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भगीरथ प्रयास है जलधाराओं को जोडऩा

नदियों को जोडऩे पर बहस कोई नई बात नहीं, लेकिन 11.2 लाख करोड़ रु. के इस प्रोजेक्ट में विज्ञान और अर्थशास्त्र पर कहीं सियासत भारी तो नहीं पड़ रही है?

अपडेटेड 1 अप्रैल , 2014
मध्य प्रदेश के इंदौर जिले में सोंगुरडिय़ा गांव के निवासी रूप सिंह बोदाना ने आंखों में खुशी के आंसू लिए कहा, ''क्षिप्रा और नर्मदा मैया का मिलाप... चमत्कार है.” 50 वर्षीय रूप सिंह का मानना है कि शास्त्रों में पहले से इसका उल्लेख है, इसलिए यह तो होना ही था और इस जल में डुबकी लगाने से मुक्ति मिल जाएगी.

इस विश्वास से प्रेरित बोदाना अकेले नहीं हैं. पूरे जिले से लोग सोनवे गांव पहुंच रहे हैं, ताकि 47 किमी लंबी पाइपलाइन से लाए गए नर्मदा के जल में डुबकी लगा सकें. स्थानीय दुकानदार ने पाइप के खाली पड़े हिस्से में नारियल, अगरबत्ती, माचिस और दूसरी पूजा सामग्री की दुकान लगा ली है जो जमकर चल भी रही है.

मध्य प्रदेश सरकार का दावा है कि यह नदी जोडऩे का भारत का पहला प्रोजेक्ट है और 25 फरवरी को उज्जैनी गांव में इसके शुभारंभ के मौके पर बीजेपी के दिग्गज नेताओं के साथ योग गुरु बाबा रामदेव भी मौजूद थे. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ऐलान किया कि उनकी सरकार नदियों को जोडऩे के लिए वचनबद्ध है और इस काम के लिए सरकार पैसे की कमी नहीं होने देगी. उन्होंने वहां मौजूद करीब 10,000 लोगों के सामने कहा, ''जल्द ही काली सिंध, गंभीर और पार्वती नदियों को जोडऩे का काम शुरू होगा, जो किसानों के लिए वरदान साबित होगा.”

इस प्रोजेक्ट में चार पंपिंग स्टेशन दक्षिण मध्य प्रदेश में नर्मदा के सिसिल्या जलाशय से हर सेकंड 5,000 लीटर पानी उठा रहे हैं और इंदौर जिले में क्षिप्रा नदी के उद्गम स्थल उज्जैनी गांव में पाइप से पहुंचा रहे हैं. यहीं श्रद्धालुओं के स्नान के लिए संगम घाट बनवाया गया है. 432 करोड़ रु. के इस प्रोजेक्ट का उद्देश्य उज्जैन और देवास जिलों के 250 से ज्यादा गांवों में पीने का पानी और वहां तथा पीथमपुर के उद्योगों को पानी देना है.

मुख्यमंत्री कहते हैं कि इससे 2016 में उज्जैन में सिंहस्थ कुंभ मेले के लिए भी पूरा पानी मिलेगा. उन्होंने यह भी बताया कि इससे मालवा ह्नेत्र में बढ़ते रेगिस्तान की आशंकाएं भी दूर होंगी. पर इसके तात्कालिक असर बहुत अलग हैं. करीब 4,000 लोग रोजाना उज्जैनी पहुंच रहे हैं और यह तीर्थस्थल बनता जा रहा है. 27 फरवरी को महाशिवरात्रि के मौके पर ही 20,000 से 30,000 लोगों ने इस संगम में डुबकी लगाई. उज्जैनी और उसके आसपास जमीन के दाम चार गुना हो चुके हैं.

नदियों को जोडऩे के विचार के आलोचकों के अनुसार, यह प्रकृति के काम में दखलंदाजी है और लोगों को भ्रमित किया जा रहा है. टिकाऊ विकास के क्षेत्र में सक्रिय इंदौर के दिनेश कोठारी कहते हैं, ''वहां पहले से ही पानी की कमी नहीं है.” उन्होंने स्थानीय कहावत दोहराई, ''मालव भूमि गहन गंभीर, पग-पग रोटी, डग-डग नीर.” उनका कहना है, ''मालवा अपनी असमतल जमीन और घास के मैदानों के लिए मशहूर है.

