एक ऐसे दौर में जब ज्यादातर नेता सुरक्षित चाल चलना ही पसंद करते हों, राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे जोखिम उठाने वाली नेता के रूप में सामने आई हैं. विधानसभा चुनाव जीतने के फौरन बाद जीत का जश्न मनाने और इतराने की बजाए उन्होंने घोषणा की, “मेरा लक्ष्य 25 सीटें जीतना है.” वे बखूबी जानती थीं कि इससे एक भी सीट कम आई तो उन्हें कड़ी आलोचना झेलनी पड़ेगी. वे यह भी जानती थीं कि चुनावी युद्ध में मारक जज्बा ही सर्वोपरि होता है. उस दिन के बाद से ही हर कांग्रेस नेता निजी तौर पर बीजेपी के मिशन 25 की ही चर्चा करता था.
अपने कंधे पर ली जिम्मेदारी
वसुंधरा ने खुद पर यह दायित्व डाल दिया था कि नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए वे अपने राज्य की एक-एक सीट पार्टी की झोली में डालेंगी. इसे हासिल करने के लिए उन्हें एक क्षण का आराम भी गवारा न था. उन्होंने प्रशासन को लोगों तक पहुंचाने की पहल शुरू की. सबसे पहले उन्होंने कांग्रेस के गढ़ भरतपुर संभाग का दौरा कर कांग्रेस सरकार के शासन की खामियां सामने रखीं और जन-भावनाओं को छूने की कोशिश की. मिशन-25 का लक्ष्य हासिल कर जिस तरह वे अपने विरोधियों को ध्वस्त करने में कामयाब रहीं—चाहे वे बाड़मेर में बागी जसवंत सिंह हों या फिर अलवर और सीकर में क्रमशः महंत चांदनाथ और स्वामी सुमेधानंद तथा राजनीति में नए उतरे राज्यवर्धन सिंह राठौड़ को आगे बढ़ाने का मामला. उनकी रणनीति का असली रंग जयपुर शहर में नजर आया. राजे ने एकदम अनजान चेहरे, राम चरण बोहरा को यहां से मैदान में उतारा और वे सर्वाधिक 5,38,000 मतों से जीते.
नए चेहरों पर सफल दांव नए उम्मीदवारों को चुनाव में उतारने का जो जोखिम उन्होंने लिया, वह भी कामयाब रहा. कभी उम्मीदवारों के चयन पर संदेह जताने वाले अब उनकी पसंद की दाद देते हैं. पार्टी की जीत की प्रार्थना करने के लिए वे बांसवाड़ा के देवी त्रिपुर सुंदरी मंदिर गईं, पूजा के बाद जयपुर रवाना होने से पहले राजे ने कहा, “देश भर में मिली जीत नरेंद्र मोदी की सफलता है. बीजेपी कार्यकर्ताओं ने उनके नेतृत्व में यह चुनाव सिपाहियों की तरह लड़ा है.” अब मुद्दा यह है कि लोकसभा चुनाव में मिली यह बड़ी जीत राजे या फिर राजस्थान के लिए क्या मायने रखती है. सवाल यह भी है कि मोदी कैबिनेट में किसे जगह मिलेगी. राजे के पुत्र दुष्यंत सिंह लगातार तीसरी बार चुनाव जीते हैं और संभव है कि प्रचार से दूर रहकर काम करने वाले दुष्यंत को शायद कैबिनेट में जगह मिल जाए. राज्यवर्धन सिंह राठौड़ और सांवरलाल जाट को भी मंत्रिमंडल में शामिल किए जाने की संभावना है.
