बात 14 मई की है. नीतीश कुमार को हाशिए पर धकेलने वाली मतगणना से 36 घंटे पहले पटना के बुद्ध स्मृति पार्क में बुद्ध की मूर्ति के सामने हाथ जोड़कर और आंखें बंद किए प्रार्थना करते देखा गया. ऐसा लगा, जैसे मुख्यमंत्री खुद ही सत्ता का परित्याग कर रहे हों. और 17 मई को उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर अंदेशे को सच में बदल दिया. हालांकि उन्होंने विधानसभा भंग करने की मांग बीजेपी के जिम्मे छोड़ दी. उन्होंने 2009 में 40 में से 32 लोकसभा सीटों और 2010 में 243 विधानसभा सीटों में से 206 पर जीत हासिल करने वाले एनडीए का नेतृत्व किया था. माना जा रहा है कि उन्होंने इस्तीफा देकर अपना सियासी वजूद बचाने की लंबी चाल चली है. इससे उन्हें राज्य में विधानसभा चुनाव के दौरान सत्ता विरोधी लहर उतनी नहीं झेलनी पड़ेगी.
2014 के लोकसभा चुनाव में बिहार की 40 में से 38 सीटों पर उनकी पार्टी ने चुनाव लड़ा, लेकिन उन्हें महज दो सीटें ही हासिल हुई हैं. उन्होंने जब जून, 2013 में बीजेपी से अपना गठबंधन तोड़ा था तो वे सोच रहे थे कि राजनैतिक गणित उनके पक्ष में है. आखिरकार अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) उनके सामाजिक आधार का हिस्सा था जिसे उन्होंने सामाजिक कल्याण योजनाएं चला कर तैयार किया था. यह 17 फीसदी मुसलमानों और 12 फीसदी महादलितों का बड़ा हिस्सा था, जो कागज पर उन्हें अजेय दिख रहा था. लेकिन चुनाव के पहले ही दौर में संकेत मिल गया कि मुसलमानों ने लालू-कांग्रेस गठजोड़ को चुना है और ईबीसी का एक वर्ग नरेंद्र मोदी के समर्थन में दे रहा है. अब तो साबित भी हो गया है कि नीतीश का पूरा गणित गड़बड़ा गया.
बीजेपी ने नीतीश पर जब यह आरोप लगाया कि वे उसके पिछड़ी जाति के नेता यानी मोदी को प्रधानमंत्री बनने से रोकने की कोशिश कर रहे हैं तो बड़ी संख्या में ईबीसी वोटर नीतीश से छिटक गए. यही नहीं, मुसलमान लालू की तरफ वापस लौट गए. बीजेपी 39 फीसदी वोट पाने में कामयाब रही, जबकि उसके मुख्य आधार ऊंची जाति के ब्राह्मड्ढण, भूमिहार और वैश्य जनसंख्या में महज 18 फीसदी हैं. पूर्व उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी और बिहार के पार्टी प्रभारी धर्मेंद्र प्रधान के नेतृत्व में बीजेपी की राज्य इकाई ने जातियों और समुदायों का नया गठबंधन बनाया. उन्होंने एलजेपी से गठबंधन कर रामविलास पासवान को जोड़ा और लोक समता पार्टी के उपेंद्र कुशवाहा को साथ लाकर कोइरी समुदाय को साधा. बीजेपी ने ईबीसी की निषाद जैसी सबसे हाशिये पर रहने वाली जातियों को भी तोड़कर परंपरागत रूप से विरोधी मानी जाने वाली जातियों को साथ ले लिया. विश्लेषकों का मानना है कि मोदी के पिछड़ी जाति और उनके विकास पुरुष होने को प्रचारित करके बीजेपी ने ऐसा आधार तैयार किया जिसमें जाति आधारित समाज की कई परतें शामिल थीं.
गठबंधन के सहारे तेजी से आगे बढ़े नीतीश ने अपनी गिरावट की पटकथा खुद लिखी. वे बिहार में एनडीए गठबंधन का चेहरा थे, लेकिन सच यह है कि बीजेपी के प्रतिबद्ध काडर ने ही उनके वोटरों को बूथ तक लाने का जमीनी कार्य किया था. बीजेपी के एक नेता कहते हैं, ‘‘बीजेपी के काडर के बिना जेडी (यू) के कार्यकर्ता नीतीश के समर्थन में बनी हवा को वोटों में तब्दील कराने में सक्षम नहीं हो पाते.’’