इसीलिए गेहूं और दलहन की खास पहचान है. असमतल जमीन और घास की वजह से पानी का कुदरती भंडारण होता रहता है. क्षेत्र में कई नदी नाले भी हैं.” उनका कहना था कि नर्मदा-क्षिप्रा प्रोजेक्ट महंगा सौदा साबित होगा.

इंदौर में श्री गोविंदराम सेकसरिया इंस्टीट्यूट ऑफ  टेक्नोलॉजी ऑफ  साइंस में प्रोफेसर विनोद पाराशर की भी यही राय है. उनके अनुमान के मुताबिक, आज की दर पर नर्मदा-क्षिप्रा प्रोजेक्ट को चालू रखने की लागत 70 करोड़ रु. सालाना होगी. उनका सवाल है, ''यह आर्थिक रूप से कितना व्यावहारिक होगा और पंप चलाने की बिजली का खर्च कौन देगा? फिर यह तो अभी पहला चरण है.

सरकार दूसरी नदियों को भी जोडऩे और सिंचाई के लिए पानी देने की बात कर रही है, लेकिन इतनी बड़ी लागत को देखते हुए सिर्फ सिंचाई से संचालन लागत का मामूली हिस्सा मिल पाना भी मुश्किल है. प्रोजेक्ट का खर्च निकलने की तो बात ही नहीं है.”

नर्मदा-क्षिप्रा लिंक पर सवाल
आर्थिक लागत के अलावा बहुत-से लोगों को पर्यावरण पर इसके असर की भी चिंता है. हितैषियों का कहना है कि नर्मदा और स्थानीय पारिस्थितिकी पर पडऩे वाले असर को नजरअंदाज कर दिया गया है. कई बांध बन जाने और नर्मदा से बहुत सारा पानी निकलने से उसके अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया है.

लेकिन मध्य प्रदेश सरकार की सोच अलग है. नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण (एनवीडीए) के उपाध्यक्ष रजनीश वैश का कहना है कि उज्जैन में पानी की जबरदस्त कमी रही है. कुछ जलाशय बनने से समस्या कम हुई है, पर अब भी इसे मामूली वर्षा पर निर्भर रहना पड़ता है. वे कहते हैं, ''क्षिप्रा नदी पर सेवरखेड़ी में 400 करोड़ रु. की लागत से बांध बनाया जाना था.

डूब की जमीन वाले किसानों ने विरोध किया और जमीन की बढ़ती लागत से यह नामुमकिन हो गया.” उन्होंने बताया कि अगर आज यह बांध बनाया जाए तो सिर्फ जमीन की लागत 300 करोड़ रु. से ज्यादा होगी और बांध पर 700 करोड़ रु. से ज्यादा खर्च होंगे. मध्य प्रदेश में बांध विरोधी आंदोलनों को देखते हुए यह कह पाना मुश्किल है कि बांध कब तक बन पाएगा. उन्होंने कहा, ''नर्मदा-क्षिप्रा लिंक इस प्रोजेक्ट की भी जगह ले रहा है.

हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि आबादी बढ़ रही है और उज्जैन में दिल्ली, मुंबई औद्योगिक गलियारा बन रहा है. जिससे मौजूदा संसाधनों पर दबाव बढ़ेगा.”

क्षेत्र के अधिकतर ग्रामीण इस हिसाब-किताब से अनजान हैं. श्याम चौधरी इंदौर जिले में पिवड़े गांव में रहते हैं और क्षिप्रा पुनर्प्रवाह अभियान (क्षिप्रा में नई जान फूंकने के लिए प्रोजेक्ट) से जुड़े हैं. वे इस लिंक से बहुत खुश हैं. उन्हें भरोसा है कि नर्मदा मैया दूसरी नदियों को कितना भी पानी दे दें, उनका जल कभी खत्म नहीं होगा. वे कहते हैं, ''अब क्षिप्रा मैया में साल भर पानी रहेगा. बारिश पर निर्भर रहने की वजह से जनवरी या फरवरी के बाद नदी सूख जाती थी.”