और बढ़ा राजे का रुतबा
गुजरात की तरह ही राजस्थान में भी कांग्रेस का सफाया करने में सफल राजे ने दूसरी पीढ़ी के नेताओं की जमात में अपनी स्थिति और भी मजबूत कर ली है. अपनी इस जीत के बाद राजे ने अपनी नजर अब 2018 के विधानसभा और 2019 के चुनाव पर लगा दी हैं. प्रशासन को दुरुस्त कर जनता के हित में काम को प्राथमिकता दे रहीं राजे ने राज्य की बुनियादी जरूरतों पर भी ध्यान केंद्रित किया है. उदाहरण के तौर पर वे शहरी योजना में सुधार करने पर जुटी हैं क्योंकि शहरों के अनियंत्रित विकास से वे भद्दे लगने लगे हैं. वे गांवों को भी विकास का केंद्र बनाना चाहती हैं. उन्हें इस बात का एहसास है कि यही एक मौका है जो उन्हें ऐसा मुख्यमंत्री बनने में मदद करेगा जिसे लोग नए राजस्थान के निर्माता के रूप में याद करेंगे. केंद्र में बीजेपी की सरकार बनने से राज्य को मिलने वाली केंद्रीय मदद में भी उन्हें तेजी की उम्मीद है.
पिछले 18 महीनों से लगातार चुनावों में उलझीं राजे ने मोदी मिशन के लिए अपनी पूरी ताकत झेंक दी. देर रात तक काम करना, हर निर्वाचन क्षेत्र के बड़े नेताओं से बात कर उन्हें चुनाव अभियान की खामियां बताना, उसे दुरुस्त करना, ठीक से काम न करने वालों को हटाकर दूसरों को तैनात करना और हर बूथ की रिपोर्ट पर सीधी नजर रखना, पिछले कुछ महीनों से उनका रूटीन बन गया था. वे भलीभांति जानती थीं कि लोग उन्हें वोट देंगे, लेकिन अपने राजनैतिक कौशल का प्रदर्शन करते हुए वे हर जगह मोदी के नाम पर वोट मांगती थीं क्योंकि वे किसी तरह की कसर नहीं छोडऩा चाहती थीं.
कभी प्रशासन में मोदी से भी आगे रहने वालीं राजे ने यह स्वीकार कर लिया कि 2008 में हार के बाद वे उनसे पिछड़ गईं. उसके बाद से ही वे ईमानदारी से मोदी को अपने नेता के रूप में पेश कर रही हैं. वे खुद गुजरात प्रशासन से फीड बैक लेती रहती हैं और जरूरी लगने पर अपने यहां उसमें संशोधन कर लागू करती रहती हैं. अपने पहले कार्यकाल में संगठन और संघ से मतभेद में उलझीं रहीं राजे ने इस बार पार्टी के हर गुट को साथ लिया और आरएसएस नेता भी उनसे खुश थे. सांसद और उनके सहायक भूपेंद्र यादव ने भी चुनावी रणनीति बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जबकि कांग्रेस को पिछली सरकार की गलतियों का भारी खामियाजा भुगतना पड़ा.
क्यों हुआ कांग्रेस का सूपड़ा साफ
हालिया विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का पूरी तरह से साफ हो जाना, पार्टी के लिए चिंता की बात है. खुद प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट भारी मतों के अंतर से चुनाव हार गए. हालांकि चुनाव नतीजों के बाद सचिन पायलट ने जिन्हें लोकसभा चुनाव से कुछ हफ्ते पहले ही प्रदेश अध्यक्ष का प्रभार सौंपा गया था, शालीनता से हार की जिम्मेदारी ले ली. उन्होंने जीत के लिए बीजेपी को न सिर्फ बधाई दी, बल्कि यह उम्मीद भी जताई कि राज्य और केंद्र में नई सरकारें अच्छा काम करेंगी. अपने राजनैतिक विरोधियों के बारे में उनका कहना था, “आखिर हम लोग दुश्मन तो हैं नहीं.” पायलट ने यह संदेश भेजने में भी हिचकिचाहट नहीं दिखाई कि वे हारने से डरते नहीं हैं. सी.पी. जोशी सियासत में नए राज्यवर्धन राठौड़ के सामने मैदान में उतरे थे लेकिन हार गए. राहुल गांधी मंडली के भंवर जितेंद्र सिंह (अलवर) हरीश चौधरी (बाड़मेर) और ज्योति मिर्धा (नागौर) भी हार गए पर पार्टी में उनकी भूमिका रहेगी.