हालांकि, खराब प्रदर्शन के बावजूद मुख्यमंत्री को प्रदेश की राजनीतिक जमीन से पूरी तरह से खारिज नहीं किया जा सकता. उन्होंने करीब 15.7 फीसदी वोट हासिल किए हैं और मोदी की उम्मीदवारी को लेकर बीजेपी से गठबंधन तोडऩे की वजह से बहुत से मुसलमान उनका सम्मान करते हैं. राज्य के मुसलमान बीजेपी को दूर रखने के लिए जीतने का माद्दा रखने वाली पार्टी के उम्मीदवारों को वोट करते रहे हैं. ऐसे वोट लोकसभा चुनाव में लालू के पाले में गए, क्योंकि मुसलमानों को लगता था कि लालू बीजेपी को रोकने के लिए उनसे बेहतर स्थिति में हैं. राज्य में वे ऐसी स्थिति में नीतीश को देख सकते हैं और शायद जेडी (यू) नेता को इसका अंदाजा है. मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे की वजह से उन्हें विधानसभा चुनाव की तैयारी का मौका मिल गया है.
2014 के लोकसभा चुनाव में बिहार की 40 में से 38 सीटों पर उनकी पार्टी ने चुनाव लड़ा, लेकिन उन्हें महज दो सीटें ही हासिल हुई हैं. उन्होंने जब जून, 2013 में बीजेपी से अपना गठबंधन तोड़ा था तो वे सोच रहे थे कि राजनैतिक गणित उनके पक्ष में है. आखिरकार अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) उनके सामाजिक आधार का हिस्सा था जिसे उन्होंने सामाजिक कल्याण योजनाएं चला कर तैयार किया था. यह 17 फीसदी मुसलमानों और 12 फीसदी महादलितों का बड़ा हिस्सा था, जो कागज पर उन्हें अजेय दिख रहा था. लेकिन चुनाव के पहले ही दौर में संकेत मिल गया कि मुसलमानों ने लालू-कांग्रेस गठजोड़ को चुना है और ईबीसी का एक वर्ग नरेंद्र मोदी के समर्थन में दे रहा है. अब तो साबित भी हो गया है कि नीतीश का पूरा गणित गड़बड़ा गया.
बीजेपी ने नीतीश पर जब यह आरोप लगाया कि वे उसके पिछड़ी जाति के नेता यानी मोदी को प्रधानमंत्री बनने से रोकने की कोशिश कर रहे हैं तो बड़ी संख्या में ईबीसी वोटर नीतीश से छिटक गए. यही नहीं, मुसलमान लालू की तरफ वापस लौट गए. बीजेपी 39 फीसदी वोट पाने में कामयाब रही, जबकि उसके मुख्य आधार ऊंची जाति के ब्राह्मड्ढण, भूमिहार और वैश्य जनसंख्या में महज 18 फीसदी हैं. पूर्व उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी और बिहार के पार्टी प्रभारी धर्मेंद्र प्रधान के नेतृत्व में बीजेपी की राज्य इकाई ने जातियों और समुदायों का नया गठबंधन बनाया. उन्होंने एलजेपी से गठबंधन कर रामविलास पासवान को जोड़ा और लोक समता पार्टी के उपेंद्र कुशवाहा को साथ लाकर कोइरी समुदाय को साधा. बीजेपी ने ईबीसी की निषाद जैसी सबसे हाशिये पर रहने वाली जातियों को भी तोड़कर परंपरागत रूप से विरोधी मानी जाने वाली जातियों को साथ ले लिया. विश्लेषकों का मानना है कि मोदी के पिछड़ी जाति और उनके विकास पुरुष होने को प्रचारित करके बीजेपी ने ऐसा आधार तैयार किया जिसमें जाति आधारित समाज की कई परतें शामिल थीं.
गठबंधन के सहारे तेजी से आगे बढ़े नीतीश ने अपनी गिरावट की पटकथा खुद लिखी. वे बिहार में एनडीए गठबंधन का चेहरा थे, लेकिन सच यह है कि बीजेपी के प्रतिबद्ध काडर ने ही उनके वोटरों को बूथ तक लाने का जमीनी कार्य किया था. बीजेपी के एक नेता कहते हैं, ‘‘बीजेपी के काडर के बिना जेडी (यू) के कार्यकर्ता नीतीश के समर्थन में बनी हवा को वोटों में तब्दील कराने में सक्षम नहीं हो पाते.’’
हालांकि, खराब प्रदर्शन के बावजूद मुख्यमंत्री को प्रदेश की राजनीतिक जमीन से पूरी तरह से खारिज नहीं किया जा सकता. उन्होंने करीब 15.7 फीसदी वोट हासिल किए हैं और मोदी की उम्मीदवारी को लेकर बीजेपी से गठबंधन तोडऩे की वजह से बहुत से मुसलमान उनका सम्मान करते हैं. राज्य के मुसलमान बीजेपी को दूर रखने के लिए जीतने का माद्दा रखने वाली पार्टी के उम्मीदवारों को वोट करते रहे हैं. ऐसे वोट लोकसभा चुनाव में लालू के पाले में गए, क्योंकि मुसलमानों को लगता था कि लालू बीजेपी को रोकने के लिए उनसे बेहतर स्थिति में हैं. राज्य में वे ऐसी स्थिति में नीतीश को देख सकते हैं और शायद जेडी (यू) नेता को इसका अंदाजा है. मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे की वजह से उन्हें विधानसभा चुनाव की तैयारी का मौका मिल गया है.