जब 1970 में नेविल मैक्सवेल की किताब इंडियाज चाइना वॉर आई थी, उस समय मैं इंदिरा गांधी के सचिवालय में काम कर रहा था जो मोरारजी देसाई के कार्यकाल में प्रधानमंत्री कार्यालय हो गया. विदेश, गृह और कानून मंत्रालयों ने सुझाव दिया था कि किताब पर प्रतिबंध लगा दिया जाए. मुझे उसे पढऩे का निर्देश दिया गया. बहुत सोच-विचार के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि इंडियाज चाइना वॉर पर प्रतिबंध लगाना न तो वांछित है और न ही आवश्यक है. मैक्सवेल दुआ कर रहे होंगे कि प्रतिबंध लग जाए क्योंकि सबका ध्यान किताब पर जाता और अच्छी खासी बिक्री हो जाती.
जरूरत यह पता लगाने की थी कि अति गोपनीय दस्तावेज लेखक के हाथ कैसे लगे. साफ तौर पर कानून का उल्लंघन हुआ था. इसके लिए कोई पकड़ में नहीं आया. नाम गुप्त नहीं थे. जहां तक मुझे याद है किताब पर रोक नहीं लगी थी. मैं गलत भी हो सकता हूं.
जवाहरलाल नेहरू की चीन नीति में खामियां थीं. तत्कालीन प्रधानमंत्री ने माओ त्से तुंग और उनके चालाक तथा चतुर दूत चाऊ एन लाइ पर कुछ ज्यादा ही भरोसा कर लिया था. एस. गोपाल ने भी नेहरू की प्रशंसात्मक जीवनी के तीसरे खंड में लिखा है, “1954 की तरह एक बार फिर चाउ एन लाइ से संयुक्त विज्ञप्ति में लिखवा लेना ज्यादा समझदारी होती. लेकिन नेहरू ने चाउ के शब्दों में आस्था और उसकी दोस्ती में विश्वास रखा. वे अभी तक यह नहीं समझ पाए थे कि ये विश्वास और आस्था बहुत हद तक एकतरफा थे. नेहरू बड़े पैमाने पर चीन के कब्जे की आशंका के प्रति पूरी तरह सतर्क नहीं थे.”
19 अप्रैल, 1960 को चीन के प्रधान मंत्री चाउ एन लाइ और विदेश मंत्री मार्शल चेन यि प्रधानमंत्री नेहरू से बात करने के लिए दिल्ली पहुंचे. मुझे चीन के प्रधानमंत्री का शिष्टाचार अधिकारी नियुक्त किया गया. हवाईअड्डे पर चाउ एन लाइ का स्वागत ठीक रहा. दोनों प्रधानमंत्रियों ने संक्षिप्त भाषण दिए. नेहरू ने कहा कि दोनों देशों के बीच रिश्तों को ठेस पहुंची है, विश्वास हिला है. चाउ एन लाइ ने अपने भाषण की शुरुआत इस तरह की, “महामहिम, माननीय और प्रिय प्रधानमंत्री नेहरू.” उन्होंने पंचशील का जिक्र किया. वे सारी समस्याएं सुलझाने की ईमानदार इच्छा लेकर आए थे. शाम को राष्ट्रपति भवन में नेहरू के रात्रि भोज में हताशा साफ झलक रही थी. अगले दिन दोनों प्रधानमंत्री बात करने बैठे. मुलाकात तीन मूर्ति भवन में हुई. कोई सहायक मौजूद नहीं था. सिर्फ दुभाषिए थे.
जवाहरलाल नेहरू ने चाउ एन लाइ से कहा कि उनके मंत्रिमंडल के कुछ साथी मिलने आएंगे. चाउ एन लाइ की जिद थी कि वे खुद मिलने जाएंगे. शिष्टाचार को ताक पर रखा गया. मैं चाउ एन लाइ के साथ उप-राष्ट्रपति एस. राधाकृष्णन, पंडित गोविंद बल्लभ पंत और वित्त मंत्री मोरारजी देसाई से मिलने गया.
चीन में हमारे राजदूत जी. पार्थसारथी और विदेश मंत्रालय में उपसचिव जगत मेहता इन सभी बैठकों में मौजूद थे. उपराष्ट्रपति ने अपने अंदाज में बात कही. राधाकृष्णन ने पूछा कि चालीस करोड़ भारतीयों की दोस्ती की तुलना में कुछ हजार वर्गमील के इलाके की क्या अहमियत है? इस पर मार्शल चेनयि ने पलटवार किया, “60 करोड़ चीनियों की दोस्ती की तुलना में कुछ सौ मील इलाके की क्या अहमियत है?”