राजस्थान में राजे का नेतृत्व, मोदी की लहर और कार्यकर्ताओं की कड़ी मेहनत ने इस ऐतिहासिक जीत की इबारत लिख डाली. अब लोगों को इंतजार है कि राजे राज्य को किस तरह बदलती हैं और मोदी जनता की आकांक्षाओं पर कितना खरा उतरते हैं.
अपने कंधे पर ली जिम्मेदारी
वसुंधरा ने खुद पर यह दायित्व डाल दिया था कि नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए वे अपने राज्य की एक-एक सीट पार्टी की झोली में डालेंगी. इसे हासिल करने के लिए उन्हें एक क्षण का आराम भी गवारा न था. उन्होंने प्रशासन को लोगों तक पहुंचाने की पहल शुरू की. सबसे पहले उन्होंने कांग्रेस के गढ़ भरतपुर संभाग का दौरा कर कांग्रेस सरकार के शासन की खामियां सामने रखीं और जन-भावनाओं को छूने की कोशिश की. मिशन-25 का लक्ष्य हासिल कर जिस तरह वे अपने विरोधियों को ध्वस्त करने में कामयाब रहीं—चाहे वे बाड़मेर में बागी जसवंत सिंह हों या फिर अलवर और सीकर में क्रमशः महंत चांदनाथ और स्वामी सुमेधानंद तथा राजनीति में नए उतरे राज्यवर्धन सिंह राठौड़ को आगे बढ़ाने का मामला. उनकी रणनीति का असली रंग जयपुर शहर में नजर आया. राजे ने एकदम अनजान चेहरे, राम चरण बोहरा को यहां से मैदान में उतारा और वे सर्वाधिक 5,38,000 मतों से जीते.
नए चेहरों पर सफल दांव नए उम्मीदवारों को चुनाव में उतारने का जो जोखिम उन्होंने लिया, वह भी कामयाब रहा. कभी उम्मीदवारों के चयन पर संदेह जताने वाले अब उनकी पसंद की दाद देते हैं. पार्टी की जीत की प्रार्थना करने के लिए वे बांसवाड़ा के देवी त्रिपुर सुंदरी मंदिर गईं, पूजा के बाद जयपुर रवाना होने से पहले राजे ने कहा, “देश भर में मिली जीत नरेंद्र मोदी की सफलता है. बीजेपी कार्यकर्ताओं ने उनके नेतृत्व में यह चुनाव सिपाहियों की तरह लड़ा है.” अब मुद्दा यह है कि लोकसभा चुनाव में मिली यह बड़ी जीत राजे या फिर राजस्थान के लिए क्या मायने रखती है. सवाल यह भी है कि मोदी कैबिनेट में किसे जगह मिलेगी. राजे के पुत्र दुष्यंत सिंह लगातार तीसरी बार चुनाव जीते हैं और संभव है कि प्रचार से दूर रहकर काम करने वाले दुष्यंत को शायद कैबिनेट में जगह मिल जाए. राज्यवर्धन सिंह राठौड़ और सांवरलाल जाट को भी मंत्रिमंडल में शामिल किए जाने की संभावना है.
और बढ़ा राजे का रुतबा
गुजरात की तरह ही राजस्थान में भी कांग्रेस का सफाया करने में सफल राजे ने दूसरी पीढ़ी के नेताओं की जमात में अपनी स्थिति और भी मजबूत कर ली है. अपनी इस जीत के बाद राजे ने अपनी नजर अब 2018 के विधानसभा और 2019 के चुनाव पर लगा दी हैं. प्रशासन को दुरुस्त कर जनता के हित में काम को प्राथमिकता दे रहीं राजे ने राज्य की बुनियादी जरूरतों पर भी ध्यान केंद्रित किया है. उदाहरण के तौर पर वे शहरी योजना में सुधार करने पर जुटी हैं क्योंकि शहरों के अनियंत्रित विकास से वे भद्दे लगने लगे हैं. वे गांवों को भी विकास का केंद्र बनाना चाहती हैं. उन्हें इस बात का एहसास है कि यही एक मौका है जो उन्हें ऐसा मुख्यमंत्री बनने में मदद करेगा जिसे लोग नए राजस्थान के निर्माता के रूप में याद करेंगे. केंद्र में बीजेपी की सरकार बनने से राज्य को मिलने वाली केंद्रीय मदद में भी उन्हें तेजी की उम्मीद है.
