वसुंधरा राजे अपने आप में एक पहेली हैं. 2008 में राज्य में पार्टी की हार के बाद भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) आलाकमान ने चार साल पहले उन्हें हाशिए पर डाल दिया था. उस हार की मुख्य वजह राजे का दंभ और अक्खड़पन माना जा रहा था. पार्टी में ज्यादातर लोगों का मानना था कि समय के साथ वे शायद सुधर गई होंगी. इस बार उन्हें मुख्यमंत्री बनाए जाने पर पार्टी में उनके विरोधियों को भी लगा था कि वे बदल चुकी होंगी.
कुछ समय के लिए ऐसा दिखा भी. राज्य में पार्टी की कमान संभालने के तुरंत बाद उन्होंने अपने आलोचकों समेत सभी वरिष्ठ नेताओं से भेंट की और पुरानी कटुता भुलाकर सभी अहम फैसलों में उन्हें शामिल करने का वादा किया. इसका नतीजा भी दिखा. उनकी अगुआई में पार्टी ने राज्य की 200 सीटों में 163 सीटें जीतकर विधानसभा चुनावों में शानदार कामयाबी हासिल की. इस ऐतिहासिक जीत में बेशक नरेंद्र मोदी लहर का भी रोल था. राजे के बदले हुए नजरिए को देखकर ही मोदी और पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने उन्हें लोकसभा चुनावों में उम्मीदवारों के चयन में पूरी छूट दी.
पर राज्य में राजनीति के जानकारों और बीजेपी के अपने आलोचकों को लग रहा है कि राजे पुराने अवतार में वापस आ गई हैं. उन्होंने न सिर्फ आधा दर्जन प्रत्याशियों का चयन मनमाने ढंग से किया है, बल्कि पुराने आलोचकों के प्रति दुश्मनी का भाव भी दिखाया. पार्टी से निकाले गए जसवंत सिंह इसकी सबसे बड़ी मिसाल हैं. जसवंत सिंह ने राजे के पहले वाले शासन काल में उनके कामकाज के तरीके पर सवाल उठाए थे.
दोनों के बीच कटुता पहली बार उस वक्त देखने को मिली थी, जब जसवंत सिंह की पत्नी शीतल कुमारी ने राजे को 2003-08 के उनके शासनकाल में देवी के रूप में दिखाए जाने का खुला विरोध किया था. जोधपुर के एक पुजारी ने देवी वसुंधरा का मंदिर बनाने का इरादा जाहिर किया था और राजे को देवी अन्नपूर्णा के रूप में दिखाकर एक कैलेंडर भी बांटा था. शीतल ने इसका विरोध करते हुए पुलिस में शिकायत दर्ज कराई थी.
जसवंत सिंह ने भी पत्नी का साथ दिया और इस मुद्दे को पार्टी नेता लालकृष्ण आडवाणी के सामने भी उठाया. राजे ने भी पलटवार किया. जोधपुर के एक व्यक्ति ने स्थानीय अदालत में कथित तौर पर राजे के इशारे पर जसवंत सिंह और कुछ अन्य राजे विरोधी वरिष्ठ बीजेपी नेताओं के खिलाफ मामला दर्ज कराया. उन पर आरोप था कि उन्होंने अक्तूबर, 2007 में सिंह के गृह नगर जसोल में आयोजित स्वागत समारोह में अफीम का सेवन किया था. पश्चिमी राजस्थान में प्रथा के मुताबिक मेजबान अपने अतिथियों को केसर (अफीम का पानी) पेश करता है.
पार्टी के भीतरी लोगों का मानना है कि उस कटुता के कारण ही बाड़मेर से जसवंत सिंह का टिकट काटा गया. उनकी जगह राजे ने कर्नल सोनाराम को टिकट दिलाया, जो इससे पहले कांग्रेस के दिग्गज नेता थे और जो हाल ही में बीजेपी में शामिल हुए थे. इसी तरह बाबा रामदेव के दो लोगों—महंत सुमेधानंद और महंत चांद नाथ को टिकट दिए जाने पर भी सवाल उठ रहे हैं. सुमेधानंद सीकर से मैदान में है. राजे ने उन्हें टिकट देकर एनडीए सरकार में केंद्रीय मंत्री रहे और वहां से तीन बार के सांसद सुभाष महरिया का टिकट काट दिया.
नाथ को कमजोर उम्मीदवार माना जा रहा है, जिन्हें केंद्रीय मंत्री और अलवर राजघराने के वंशज जितेंद्र सिंह के खिलाफ खड़ा किया गया है. जसवंत सिंह की तरह महरिया ने भी निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लडऩे का फैसला किया है, जिससे यहां बीजेपी की राह कठिन हो गई है. राज्य की 25 में से ज्यादातर सीटों पर बीजेपी मजबूत दिखाई देती है, लेकिन लोकसभा चुनाव खत्म हो जाने के बाद अगर राजे को अपनी पार्टी के भीतर विरोध की आवाज सुनाई दे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी. अगर ऐसा होता है तो बहुत से जानकारों के मुताबिक, उनके मनमानी पूर्ण ढंग से काम करने के तरीके पर जरूर सवाल उठाए जाएंगे.
