब आम हो गई हैं.

यह अब कोई छिपा रहस्य नहीं है कि स्टाफ कमेटी के प्रमुखों में एक पूर्णकालिक अध्यक्ष न होने से हमारे रणनीतिक परमाणु बलों का नियंत्रण ढांचा संतोषजनक नहीं रहा है. दुनिया के किसी भी देश में सेना और विभिन्न विषयों की जानकारी रखने वाली नौकरशाही इतनी सख्ती से अलग नहीं की गई है.

सरकार को इस ढांचे में बदलाव लाने की इच्छा जाहिर करनी चाहिए और अपने कार्यकाल के पहले साल के अंत तक सेना को भी रक्षा नीति-निर्माण के मामले  में शामिल करने का साफ संकेत देना चाहिए.
पहले छह महीने के भीतर रक्षा उद्योग में विदेशी निवेश की भूमिका में नीतिगत बदलावों, रक्षा और अंतरिक्ष उद्योग में तेजी से वृद्धि के लिए विदेशी साझीदारों तथा हमारे अपने निजी क्षेत्र को आमंत्रित करने की दिशा में कदम बढ़ाना चाहिए.

बढ़ाएं क्षेत्रीय व्यापार
विदेश नीति के मामले में किसी तरह की अप्रत्याशित घोषणा करने की जरूरत नहीं है. राष्ट्राध्यक्षों के साथ टेलीफोन पर अपनी पहली बातचीत में प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री को फिर से यही बात दोहरानी चाहिए कि वे पड़ोसियों के साथ शांतिपूर्ण संबंध और आर्थिक सहयोग बढ़ाना चाहते हैं.

यह जरूरी है कि पहले 100 दिनों के भीतर देश को ज्यादा निवेशक और बिजनेस हितैषी बनाने के लिए नीतियों में बदलाव पर अध्ययन शुरू करना चाहिए और साल भर के भीतर ही इन नीतियों को लागू कर देना चाहिए. प्रधानमंत्री को अपने कार्यकाल के पहले ही वर्ष में प्रस्तावित नीतिगत बदलावों की चर्चा अपने क्षेत्रीय और ग्लोबल मंचों जैसे जी-20, ईस्ट एशिया समिट और आसियान पर करनी चाहिए. इससे प्रधानमंत्री को अपनी प्रस्तावित नीतियों के बारे में सीधी प्रतिक्रिया मिल सकती है और उन्हें ह्नेत्रीय व्यापार बढ़ाने में मदद मिल सकती है.

चीन-पाकिस्तान से बात हो
पाकिस्तान के साथ अब तक चली आ रही जुबानी जंग से बचना चाहिए. हमें उसके साथ सहयोग और अच्छे संबंध बनाने का प्रयास करना चाहिए. पड़ोसी देश में शांति भारत के लिए बेहतर रहेगी इसलिए वहां की नागरिक सरकार का सहयोग करना चाहिए. पाकिस्तान में लोकतंत्र को बढ़ावा मिलने से देश में समृद्धि आएगी और यह भारत के लिए बेहतर रहेगा. लेकिन पाकिस्तान अगर आतंकवाद को बढ़ावा देना जारी रखता है तो उसके लिए प्रभावी कदम उठाने के लिए भी तैयार रहना चाहिए.

चीन के साथ सीमा विवाद को खत्म करने की दिशा में जल्द कोई समाधान निकलने की संभावना कम ही है. लेकिन इस समय चीन जिस तरह से पड़ोसियों के साथ समुद्री क्षेत्र के विवाद में उलझ हुआ है, उसे देखते हुए वह भारत के साथ सीमा पर तनाव बढ़ाना नहीं चाहेगा. एशिया में स्थायी शक्तिसंतुलन बनाने के लिए सीमा विवाद पर चीन के साथ बातचीत के साथ-साथ जापान और वियतनाम जैसे उसके पड़ोसी देशों के अलावा अमेरिका के साथ सामरिक और आर्थिक सहयोग बढ़ाने के लिए प्रयास करना होगा.
 
(जी. पार्थसारथी पाकिस्तान में भारत के उच्चायुक्त रह चुके हैं)
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