पिछले 18 महीनों से लगातार चुनावों में उलझीं राजे ने मोदी मिशन के लिए अपनी पूरी ताकत झेंक दी. देर रात तक काम करना, हर निर्वाचन क्षेत्र के बड़े नेताओं से बात कर उन्हें चुनाव अभियान की खामियां बताना, उसे दुरुस्त करना, ठीक से काम न करने वालों को हटाकर दूसरों को तैनात करना और हर बूथ की रिपोर्ट पर सीधी नजर रखना, पिछले कुछ महीनों से उनका रूटीन बन गया था. वे भलीभांति जानती थीं कि लोग उन्हें वोट देंगे, लेकिन अपने राजनैतिक कौशल का प्रदर्शन करते हुए वे हर जगह मोदी के नाम पर वोट मांगती थीं क्योंकि वे किसी तरह की कसर नहीं छोडऩा चाहती थीं.
कभी प्रशासन में मोदी से भी आगे रहने वालीं राजे ने यह स्वीकार कर लिया कि 2008 में हार के बाद वे उनसे पिछड़ गईं. उसके बाद से ही वे ईमानदारी से मोदी को अपने नेता के रूप में पेश कर रही हैं. वे खुद गुजरात प्रशासन से फीड बैक लेती रहती हैं और जरूरी लगने पर अपने यहां उसमें संशोधन कर लागू करती रहती हैं. अपने पहले कार्यकाल में संगठन और संघ से मतभेद में उलझीं रहीं राजे ने इस बार पार्टी के हर गुट को साथ लिया और आरएसएस नेता भी उनसे खुश थे. सांसद और उनके सहायक भूपेंद्र यादव ने भी चुनावी रणनीति बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जबकि कांग्रेस को पिछली सरकार की गलतियों का भारी खामियाजा भुगतना पड़ा.
क्यों हुआ कांग्रेस का सूपड़ा साफ
हालिया विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का पूरी तरह से साफ हो जाना, पार्टी के लिए चिंता की बात है. खुद प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट भारी मतों के अंतर से चुनाव हार गए. हालांकि चुनाव नतीजों के बाद सचिन पायलट ने जिन्हें लोकसभा चुनाव से कुछ हफ्ते पहले ही प्रदेश अध्यक्ष का प्रभार सौंपा गया था, शालीनता से हार की जिम्मेदारी ले ली. उन्होंने जीत के लिए बीजेपी को न सिर्फ बधाई दी, बल्कि यह उम्मीद भी जताई कि राज्य और केंद्र में नई सरकारें अच्छा काम करेंगी. अपने राजनैतिक विरोधियों के बारे में उनका कहना था, “आखिर हम लोग दुश्मन तो हैं नहीं.” पायलट ने यह संदेश भेजने में भी हिचकिचाहट नहीं दिखाई कि वे हारने से डरते नहीं हैं. सी.पी. जोशी सियासत में नए राज्यवर्धन राठौड़ के सामने मैदान में उतरे थे लेकिन हार गए. राहुल गांधी मंडली के भंवर जितेंद्र सिंह (अलवर) हरीश चौधरी (बाड़मेर) और ज्योति मिर्धा (नागौर) भी हार गए पर पार्टी में उनकी भूमिका रहेगी.
राजस्थान में राजे का नेतृत्व, मोदी की लहर और कार्यकर्ताओं की कड़ी मेहनत ने इस ऐतिहासिक जीत की इबारत लिख डाली. अब लोगों को इंतजार है कि राजे राज्य को किस तरह बदलती हैं और मोदी जनता की आकांक्षाओं पर कितना खरा उतरते हैं.