चाउ-देसाई की मुलाकात एकदम नाकाम रही. शुरू से ही असहमति झलकने लगी थी. चाउ एन लाइ ने कहा कि सीमा की समस्या इतिहास की विरासत है जिसे हल कर लिया जाएगा. देसाई नहीं माने. इस विवाद के लिए इतिहास को दोषी नहीं ठहराया जा सकता. सारी गड़बड़ी पिछले तीन-साल में शुरू हुई है. उन्होंने यह बात दबंग अंदाज में कही. चाउ ने जोर देकर कहा कि चीन ने मैकमोहन रेखा या 1913-14 के शिमला समझौते को नहीं माना है. देसाई ने जब कहा कि कालिंगपोंग में चीनी जासूस भरे पड़े हैं तो चाउ का चेहरा लाल हो गया.
अभी मामला और बिगडऩे वाला था. गुस्साए चाउ ने देसाई से कहा, “आप बहुत कह चुके हैं.” मोरारजी ने तुरंत जवाब दिया, “आप बहुत से ज्यादा कह चुके हैं.” मैं हैरान था कि नेहरू ने देसाई जैसे लोगों को चाउ एन लाइ से क्यों भिड़ाया. बेशक उनकी अपनी मजबूरियां थीं. पंत और मोरारजी, दोनों कांग्रेस में कट्टर दक्षिणपंथी थे. कार में चाउ एन लाइ ने मुझसे कहा, “ये मंत्री मुझे भाषण क्यों दे रहे हैं? मैं आपके प्रधानमंत्री से सीमा पर बात कर रहा हूं. यह तो शिष्टाचार मुलाकातें हैं.” नवंबर 1961 में नेहरू ने, ‘फॉरवर्ड पॉलिसी’ अपनाने का फैसला किया. बाद में यह स्पष्ट हो गया कि यह ऐतिहासिक फैसला नतीजों पर गौर किए बिना लिया गया था.
नेहरू को खुफिया ब्यूरो के निदेशक बी.एन. मलिक ने समझ दिया था कि चीन पलटवार नहीं करेगा. उन्होंने माइ इयर्स विद नेहरू किताब लिखी जो पढऩे लायक नहीं थी. उसमें पांच पन्ने चीनी आक्रमण के बारे में थे. वे आइपीएस अफसर थे, जिन्हें नेहरू ने जासूस बना दिया.
ब्रिटेन की एमआइ6 से उनके करीबी रिश्ते थे और लंदन के उनके कुछ दौरों की खबर नेहरू को भी नहीं थी. चीन के बारे में प्रधानमंत्री के करीबी सलाहकारों में वी.के. कृष्णा मेनन, के.एम. पण्णिकर और उपराष्ट्रपति राधाकृष्णन शामिल थे. सेना की तरफ से बेलगाम जनरल बी.एम. कौल थे. नेहरू को पता ही नहीं था कि चीनी क्या करने वाले थे. हमारा खुफिया तंत्र बेकार था और कृष्णा मेनन की बदौलत सैनिक तैयारी एकदम लचर थी.
सितंबर 1962 कें अंतिम दिनों में नेहरू राष्ट्र मंडल शिखर सम्मेलन के लिए लंदन गए. अक्तूबर के मध्य में सीलोन जाते समय मद्रास में रुके. सीमा पर चीनी घुसपैठ के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि मैंने सेना को चीनियों को वापस धकेलने का आदेश दिया है. कृष्णा मेनन न्यूयॉर्क में थे. उनका पक्का मानना था कि चीन नहीं, पाकिस्तान दुश्मन है. युद्ध भड़कने पर नेहरू के सामने जीवन में पहली बार ऐसी स्थिति पैदा हुई जिसे वे संभाल नहीं सकते थे.
नेहरू महान और भले इनसान थे. स्वाधीनता संग्राम के नायक थे, पर विदेश मंत्री के रूप में उतने योग्य नहीं थे. अगर उन्होंने 7-11-1950 के पत्र में मिली सरदार पटेल की सलाह मानी होती तो भारत का इतिहास कुछ अलग होता.