कुछ समय के लिए ऐसा दिखा भी. राज्य में पार्टी की कमान संभालने के तुरंत बाद उन्होंने अपने आलोचकों समेत सभी वरिष्ठ नेताओं से भेंट की और पुरानी कटुता भुलाकर सभी अहम फैसलों में उन्हें शामिल करने का वादा किया. इसका नतीजा भी दिखा. उनकी अगुआई में पार्टी ने राज्य की 200 सीटों में 163 सीटें जीतकर विधानसभा चुनावों में शानदार कामयाबी हासिल की. इस ऐतिहासिक जीत में बेशक नरेंद्र मोदी लहर का भी रोल था. राजे के बदले हुए नजरिए को देखकर ही मोदी और पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने उन्हें लोकसभा चुनावों में उम्मीदवारों के चयन में पूरी छूट दी.
पर राज्य में राजनीति के जानकारों और बीजेपी के अपने आलोचकों को लग रहा है कि राजे पुराने अवतार में वापस आ गई हैं. उन्होंने न सिर्फ आधा दर्जन प्रत्याशियों का चयन मनमाने ढंग से किया है, बल्कि पुराने आलोचकों के प्रति दुश्मनी का भाव भी दिखाया. पार्टी से निकाले गए जसवंत सिंह इसकी सबसे बड़ी मिसाल हैं. जसवंत सिंह ने राजे के पहले वाले शासन काल में उनके कामकाज के तरीके पर सवाल उठाए थे.
दोनों के बीच कटुता पहली बार उस वक्त देखने को मिली थी, जब जसवंत सिंह की पत्नी शीतल कुमारी ने राजे को 2003-08 के उनके शासनकाल में देवी के रूप में दिखाए जाने का खुला विरोध किया था. जोधपुर के एक पुजारी ने देवी वसुंधरा का मंदिर बनाने का इरादा जाहिर किया था और राजे को देवी अन्नपूर्णा के रूप में दिखाकर एक कैलेंडर भी बांटा था. शीतल ने इसका विरोध करते हुए पुलिस में शिकायत दर्ज कराई थी.
जसवंत सिंह ने भी पत्नी का साथ दिया और इस मुद्दे को पार्टी नेता लालकृष्ण आडवाणी के सामने भी उठाया. राजे ने भी पलटवार किया. जोधपुर के एक व्यक्ति ने स्थानीय अदालत में कथित तौर पर राजे के इशारे पर जसवंत सिंह और कुछ अन्य राजे विरोधी वरिष्ठ बीजेपी नेताओं के खिलाफ मामला दर्ज कराया. उन पर आरोप था कि उन्होंने अक्तूबर, 2007 में सिंह के गृह नगर जसोल में आयोजित स्वागत समारोह में अफीम का सेवन किया था. पश्चिमी राजस्थान में प्रथा के मुताबिक मेजबान अपने अतिथियों को केसर (अफीम का पानी) पेश करता है.
पार्टी के भीतरी लोगों का मानना है कि उस कटुता के कारण ही बाड़मेर से जसवंत सिंह का टिकट काटा गया. उनकी जगह राजे ने कर्नल सोनाराम को टिकट दिलाया, जो इससे पहले कांग्रेस के दिग्गज नेता थे और जो हाल ही में बीजेपी में शामिल हुए थे. इसी तरह बाबा रामदेव के दो लोगों—महंत सुमेधानंद और महंत चांद नाथ को टिकट दिए जाने पर भी सवाल उठ रहे हैं. सुमेधानंद सीकर से मैदान में है. राजे ने उन्हें टिकट देकर एनडीए सरकार में केंद्रीय मंत्री रहे और वहां से तीन बार के सांसद सुभाष महरिया का टिकट काट दिया.
नाथ को कमजोर उम्मीदवार माना जा रहा है, जिन्हें केंद्रीय मंत्री और अलवर राजघराने के वंशज जितेंद्र सिंह के खिलाफ खड़ा किया गया है. जसवंत सिंह की तरह महरिया ने भी निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लडऩे का फैसला किया है, जिससे यहां बीजेपी की राह कठिन हो गई है. राज्य की 25 में से ज्यादातर सीटों पर बीजेपी मजबूत दिखाई देती है, लेकिन लोकसभा चुनाव खत्म हो जाने के बाद अगर राजे को अपनी पार्टी के भीतर विरोध की आवाज सुनाई दे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी. अगर ऐसा होता है तो बहुत से जानकारों के मुताबिक, उनके मनमानी पूर्ण ढंग से काम करने के तरीके पर जरूर सवाल उठाए जाएंगे.