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दुर्गा पर राजनीति: नासमझी-नातजुर्बेकारी

उर्दू अखबारों में दुर्गा नासमझ और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव बने मुसलमानों के हीरो. उर्दू मीडिया ने इस मामले को भ्रष्टाचार से जोड़कर देखने से परहेज किया है. उसका फोकस मस्जिद की दीवार गिराए जाने पर है.

अपडेटेड 21 अगस्त , 2013
अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों से जुड़े मामलों में कथित मुख्यधारा के मीडिया और उर्दू तथा समुदाय के अखबारों, पत्रिकाओं की रिपोर्टिंग में साफ अंतर दिखता है. दुर्गा शक्ति नागपाल के एसडीएम पद से निलंबन का मामला अलग नहीं है. रोजनामा  इंकलाब  ने उस रोज की घटना के बारे में तफसील से लिखा हैः ‘‘तकरीबन 5,000 आबादी वाले कादलपुर गांव में, जहां 80 फीसदी मुसलमान हैं, सिर्फ एक ही मस्जिद थी जो गांव के किनारे पर थी. दूसरे किनारे पर आबाद मुसलमानों को दो किलोमीटर पैदल चलकर नमाज अदा करनी पड़ती थी. गांव के लोगों ने बढ़ती आबादी के मद्देनजर डेढ़ साल पहले ग्राम सभा की खाली जमीन पर मस्जिद तामीर करने के 1982 के फैसले पर अमल शुरू कर दिया...बहुत मेहनत से एक-एक पैसा जोड़कर मस्जिद बनाने वाले इन सीधे-सादे देहातियों को क्या पता था कि इस मस्जिद पर ऐसे लोगों की नजर है जो कागज और कानून का बहाना बनाकर एक खास तबके को निशाना बनाने को सरमाया इफ्तिखार (सम्मान) समझ्ते हैं...जैसे ही मस्जिद कादलपुर की पूर्वी दीवार की तामीर मुकम्मल हुई, वैसे ही दुर्गा ने अपने लाव लश्कर के साथ गांव पहुंचकर दीवार गिरा दी.’’

रोजनामा सहाफत  ने लिखा है, ‘‘दीवार गिराने के बाद लोग किसी भी हद तक जाने को तैयार थे, लेकिन समझदार लोगों ने उन्हें समझा-बुझा दिया.’’ एक और उर्दू अखबार कौमी सलामती ने पड़ोसी गांव अनवारगढ़ के प्रमुख जाकिर हुसैन के हवाले से लिखा हैः ‘‘एसडीएम को क्लीन चिट दे दी गई. लेकिन डीएम ने उस जगह जाने की जहमत नहीं की, न उन्होंने उन्होंने पंचायत के किसी मेंबर से बात की. उन्होंने गलत रिपोर्ट भेजी है. आखिर गांववाले अपनी ही मस्जिद क्यों गिरा देंगे?’’ रोजनामा सियासत ने अपने संपादकीय में लिखा हैः ‘‘सारे यूपी में एक ओहदेदार की नादानी से फिरकावाराना कशीदगी पैदा हो जाती... हालात की अबतरी (बेहतरी) की जिम्मेदारी दुर्गाशक्ति की नहीं होती बल्कि फिरकापरस्ती के इल्जामात आयद कर मुसलमान ही निशाना बनाए जाते.’’

उर्दू अखबारों ने इस मामले में केंद्र की दखलंदाजी पर भी लिखा. इंकलाब ने अपने संपादकीय ‘‘नागपाल और अखिलेश हुकूमत’’ में लिखा हैः ‘‘सितम जरीफी (इंतहा) यह है कि रॉबर्ट वाड्रा के लैंड स्कैंडल का रहस्योद्घाटन करने वाले आइएएस अफसर अशोक खेमका, गुजरात फसादात के मामले में हक़ गोई और बेबाकी की शानदार मिसाल कायम करने वाले संजीव भट्ट और आर.बी. श्रीकुमार के मामलात में खामोश रहने वाली कांग्रेस नागपाल के मामले में उसूलपसंदी का सबूत दे रही है.’’ सियासत ने अपने संपादकीय में राज्य के मामले में केंद्र के दखल पर हैरत जताते हुए इस मामले को ‘‘फिरकावाराना रंग देने की कोशिश को नाकाम बनाने’’ की अपील की है.

उर्दू अखबारों के साथ ही अंग्रेजी साप्ताहिक मिल्ली गजट ने व्यापक रिपोर्ट पेश की है. मिल्ली गजट साप्ताहिक लिखता हैः ‘’24.7 मीडिया ने एक नौकरशाह के स्पष्ट रूप से दंभी व्यवहार को आला दर्जे की राष्ट्रीय सेवा में तब्दील कर दिया है...ब्लैकमेलर-पेड-न्यूज-मीडिया ने देशभक्ति का जामा पहनकर फौरन इसे (नागपाल के निलंबन को) रेत माफिया का बदला करार दे दिया...यह बार-बार कहा जा रहा है कि मस्जिद बिना इजाजत बनाई जा रही थी लेकिन यह स्पष्ट नहीं किया जा रहा है कि गांव में किसी चीज के निर्माण के लिए आखिर कब से इजाजत की जरूरत पडऩे लगी? उत्तर प्रदेश में बीजेपी हुकूमत ने 2000 में पूजा स्थल के निर्माण के लिए स्थानीय प्रशासन से पूर्व मंजूरी जरूरी के लिए कानून (जिस पर सिर्फ मस्जिद के मामले में ही अमल होना तय था) बनाने का प्रयास किया था, जो पारित नहीं हो सका.’’

जदीद मर्कज़ ने पीडब्ल्यूडी मंत्री शिवपाल सिंह के हवाले से लिखा हैः ‘‘जिस जमीन पर मस्जिद तामीर हो रही है, वह पंचायत की नहीं है, मुसलमानों की है.’’ अखबार लिखता है, ‘‘बीजेपी इस तरह से दखल दे रही है जैसे वे सरकारी मुलाजिम न होकर पार्टी की कोई बड़ी लीडर हों. एक ही दुहाई दी जा रही है कि वे बहुत ईमानदार हैं. सवाल यह है कि ढाई-तीन साल की नौकरी में कौन सा अफसर होगा जो शुरू से ही बेईमान हो जाएगा?  हकीकत यह है कि उनका (नागपाल का) यह कदम नातजुर्बेकारी और नासमझी है.’’

उर्दू मीडिया ने इस मामले को भ्रष्टाचार से जोड़कर देखने से परहेज किया है और उसका फोकस मस्जिद की दीवार गिराए जाने पर है.
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