अंत में, सरकार हेंडरसन ब्रुक्स की रिपोर्ट पर बैठी क्यों है? पचास साल बीत चुके हैं. हम भी 25 से 30 साल बाद अमेरिका, ब्रिटेन और चीन की तरह गोपनीय फाइलें खोल दें. उस रिपोर्ट पर से गोपनीयता का पर्दा क्यों न हटा दें जो छलनी की तरह टपक रही है?
लेखक नटवर सिंह भारत के पूर्व विदेश मंत्री हैं
जरूरत यह पता लगाने की थी कि अति गोपनीय दस्तावेज लेखक के हाथ कैसे लगे. साफ तौर पर कानून का उल्लंघन हुआ था. इसके लिए कोई पकड़ में नहीं आया. नाम गुप्त नहीं थे. जहां तक मुझे याद है किताब पर रोक नहीं लगी थी. मैं गलत भी हो सकता हूं.
जवाहरलाल नेहरू की चीन नीति में खामियां थीं. तत्कालीन प्रधानमंत्री ने माओ त्से तुंग और उनके चालाक तथा चतुर दूत चाऊ एन लाइ पर कुछ ज्यादा ही भरोसा कर लिया था. एस. गोपाल ने भी नेहरू की प्रशंसात्मक जीवनी के तीसरे खंड में लिखा है, “1954 की तरह एक बार फिर चाउ एन लाइ से संयुक्त विज्ञप्ति में लिखवा लेना ज्यादा समझदारी होती. लेकिन नेहरू ने चाउ के शब्दों में आस्था और उसकी दोस्ती में विश्वास रखा. वे अभी तक यह नहीं समझ पाए थे कि ये विश्वास और आस्था बहुत हद तक एकतरफा थे. नेहरू बड़े पैमाने पर चीन के कब्जे की आशंका के प्रति पूरी तरह सतर्क नहीं थे.”
19 अप्रैल, 1960 को चीन के प्रधान मंत्री चाउ एन लाइ और विदेश मंत्री मार्शल चेन यि प्रधानमंत्री नेहरू से बात करने के लिए दिल्ली पहुंचे. मुझे चीन के प्रधानमंत्री का शिष्टाचार अधिकारी नियुक्त किया गया. हवाईअड्डे पर चाउ एन लाइ का स्वागत ठीक रहा. दोनों प्रधानमंत्रियों ने संक्षिप्त भाषण दिए. नेहरू ने कहा कि दोनों देशों के बीच रिश्तों को ठेस पहुंची है, विश्वास हिला है. चाउ एन लाइ ने अपने भाषण की शुरुआत इस तरह की, “महामहिम, माननीय और प्रिय प्रधानमंत्री नेहरू.” उन्होंने पंचशील का जिक्र किया. वे सारी समस्याएं सुलझाने की ईमानदार इच्छा लेकर आए थे. शाम को राष्ट्रपति भवन में नेहरू के रात्रि भोज में हताशा साफ झलक रही थी. अगले दिन दोनों प्रधानमंत्री बात करने बैठे. मुलाकात तीन मूर्ति भवन में हुई. कोई सहायक मौजूद नहीं था. सिर्फ दुभाषिए थे.
जवाहरलाल नेहरू ने चाउ एन लाइ से कहा कि उनके मंत्रिमंडल के कुछ साथी मिलने आएंगे. चाउ एन लाइ की जिद थी कि वे खुद मिलने जाएंगे. शिष्टाचार को ताक पर रखा गया. मैं चाउ एन लाइ के साथ उप-राष्ट्रपति एस. राधाकृष्णन, पंडित गोविंद बल्लभ पंत और वित्त मंत्री मोरारजी देसाई से मिलने गया.
चीन में हमारे राजदूत जी. पार्थसारथी और विदेश मंत्रालय में उपसचिव जगत मेहता इन सभी बैठकों में मौजूद थे. उपराष्ट्रपति ने अपने अंदाज में बात कही. राधाकृष्णन ने पूछा कि चालीस करोड़ भारतीयों की दोस्ती की तुलना में कुछ हजार वर्गमील के इलाके की क्या अहमियत है? इस पर मार्शल चेनयि ने पलटवार किया, “60 करोड़ चीनियों की दोस्ती की तुलना में कुछ सौ मील इलाके की क्या अहमियत है?”