श्याम शिकायत करते हैं कि नदी जोड़ो प्रोजेक्ट पर अमल करने वाले नर्मदा प्राधिकरण ने मनमाने ढंग से काम किया है. और फैसले में लोगों को भागीदारी नहीं दी. वे कहते हैं, ''नदी के लिए खोदा गया रास्ता किसानों के खेतों से गुजरता है. पानी रिसने से खेतों में पानी जमा होने लगा है. जरा-सी भी बरसात होने पर पानी जमीन के ऊपर आ जाता है, जिससे फसलें खराब हो रही हैं. हम चाहते हैं कि सरकार जल्द नदी की तली में सीमेंट लगवा दे, ताकि रिसाव कम हो और फसलें बच सकें.”

एनवीडीए के रजनीश वैश कहते हैं कि सिर्फ सात किमी खुदाई हुई है. यह छोटी-सी नहर थी, जो अब चौड़ी हो गई है. उनके अनुसार, ''किसानों ने उस पर कब्जा कर लिया था, जिसे हमने फिर से चालू किया है. हम इसमें बहुत जल्द सीमेंट लगाने वाले हैं, ताकि खेतों में पानी का रिसाव न हो.” पर पिवड़े के किसान अनिल चौधरी जैसे लोग इससे सहमत नहीं हैं. उन्होंने कहा, ''भला नदियों के रास्ते सीमेंट से कब पक्के होते हैं? नदियां तो मनमौजी होती हैं, अपना रास्ता खुद बनाती हैं और रिसाव से तो मिट्टी में नमी बढ़ती है.”

बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी ने कई मंचों पर और अपने आर्थिक नजरिए में विकास में नदी लिंकिंग प्रोजेक्ट्स की भूमिका को अहम बताकर इस सोच को नई हवा दी है. हालांकि उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया है कि वास्तव में पानी इधर से उधर जाएगा कैसे.
 
पानी की राजनीति
बहुत-से लोगों का कहना है कि मोदी तो विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं. ऐसा कहने वाले वे अकेले नेता नहीं हैं. नर्मदा- क्षिप्रा प्रोजेक्ट के उद्घाटन के मौके पर बीजेपी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने भी सूखे से तबाह किसानों की दुर्दशा से द्रवित अटल बिहारी वाजपेयी के सपने का जिक्र किया था. उन्होंने कहा, ''वाजपेयीजी कहते थे कि भारत में इतनी सारी नदियां हैं.

अगर हम इन सारी नदियों को जोड़ दें और पानी की कमी वाली नदियों तक पानी पहुंचा दें, तब बाढ़ के पानी की निकासी हो जाए, सूखे मौसम में सिंचाई के लिए पानी मिल जाए, तो चमत्कार हो जाएगा.” आडवाणी ने कहा कि बीजेपी की पिछली सरकार में तत्कालीन ऊर्जा मंत्री सुरेश प्रभु के नेतृत्व में टास्क फोर्स ने इस दिशा में काम किया था, लेकिन मौजूदा सरकार ने इस बारे में कोई पहल नहीं की.

यूपीए सरकार ने 2004 से इस काम में दिलचस्पी नहीं दिखाई. केंद्र सरकार में जल संसाधन सचिव रह चुके रामास्वामी आर. अय्यर ने बताया कि यूपीए के न्यूनतम साझा कार्यक्रम में वादा किया गया था कि इस प्रोजेक्ट पर सब की सलाह से काम होगा. उन्होंने कहा, ''यूपीए-1 और 2 दोनों ने इसे औपचारिक रूप से छोड़ा तो नहीं लेकिन जान-बूझकर इसे ठंडे बस्ते में रहने दिया और इसके राजनैतिक कारण जाहिर हैं.”

मोदी ने भी यूपीए की इस उपेक्षा को उजागर किया है. मिसाल के तौर पर 8 फरवरी को गुवाहाटी की रैली में उन्होंने कहा, ''अटलजी का नदी जोड़ो प्रोजेक्ट देश को बाढ़ और सूखे की समस्या से निजात दिलाने का सपना था. सुप्रीम कोर्ट में पीआइएल दाखिल होने के बाद कोर्ट ने मनमोहन सिंह सरकार से स्टेटस रिपोर्ट मांगी, लेकिन सरकार ने समिति के गठन में 15 महीने लगा दिए. यह सरकार इस रफ्तार से काम करती है.”

