लगातार मुखर होती जा रही भारतीय राजनीति में रमन सिंह वह पारंपरिक चेहरा है जो आज भी सियासत में सौम्य मुस्कान की अहमियत समझ्ता है. उन्होंने कांटे के चुनाव में छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में तब जीत हासिल की जब विपक्षी कांग्रेस एक नक्सली हमले में अपने दिग्गज नेताओं के खोने के बाद सहानुभूति की लहर पाने की उम्मीद लगाए बैठी थी.
आयुर्वेद चिकित्सक रमन सिंह आयुर्वेदिक पद्धति के मुताबिक बीमारी का समूल नाश करने में यकीन रखते हैं, तभी तो चुनाव में उतरने से पहले पार्टी के 13 सिटिंग विधायकों का टिकट काटने में उन्हें जरा भी हिचक नहीं हुई. इसके अलावा अपने खिलाफ आने वाले किसी भी मुद्दे को अपने मैनेजरों को माध्यम से वे ऐसे निबटवा देते हैं जैसे वे मुद्दे कभी रहे ही न हों. झीरम घाटी हमले में सरकार की चूक को कबूल कर उन्होंने नई तरह की राजनैतिक रणनीति को जन्म दिया, जिससे अमूमन नेता परहेज करते हैं. कोयला घोटाले के दौर में वे ऐसे नेता हैं, जो कोयले का विशाल भंडार रखने वाले राज्य के मुखिया होने के बावजूद इस कालिख से पूरी तरह दूर बने हुए हैं.
इस मकबूलियत की एक वजह यह भी है कि वे जब पहली बार छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बने तो यह देश के सबसे पिछड़े राज्यों में शुमार था. ऐसे में उन्होंने जो भी विकास कार्य किया, वह जनता को साफ-साफ दिखाई देने लगा. दो रु. किलो चावल की उनकी योजना उनकी जीत का बड़ा कारण मानी जाती है और इसके लिए वे 'चाउरवाले बाबा’ भी कहलाते हैं. मध्य प्रदेश से अलग होने के बाद से छत्तीसगढ़ के पास सरप्लस बिजली हो गई, ऐसे में 24 घंटे बिजली की उपलब्धता इस आदिवासी राज्य को वह मौका उपलब्ध करा देती है, जिससे दिल्ली जैसे शहरों को भी रश्क हो.

अपनी इसी बुलंदी के दम पर विधानसभा चुनाव का पूरा प्रचार उन्होंने खुद के आस-पास ही केंद्रित रखा. रायपुर शहर में तब लगे चुनावी होर्डिंग में उनकी ही तस्वीर होती थी.
रमन सिंह इस मामले में अपने चुनिंदा अफसरों पर भरोसा करते हैं. प्रमुख सचिव अमन सिंह को इस मामले में उनका सबसे बड़ा रणनीतिकार माना जाता है. ऐसे कुछ अफसरों को छोड़ दें तो यह बताना मुश्किल हो जाएगा कि बीजेपी में दूसरा कौन-सा नेता उनका बहुत करीबी है. लेकिन इन दूरियों के बाद भी वे पार्टी के नेतृत्व के कितने करीब हैं, इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि मोदी और शिवराज के बाद वे पार्टी में तीसरा भरोसेमंद नाम बन गए हैं.
आयुर्वेद चिकित्सक रमन सिंह आयुर्वेदिक पद्धति के मुताबिक बीमारी का समूल नाश करने में यकीन रखते हैं, तभी तो चुनाव में उतरने से पहले पार्टी के 13 सिटिंग विधायकों का टिकट काटने में उन्हें जरा भी हिचक नहीं हुई. इसके अलावा अपने खिलाफ आने वाले किसी भी मुद्दे को अपने मैनेजरों को माध्यम से वे ऐसे निबटवा देते हैं जैसे वे मुद्दे कभी रहे ही न हों. झीरम घाटी हमले में सरकार की चूक को कबूल कर उन्होंने नई तरह की राजनैतिक रणनीति को जन्म दिया, जिससे अमूमन नेता परहेज करते हैं. कोयला घोटाले के दौर में वे ऐसे नेता हैं, जो कोयले का विशाल भंडार रखने वाले राज्य के मुखिया होने के बावजूद इस कालिख से पूरी तरह दूर बने हुए हैं.
इस मकबूलियत की एक वजह यह भी है कि वे जब पहली बार छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बने तो यह देश के सबसे पिछड़े राज्यों में शुमार था. ऐसे में उन्होंने जो भी विकास कार्य किया, वह जनता को साफ-साफ दिखाई देने लगा. दो रु. किलो चावल की उनकी योजना उनकी जीत का बड़ा कारण मानी जाती है और इसके लिए वे 'चाउरवाले बाबा’ भी कहलाते हैं. मध्य प्रदेश से अलग होने के बाद से छत्तीसगढ़ के पास सरप्लस बिजली हो गई, ऐसे में 24 घंटे बिजली की उपलब्धता इस आदिवासी राज्य को वह मौका उपलब्ध करा देती है, जिससे दिल्ली जैसे शहरों को भी रश्क हो.

अपनी इसी बुलंदी के दम पर विधानसभा चुनाव का पूरा प्रचार उन्होंने खुद के आस-पास ही केंद्रित रखा. रायपुर शहर में तब लगे चुनावी होर्डिंग में उनकी ही तस्वीर होती थी.
रमन सिंह इस मामले में अपने चुनिंदा अफसरों पर भरोसा करते हैं. प्रमुख सचिव अमन सिंह को इस मामले में उनका सबसे बड़ा रणनीतिकार माना जाता है. ऐसे कुछ अफसरों को छोड़ दें तो यह बताना मुश्किल हो जाएगा कि बीजेपी में दूसरा कौन-सा नेता उनका बहुत करीबी है. लेकिन इन दूरियों के बाद भी वे पार्टी के नेतृत्व के कितने करीब हैं, इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि मोदी और शिवराज के बाद वे पार्टी में तीसरा भरोसेमंद नाम बन गए हैं.