चाउ-देसाई की मुलाकात एकदम नाकाम रही. शुरू से ही असहमति झलकने लगी थी. चाउ एन लाइ ने कहा कि सीमा की समस्या इतिहास की विरासत है जिसे हल कर लिया जाएगा. देसाई नहीं माने. इस विवाद के लिए इतिहास को दोषी नहीं ठहराया जा सकता. सारी गड़बड़ी पिछले तीन-साल में शुरू हुई है. उन्होंने यह बात दबंग अंदाज में कही. चाउ ने जोर देकर कहा कि चीन ने मैकमोहन रेखा या 1913-14 के शिमला समझौते को नहीं माना है. देसाई ने जब कहा कि कालिंगपोंग में चीनी जासूस भरे पड़े हैं तो चाउ का चेहरा लाल हो गया.
अभी मामला और बिगडऩे वाला था. गुस्साए चाउ ने देसाई से कहा, “आप बहुत कह चुके हैं.” मोरारजी ने तुरंत जवाब दिया, “आप बहुत से ज्यादा कह चुके हैं.” मैं हैरान था कि नेहरू ने देसाई जैसे लोगों को चाउ एन लाइ से क्यों भिड़ाया. बेशक उनकी अपनी मजबूरियां थीं. पंत और मोरारजी, दोनों कांग्रेस में कट्टर दक्षिणपंथी थे. कार में चाउ एन लाइ ने मुझसे कहा, “ये मंत्री मुझे भाषण क्यों दे रहे हैं? मैं आपके प्रधानमंत्री से सीमा पर बात कर रहा हूं. यह तो शिष्टाचार मुलाकातें हैं.” नवंबर 1961 में नेहरू ने, ‘फॉरवर्ड पॉलिसी’ अपनाने का फैसला किया. बाद में यह स्पष्ट हो गया कि यह ऐतिहासिक फैसला नतीजों पर गौर किए बिना लिया गया था.
नेहरू को खुफिया ब्यूरो के निदेशक बी.एन. मलिक ने समझ दिया था कि चीन पलटवार नहीं करेगा. उन्होंने माइ इयर्स विद नेहरू किताब लिखी जो पढऩे लायक नहीं थी. उसमें पांच पन्ने चीनी आक्रमण के बारे में थे. वे आइपीएस अफसर थे, जिन्हें नेहरू ने जासूस बना दिया.
ब्रिटेन की एमआइ6 से उनके करीबी रिश्ते थे और लंदन के उनके कुछ दौरों की खबर नेहरू को भी नहीं थी. चीन के बारे में प्रधानमंत्री के करीबी सलाहकारों में वी.के. कृष्णा मेनन, के.एम. पण्णिकर और उपराष्ट्रपति राधाकृष्णन शामिल थे. सेना की तरफ से बेलगाम जनरल बी.एम. कौल थे. नेहरू को पता ही नहीं था कि चीनी क्या करने वाले थे. हमारा खुफिया तंत्र बेकार था और कृष्णा मेनन की बदौलत सैनिक तैयारी एकदम लचर थी.
सितंबर 1962 कें अंतिम दिनों में नेहरू राष्ट्र मंडल शिखर सम्मेलन के लिए लंदन गए. अक्तूबर के मध्य में सीलोन जाते समय मद्रास में रुके. सीमा पर चीनी घुसपैठ के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि मैंने सेना को चीनियों को वापस धकेलने का आदेश दिया है. कृष्णा मेनन न्यूयॉर्क में थे. उनका पक्का मानना था कि चीन नहीं, पाकिस्तान दुश्मन है. युद्ध भड़कने पर नेहरू के सामने जीवन में पहली बार ऐसी स्थिति पैदा हुई जिसे वे संभाल नहीं सकते थे.
नेहरू महान और भले इनसान थे. स्वाधीनता संग्राम के नायक थे, पर विदेश मंत्री के रूप में उतने योग्य नहीं थे. अगर उन्होंने 7-11-1950 के पत्र में मिली सरदार पटेल की सलाह मानी होती तो भारत का इतिहास कुछ अलग होता.
अंत में, सरकार हेंडरसन ब्रुक्स की रिपोर्ट पर बैठी क्यों है? पचास साल बीत चुके हैं. हम भी 25 से 30 साल बाद अमेरिका, ब्रिटेन और चीन की तरह गोपनीय फाइलें खोल दें. उस रिपोर्ट पर से गोपनीयता का पर्दा क्यों न हटा दें जो छलनी की तरह टपक रही है?
लेखक नटवर सिंह भारत के पूर्व विदेश मंत्री हैं