नदियों को जोडऩे के 150 साल पुराने इस विचार के मौजूदा अवतार में 37 नदियों के 30 लिंक बनाने की कल्पना की गई है. इनमें से 14 हिमालय क्षेत्र में और 16 प्रायद्वीप में होंगे. इसके लिए बांध बनेंगे और नहरें खोदी जाएंगी, ताकि बाढ़ और सूखे से हमेशा के लिए छुटकारा मिल सके.

लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि राष्ट्र निर्माण का यह सपना इसलिए साकार नहीं हो सका क्योंकि इसमें राज्यों के बीच नदियों को जोडऩा होगा और राजनीति की जमीनी सचाई यह है कि कोई राज्य दूसरे राज्य को पानी देने की हिम्मत नहीं कर सकता. पानी का मसला राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आता है.

साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स ऐंड पीपल के संयोजक हिमांशु ठक्कर के मुताबिक, ''राज्य ताकतवर होते जा रहे हैं और पानी कम हो रहा है. यह भावनाओं से जुड़ गया है. भविष्य में चुनाव पानी के मुद्दे पर ही लड़े और हारे जाएंगे.” उनका मानना है कि यह विषय इतना नाजुक हो गया है कि एक ही पार्टी की सरकारों के बावजूद सहमति नहीं बन पाती.

उन्होंने मिसाल के तौर पर बताया कि मध्य प्रदेश और राजस्थान में बीजेपी सरकारों के बीच इस मुद्दे पर खींचतान है. पार्वती-काली सिंध-चंबल लिंक के लिए मध्य प्रदेश और राजस्थान में सहमति की कोशिश अभी हो रही है, लेकिन इस बीच मध्य प्रदेश सरकार ने मोहनपुरा और कुंडलिया पर अलग से काम शुरू कर दिया है, जबकि इन्हें पार्बती-काली सिंध-चंबल अंतरराज्यीय प्रोजक्ट का हिस्सा होना था.

उन्होंने कहा, ''जब हमने इस ओर इशारा किया तो मध्य प्रदेश सरकार ने साफ  कहा कि उसने नेशनल वाटर डेवलपमेंट एजेंसी (एनडब्लूडीए) की योजना को स्वीकार नहीं किया है. उस पर निकट भविष्य में अमल नहीं होने वाला. मध्य प्रदेश सरकार मोहनपुरा प्रोजेक्ट पर तुरंत अमल चाहती है.”

भारत सरकार की नदी जोड़ो समिति के सदस्य ए.सी. कामराज का कहना है, ''इसके लिए न सिर्फ सभी राज्यों को प्रस्ताव पर सहमति देने होगी, बल्कि यह भी मंजूर करना होगा कि वे कितनी मात्रा में पानी दूसरी नदियों के लिए दे सकते हैं. इस बात की संभावना नजर नहीं आती. इसीलिए जिन जोड़ों की व्यावहारिकता रिपोर्ट तैयार हो चुकी है उनके लिए विस्तृत प्रोजेक्ट रिपोर्ट या डीपीआर की ओर बढऩे में देरी हो रही है.”

इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि तीस अंतरराज्यीय जोड़ों में से सिर्फ एक यानी केन-बेतवा (मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश) के लिए विस्तृत प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार हो पाई है. इसके अलावा पार-तापी-नर्मदा और दमनगंगा-पिंजल प्रोजेक्ट की विस्तृत प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार करने के बारे में सहमति पत्रों पर गुजरात और महाराष्ट्र के बीच हस्ताक्षर हो सके हैं. नेत्रवती-हेमावती लिंक के मामले में तो कर्नाटक ने व्यावहारिकता रिपोर्ट के लिए भी अनुमति नहीं दी है. गोदावरी-कृष्णा लिंक के लिए आंध्र प्रदेश सरकार अपनी अलग योजना पर अमल कर रही है.

ठक्कर के मुताबिक, केंद्र सरकार पानी को समवर्ती यानी केंद्रीय सूची में लाने की कोशिश कर रही है, लेकिन ऐसा नहीं होने वाला है. अनेक विशेषज्ञों का मानना है कि राज्य सरकारें अपने राज्य के भीतर ही नर्मदा-ह्निप्रा जैसे लिंक पर ध्यान देंगी. बिहार के लिए एनडब्लूडीए ने बूढ़ी गंडक-नून-बया-गंगा लिंक की विस्तृत प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार कर दी है और कोसी-मेची की डीपीआर बन रही है.
 
वैज्ञानिक खामी?

