scorecardresearch

व्यक्तिगत आजादी को गले लगाएं, लेकिन सुरक्षा के मसले पर समझौता नहीं करें

मेरे जैसे राजनैतिक कार्यकर्ता आंतरिक सुरक्षा के नाम पर 1975-77 के दौरान जो कुछ हुआ, उसे नहीं भुला सकतेः पाखंड भरी इमर्जेंसी.

अपडेटेड 21 अगस्त , 2013
करीब 25 साल पहले की बात है कोलकाता के एक अखबार ने मेरा एक पन्ने का इंटरव्यू छापा था. मुझसे सवाल पूछा गया था, “मि. आडवाणी, आपकी कमजोरी क्या है?” मैंने तुरंत जवाब दिया, “किताबें” और फिर मैंने कहा, “खुलकर कहूं तो चॉकलेट.” तब से लेकर अब तक किसी खास मौके पर जो लोग मुझसे मिलने आते हैं उनमें से कई या तो किताबें भेंट करते हैं या फिर चॉकलेट.

हाल के दिनों में मुझे सबसे अच्छी किताब जो उपहार में मिली है वह है द न्यू डिजिटल ऐज. इसे गूगल के एग्जिक्यूटिव चेयरमैन एरिक श्मिट और गूगल आइडियाज के डायरेक्टर जारेड कोहेन ने लिखा है. इन लेखकों ने किताब की शुरुआत ऐसे की हैः “मनुष्यों ने जो चीजें बनाई हैं, उनमें इंटरनेट उन कुछ चीजों में से एक है जिसे वे पूरी तरह समझते नहीं हैं.”
भारत को आजाद हुए 60 साल से ज्यादा हो गए हैं. हम अब तक गरीबी या निरक्षरता और कई अन्य ढांचागत कमियों को दूर नहीं कर सके हैं. हम करोड़ों लोगों के स्वास्थ्य को लेकर भी कुछ ठोस नहीं कर सके हैं. इसके बावजूद एक स्वस्थ और सक्रिय लोकतंत्र के रूप में दुनिया हमारे देश का सम्मान करती है. हम ऐसा इसलिए कर सके क्योंकि हमने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हुए दमन के साथ समझौता नहीं किया है, सिवाय उनके जिन्हें ‘तार्किक’ कहा जा सकता है.

मेरे जैसे राजनैतिक कार्यकर्ता, आंतरिक सुरक्षा के नाम पर 1975-77 के दौरान जो कुछ हुआ, उसे नहीं भुला सकते. संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत देश में इमर्जेंसी लगा दी गई थी. मौलिक अधिकार स्थगित कर दिए गए थे और एक लाख से ज्यादा नेताओं-पत्रकारों को आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बताकर बिना सुनवाई के हिरासत में ले लिया गया. इसलिए जब मुझे बताया गया कि इस विशेष लेख का विषय हैः भारत में सोशल मीडिया को राजनैतिक नियंत्रण से आजादी की जरूरत क्यों है? तो मैं झट तैयार हो गया.

इमर्जेंसी के जो अनुभव थे, उनका सबक यही है कि इस सवाल का जवाब सकारात्मक हो. मैं बताना चाहूंगा कि इंटरनेट के आने से एकदम नए हालात बने हैं. जहां तक नागरिकों और देश की सुरक्षा का सवाल है, इससे नई चुनौती आतंकवाद की है. द न्यू डिजिटल ऐज में आतंकवाद पर एक पूरा अध्याय है. इसमें लिखा हैः “जैसा हम साफ कर चुके हैं कि टेक्नोलॉजी सबको बराबरी पर लाती है और लोगों के हाथों में ताकतवर औजार देती है कि वे अपने उद्देश्यों को पूरा कर सकें, जो कभी-कभार तो चमत्कारिक रूप से रचनात्मक होते हैं लेकिन कई बार कल्पना से परे जाकर विनाशकारी भी हो सकते हैं.”

यह किताब विशेष तौर पर 2008 में मुंबई में हुए हमले का हवाला देती हैः “टेक्नोलॉजी ने इस हमले को कहीं ज्यादा विनाशक बना दिया था, लेकिन जब आखिरी हमलावर पकड़ लिया गया (इकलौता जिंदा) तो उसके और उसके साथियों के छोड़े सामान से मिली सूचना के आधार पर पाकिस्तानी ठिकानों और लोगों तक इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों की मदद से पहुंचा जा सका, जो पहले शायद संभव नहीं हो पाता.”

भारत को जीवंत लोकतंत्र बनाए रखने के लिए जरूरी है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति हमारा रवैया हमेशा अडिग रहे, लेकिन देश और नागरिकों की सुरक्षा के लिहाज से इसमें एक शर्त जोडऩी होगी. आधुनिक संचार उपकरणों पर पर्याप्त निगरानी रखी जानी होगी, खासकर उन पर जिनका धमाकों में इस्तेमाल किया जा सकता है.

बीजेपी के वरिष्ठ नेता एल.के. आडवाणी का LKadvani.in नाम से ब्लॉग है
Advertisement
Advertisement