बनारस शहर की मेरी यादें मेरे दादाजी पंडित बाबूलाल त्रिपाठी से जुड़ी हुई हैं. वे एक पंडित और गणित के शिक्षक थे. एशिया के सबसे पुराने और सबसे बड़े आवासीय विश्वविद्यालयों में से एक काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में गणित और भौतिक विज्ञान पढ़ाते थे वे.
दादाजी वैसे थे अत्यंत साधारण परिवार से. विश्वविद्यालय के संस्थापक पंडित मदन मोहन मालवीय ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और उसे निखारा. बाद में वे बीएचयू में एक विभाग के अध्यक्ष बने.
हमारे परिवार में पढऩे-लिखने की जो ललक पैदा हुई, वह दरअसल उन्हीं से विरासत में मिली थी. वाराणसी या बनारस, जो भी कहिए, यह शहर भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में ज्ञान की एक प्रमुख पीठ रहा है. हजारों वर्षों से यह आध्यात्मिकता, ज्ञान, चिकित्सा और भारत की वैदिक पहचान का केंद्र रहा है.
अनेक प्रख्यात कवि, लेखक, विचारक और कलाकार यहीं पैदा हुए. इसी से लगे सारनाथ में भगवान बुद्ध ने पहली बार उपदेश दिए थे. भारत के धार्मिक इतिहास में इस शहर का बड़ा योगदान रहा है. आदि शंकराचार्य ने यहीं पर भगवान शिव की पूजा को फिर से स्थापित किया.
कबीर और रविदास सरीखे भक्ति आंदोलन के कई संत यहीं जन्में. सिख धर्म के जन्म के पीछे शिवरात्रि के मौके पर गुरु नानक देव के इस शहर के प्रवास का अहम योगदान रहा था. मुगल बादशाह अकबर के संरक्षण में यहां वास्तुशिल्प का भी खूब विकास हुआ. 1896 में प्रसिद्ध लेखक मार्क ट्वैन ने भारत की यात्रा करते हुए लिखा थाः ‘‘बनारस इतिहास से भी है, परंपरा से भी पुराना है.’’
इस शहर की विरासत आज भी जीवंत है. मैं किसी भी मौसम में जब बनारस आता हूं तो देखता हूं कि बड़ी संख्या में लोग यहां चले आ रहे हैं. दशाश्वमेध घाट पर संध्या के समय होने वाली अग्नि पूजा, गंगा जी का जल, सूर्योदय के समय नौका विहार, प्राचीन घाटों के ऊंचे तट, मंदिरों की भरमार, शहर की तंग गलियां, गंगा किनारे खड़े महल, आश्रम, तटों पर बनी ऊंची-ऊंची सीढिय़ां, मंत्रों का उच्चार, भजनों का संगीत, ये सब मिलकर भगवान शिव के इस शहर को दिव्य बना देते हैं.
अपने ऐतिहासिक, धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व की वजह से यह शहर अनोखा है. बनारस और गंगा जी के बीच एक विशेष नाता है. किसी और शहर में यह नहीं दिखाई देता. सुबह से लेकर रात तक गंगाजी इस पवित्र शहर की जीवन रेखा बनी रहती हैं. गंगाजी के घाटों पर हमेशा असंख्य लोगों की भीड़ जुटी रहती है. यहीं पर मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाट भी हैं, जहां ‘‘श्मशान की आग कभी भी मंद नहीं पडऩे पाती.
ऐसे शहर में इसी महीने बनारस उत्सव का आयोजन किया जा रहा है, जिसमें कई सांस्कृतिक कार्यक्रम होंगे. इस उत्सव में महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के प्रांगण में कला, शिल्प, साहित्य, संगीत, रंगमंच और मीडिया का अनोखा जमघट देखने को मिलेगा. सौभाग्य है कि मैं भी इस सांस्कृतिक उत्सव का हिस्सा बनूंगा.
अंत में मैं यही कहूंगा कि बनारस किसी भी वजह से आना हो, मुझे दिल से खुशी महसूस होती है. यह मेरे आराध्य भगवान शिव की नगरी है. मुझे पता चला कि महादेव शब्द अपने आप में एक द्वैत का बड़ा रूपक है. यह शहर अगर संस्कृति का केंद्र है तो दूसरी तरफ मृत्यु की आकांक्षा का शहर भी.
मैंने यहां चिता की अग्नि को अनवरत जलते देखा है. विश्वनाथ मंदिर के प्रति लोगों की गहरी आस्था को, यहां होने वाले धार्मिक अनुष्ठानों को देखा है. दादाजी ने बताया था कि बनारस की स्थापना अर्धनारीश्वर भगवान शिव ने की थी, जिनमें नर और नारी का अनुपम संतुलन माना जाता है.