1982 में जल संसाधन मंत्रालय के तहत नदियों को जोडऩे की व्यावहारिकता के अध्ययन के लिए एनडब्लूडीए का गठन किया गया था. उसका कहना है कि नदियों को जोडऩे से सिंचाई की क्षमता 14 करोड़ हेक्टेयर से बढ़कर 17.5 करोड़ हेक्टेयर हो जाएगी और 3.4 करोड़ किलोवाट बिजली पैदा होगी. बाढ़ पर काबू होगा, नौवहन की सुविधा मिलेगी, पानी की सप्लाई, खारेपन और प्रदूषण की समस्याओं पर लगाम कसेगी.

एनडब्लूडीए के डायरेक्टर जनरल एस. मसूद हुसैन का कहना है कि भारत को खाद्य सुरक्षा के लिए पानी चाहिए. उन्होंने बताया, ''नदियों को जोडऩे की योजना तकनीकी-आर्थिक मापदंड के आधार पर बनाई गई है. सिर्फ  सिंचाई के मामले में लागत से डेढ़ गुना ज्यादा लाभ होगा. बारिश का ज्यादातर पानी समुद्र में बेकार बह जाता है. पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और असम में भंडारण की सुविधा न होने से हर साल बाढ़ आती है और पानी बर्बाद चला जाता है.”

इस तर्क में दम लगता है, लेकिन योजना आयोग के सदस्य मिहिर शाह का कहना है कि नदियों पर बांध बन जाने से गाद की सप्लाई कम हो जाती है और तटवर्ती क्षेत्रों की पारिस्थितिकी नष्ट हो जाती है. उन्होंने बताया कि 12वीं पंचवर्षीय योजना में आधिकारिक तौर पर मान लिया गया है कि इतने बड़े प्रोजेक्ट से भारी तबाही आ सकती है.

मानसून पर भारत की निर्भरता बहुत ज्यादा है. विशेषज्ञों का कहना है कि आम तौर पर पूरे उपमहाद्वीप में एक ही समय पर नदियों में बाढ़ आती है. इसलिए यह समझना मुश्किल है कि उस समय पहले से बाढ़ वाला बेसिन दूसरे से और पानी क्यों लेगा? पर्यावरणविद् वंदना शिवा का कहना है कि उत्तराखंड में हुई तबाही में हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट्स का बड़ा हाथ है.

उनके अनुसार नदी जोड़ो प्रोजेक्ट के पीछे जल विज्ञान और पारिस्थितिकी विज्ञान का ठोस आधार नहीं है. इसका उद्देश्य भारत के पानी को कॉमोडिटी बना देना है. वंदना शिवा बताती हैं, ''मैंने केन-बेतवा लिंक और शारदा यमुना लिंक का विस्तृत अध्ययन किया है. बाढ़ वाले क्षेत्र से पानी को सूखे वाले क्षेत्र में पहुंचाने का तर्क खोखला है. बुंदेलखंड में सूखा पडऩे पर केन और बेतवा दोनों में पानी कम हो जाता है. इसी तरह शारदा में बाढ़ आने के समय यमुना में भी बाढ़ आई होती है.”

कई विशेषज्ञों को यह भी संदेह है कि इतने बड़े प्रोजेक्ट पर क्या अमल संभव है. ढाका के इंस्टीट्यूट ऑफ वाटर ऐंड एनवायरनमेंट (आइडब्लूई) के अध्यक्ष एम. इनामुल हक मानते हैं कि इतने विशाल प्रोजेक्ट को पूरा कर पाना असंभव है. उन्होंने कहा, ''इस नदी जोड़ो प्रोजेक्ट में 30 नहरें हैं. पानी हमेशा नीचे की ओर बहता है और उसी वजह से नदी बेसिन बनते हैं.”

उन्होंने यह भी कहा कि अप्राकृतिक मांग के लिए नदियों की धारा मोडऩा कितना टिकाऊ होगा, कहना मुश्किल है और भारत समेत दुनिया भर में ऐसे तमाम बड़े और छोटे बांधों के खंडहर दिखाई देते हैं, जिन्हें खाली छोड़ दिया गया है. हक के अनुसार, ''इन सब बातों के आधार पर बेहद उपयोगी दिखने वाले नदी जोड़ो प्रोजेक्ट कहीं शुरू तो हो सकते हैं, पर मुश्किलों में फंस जाएंगे. नदियों का पानी मोडऩे से बहते-बहते रिसाव होगा और रख-रखाव का खर्च बहुत अधिक होगा.”

