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सेना को झगड़े में घसीटना दुखद

यह देखकर दुख होता है कि एक नाकारा सरकार और सियासती पैरोकार बन बैठे एक पूर्व जनरल के बीच लंबे चलते झगड़े में भारतीय सेना को कीचड़ में घसीटा जा रहा है.

अपडेटेड 7 अक्टूबर , 2013
हाल के कुछ दशकों में हमारे आसपास आदर्श के लगभग सारे प्रतिमान बिखर चुके हैं. न ईमानदार राजनेता रहे, न ही कर्मठ और निःस्वार्थ नौकरशाह. एक ही ऐसा संगठन है जो अब भी आदर्श की प्रतिमूर्ति बना हुआ है और वह है हमारी भारतीय सेना. चाहे इस साल अप्रैल में लद्दाख में चीन की कथित घुसपैठ का खतरा रहा हो या फिर छत्तीसगढ़ में माओवाद से उपजा अंदरूनी संकट, मुजफ्फरनगर का सांप्रदायिक दंगा या फिर जून में उत्तराखंड में उतरा कुदरत का कहर, हमेशा से हमारा भरोसा रहा है कि कुछ भी हो, सेना आगे आकर हमें उबार लेगी.

हाल के दिनों में सेना में कुछ घोटालों का मामला उछलने के बावजूद यही एकमात्र ऐसी संस्था है, जो गंदी सियासत से पूरी तरह अछूती रही है. इस महीने के शुरू में इंडिया टुडे ग्रुप-सीवोटर यूथ पोल में पहली बार मतदाता बने युवाओं ने सेना को सबसे भरोसेमंद संस्था माना है. उसे मीडिया से 20 फीसदी और संसद से 40 फीसदी ज्यादा वोट मिले हैं.

इसलिए यह देखकर दुख होता है कि एक नाकारा सरकार और सियासती पैरोकार बन बैठे एक पूर्व जनरल के बीच लंबे चलते झगड़े में भारतीय सेना को कीचड़ में घसीटा जा रहा है. इस लड़ाई में ऐसे आरोप लगाए जा रहे हैं जो देश की सुरक्षा के लिए खतरनाक हैं. यूपीए सरकार और पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वी.के. सिंह के बीच विवाद असल में सेना की एक संवेदनशील रिपोर्ट को लेकर है. इस रिपोर्ट में आरोप लगाया गया है कि एक गुप्तचर सेवा के पैसों का इस्तेमाल जम्मू-कश्मीर में उमर अब्दुल्ला सरकार को अस्थिर बनाने और गुप्त ऑपरेशनों की खातिर उपकरण खरीदने में किया गया. सरकार छह महीने तक रिपोर्ट दबाए बैठी रही.

जनरल की प्रतिक्रिया भी उतनी ही असंयमित है. उनका कहना है कि एक साजिश के तहत राजनेताओं, अधिकारियों और मीडिया की ओर से उन्हें व्यक्तिगत तौर पर निशाना बनाया जा रहा है, और जम्मू-कश्मीर में शांति बनाए रखने के लिए सेना राज्य के मंत्रियों को पैसा देती है. गुप्तचर सेवाएं संदिग्ध भले होती हों, लेकिन देश की सुरक्षा के लिए वे बहुत जरूरी हैं. ऐसे संवेदनशील मामलों को कभी भी सड़क पर नहीं उछाला जाना चाहिए, किसी सरकार या सेनाध्यक्ष की ओर से तो बिल्कुल भी नहीं.

अब सेना की गोपनीय बातों पर सार्वजनिक चर्चा हो रही है. डिप्टी एडिटर संदीप उन्नीथन ने इस बार की एक खास रपट में सेना के भीतर उपजी कुंठा का खुलासा किया है. इसमें बताया गया है कि जनरल सिंह ने क्यों टेक्निकल सपोर्ट डिवीजन का गठन किया. यह डिवीजन कैसे काम करता था और जनरल के रिटायर होने के तुरंत बाद इसे क्यों भंग कर दिया गया? उन्नीथन कहते हैं, ‘‘सेना फिर परेशान है कि उसे राजनीति में घसीटा जा रहा है, जिससे वह हमेशा दूर रही है.’’

जनरल सिंह पर आरोप लगने के समय में सियासी दुश्मनी की बू महसूस की जा रही है. 15 सितंबर को हरियाणा के रेवाड़ी में एक जनसभा में बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के साथ सिंह के मंच साझ करने के बाद ही उन पर ये आरोप लगाए गए. पर जनरल की प्रतिक्रिया भी उतनी ही गैर-जिम्मेदाराना रही. उन्होंने एक बेहद संवेदनशील मामले को आपसी लड़ाई का विषय बना दिया. इस संकीर्ण राजनीतिक हितों की लड़ाई से देश की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा और सेना के मनोबल पर निश्चित ही असर पड़ा है, जो बहुत दुख की बात है.
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