अमीष त्रिपाठी शिव ट्रिलॉजी के प्रसिद्ध लेखक हैं
दादाजी वैसे थे अत्यंत साधारण परिवार से. विश्वविद्यालय के संस्थापक पंडित मदन मोहन मालवीय ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और उसे निखारा. बाद में वे बीएचयू में एक विभाग के अध्यक्ष बने.
हमारे परिवार में पढऩे-लिखने की जो ललक पैदा हुई, वह दरअसल उन्हीं से विरासत में मिली थी. वाराणसी या बनारस, जो भी कहिए, यह शहर भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में ज्ञान की एक प्रमुख पीठ रहा है. हजारों वर्षों से यह आध्यात्मिकता, ज्ञान, चिकित्सा और भारत की वैदिक पहचान का केंद्र रहा है.
अनेक प्रख्यात कवि, लेखक, विचारक और कलाकार यहीं पैदा हुए. इसी से लगे सारनाथ में भगवान बुद्ध ने पहली बार उपदेश दिए थे. भारत के धार्मिक इतिहास में इस शहर का बड़ा योगदान रहा है. आदि शंकराचार्य ने यहीं पर भगवान शिव की पूजा को फिर से स्थापित किया.
कबीर और रविदास सरीखे भक्ति आंदोलन के कई संत यहीं जन्में. सिख धर्म के जन्म के पीछे शिवरात्रि के मौके पर गुरु नानक देव के इस शहर के प्रवास का अहम योगदान रहा था. मुगल बादशाह अकबर के संरक्षण में यहां वास्तुशिल्प का भी खूब विकास हुआ. 1896 में प्रसिद्ध लेखक मार्क ट्वैन ने भारत की यात्रा करते हुए लिखा थाः ‘‘बनारस इतिहास से भी है, परंपरा से भी पुराना है.’’
इस शहर की विरासत आज भी जीवंत है. मैं किसी भी मौसम में जब बनारस आता हूं तो देखता हूं कि बड़ी संख्या में लोग यहां चले आ रहे हैं. दशाश्वमेध घाट पर संध्या के समय होने वाली अग्नि पूजा, गंगा जी का जल, सूर्योदय के समय नौका विहार, प्राचीन घाटों के ऊंचे तट, मंदिरों की भरमार, शहर की तंग गलियां, गंगा किनारे खड़े महल, आश्रम, तटों पर बनी ऊंची-ऊंची सीढिय़ां, मंत्रों का उच्चार, भजनों का संगीत, ये सब मिलकर भगवान शिव के इस शहर को दिव्य बना देते हैं.
अपने ऐतिहासिक, धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व की वजह से यह शहर अनोखा है. बनारस और गंगा जी के बीच एक विशेष नाता है. किसी और शहर में यह नहीं दिखाई देता. सुबह से लेकर रात तक गंगाजी इस पवित्र शहर की जीवन रेखा बनी रहती हैं. गंगाजी के घाटों पर हमेशा असंख्य लोगों की भीड़ जुटी रहती है. यहीं पर मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाट भी हैं, जहां ‘‘श्मशान की आग कभी भी मंद नहीं पडऩे पाती.
ऐसे शहर में इसी महीने बनारस उत्सव का आयोजन किया जा रहा है, जिसमें कई सांस्कृतिक कार्यक्रम होंगे. इस उत्सव में महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के प्रांगण में कला, शिल्प, साहित्य, संगीत, रंगमंच और मीडिया का अनोखा जमघट देखने को मिलेगा. सौभाग्य है कि मैं भी इस सांस्कृतिक उत्सव का हिस्सा बनूंगा.
अंत में मैं यही कहूंगा कि बनारस किसी भी वजह से आना हो, मुझे दिल से खुशी महसूस होती है. यह मेरे आराध्य भगवान शिव की नगरी है. मुझे पता चला कि महादेव शब्द अपने आप में एक द्वैत का बड़ा रूपक है. यह शहर अगर संस्कृति का केंद्र है तो दूसरी तरफ मृत्यु की आकांक्षा का शहर भी.
मैंने यहां चिता की अग्नि को अनवरत जलते देखा है. विश्वनाथ मंदिर के प्रति लोगों की गहरी आस्था को, यहां होने वाले धार्मिक अनुष्ठानों को देखा है. दादाजी ने बताया था कि बनारस की स्थापना अर्धनारीश्वर भगवान शिव ने की थी, जिनमें नर और नारी का अनुपम संतुलन माना जाता है.
अमीष त्रिपाठी शिव ट्रिलॉजी के प्रसिद्ध लेखक हैं