एनडब्लूडीए का दावा है कि पर्यावरण पर पडऩे वाले सभी प्रभावों का आकलन कर लिया गया है. डीपीआर में उसके समाधान भी सुझए गए हैं. लेकिन पर्यवेक्षकों का कहना है कि नदी की धारा की ऊपरी और निचले इलाके में निवासियों और पारिस्थितिकी पर पडऩे वाले प्रभाव को इसमें शामिल नहीं किया गया है. उनका तर्क है कि इस प्रोजेक्ट में 200 बड़े जलाशय, 60 से 80 बांध और नहरों का निर्माण करना होगा, जिससे बड़े पैमाने पर लोग विस्थापित होंगे और खेती की जमीन डूब जाएगी.

इससे जल का प्रवाह अस्थिर होने और प्राकृतिक निकासी में अवरोध की वजह से बाढ़ और सूखे की समस्या और गंभीर हो जाएगी. इतना ही नहीं, खेती पर और असर पड़ेगा. पर्यावरणविद वंदना शिवा केन-बेतवा लिंक के बारे में कहती हैं, ''यह प्रोजेक्ट पन्ना बाघ अभयारण में शुरू होता है. आकलन में सरसरी तौर पर कहा गया है कि बाघों के पैर होते हैं. वे चल सकते हैं, इसलिए कहीं और जाकर बसेरा तलाश लेंगे, जबकि अभयारण से बाहर उन्हें सिर्फ  गांवों में बसेरा करना पड़ेगा.”

 आसान नहीं आर्थिक पक्ष
नदियों को जोडऩे के प्रोजेक्ट की शुरुआती लागत 2002 में 5.6 लाख करोड़ रु. थी, जिससे इसके लागत और फायदों पर सवाल उठे. इनामुल हक का अनुमान है कि लागत अब दोगुनी हो गई है. इंटरनेशनल वाटर मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट में सीनियर फैलो तुषार शाह का कहना है कि 5.6 लाख करोड़ रु. का अनुमान 15 साल पहले लगाया गया था और आज यह 10 लाख करोड़ रु. से ऊपर होगा. शाह के अनुसार, ''यह पूरे साल के जीडीपी के बराबर होगा. प्रोजेक्ट की विशालता को देखते हुए पूरा होने में तीस साल से ज्यादा लगेंगे, जिससे लागत कई गुना बढ़ जाएगी.”

फायदों की बात करें तो तुषार शाह का अनुमान है कि प्रोजेक्ट में जिस 3.5 करोड़ जमीन की सिंचाई का वादा है उसमें से ज्यादातर में पहले से निजी नलकूपों से सिंचाई हो रही है, जो नहर सिंचाई से ज्यादा फायदेमंद है. उन्होंने कहा, ''इतना ही नहीं, हिमालय क्षेत्र से पानी को उठाकर मध्य भारत के ऊंचे इलाकों तक पहुंचाने में प्रोजेक्ट में पैदा होने वाली बिजली में से 35 गीगावाट हाइड्रोपावर पर खर्च होगे.”

तमाम गुलाबी सपने दिखाए जाने के बावजूद वास्तविक सामाजिक-आर्थिक लाभ व्यावहारिक नहीं लगते. बहुत से विशेषज्ञों का कहना है कि जब जमीनी सचाई को ध्यान में रखे बिना कागजों पर योजनाएं बनती हैं, तभी ऐसे कार्यक्रम सामने आते हैं. ठक्कर के अनुसार, ''हम भारत में नदियों को पूजते हैं, लेकिन उनका मोल नहीं समझते. सबसे पवित्र मानी जाने वाली गंगा का हाल ही देख लीजिए.

1985 में प्रधानमंत्री ने गंगा एक्शन प्लान शुरू किया पर नाकाम रहा. 1995 में उसे राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना का रूप दिया गया, जो नाकाम रही. 2009 में भारत के प्रधानमंत्री के तहत राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन अथॉरिटी बनी. पिछले साढ़े पांच साल में उसकी सिर्फ  तीन बैठकें हुई हैं. यह अपने आप में सच बयान करने के लिए काफी है.”   



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