आठ मई को कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद बंगलुरू में एक स्थानीय दुकानदार का कहना था, ‘‘इससे तो बीजेपी को पिछले महीने यहां फटे बम से भी ज्यादा तगड़ा झटका लग सकता है.’’ बीजेपी ने अपनी जीती 40 सीटों से ज्यादा की उम्मीद लगा रखी थी. तीन ओर बंटी हुई, भ्रष्टाचार और अनैतिकता के आरोपों से घिरी बीजेपी ने प्रदेश की सत्ता एक थाली में सजाकर कांग्रेस को सौंप दी. मगर नतीजों में कांग्रेस की लहर जैसा कुछ भी नहीं.
विधानसभा में पार्टी का नेतृत्व कर चुके एक प्रमुख कांग्रेसी नेता की यथार्थवादी समीक्षा कुछ इस प्रकार थी, ‘‘मुझे खुशी है कि तमाम कोशिशों के बावजूद हम खुद को हरा नहीं पाए. हमने इतनी गड़बडिय़ां न की होतीं तो बड़ी आसानी से हम 15 से 20 फीसदी तक और सीटें जीत सकते थे.’’ उनके मुताबिक, कई सीटों पर श्खराब्य प्रत्याशियों का चयन अपेक्षानुरूप नतीजे न आने की एक वजह भर है. वे बताते हैं, ‘‘ऐसी कोई कारगर प्रचार योजना ही न थी जो रसूख वाले स्थानीय नेताओं का इस्तेमाल कर पाती. कांग्रेस के चुनाव अभियान का नेतृत्व करने वाले कर्नाटक प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जी. परमेश्वर तक चुनाव हार गए.’’
प्रदेश में पिछले पांच साल से कांग्रेस निष्क्रिय ही पड़ी थी और उसके स्थानीय नेताओं ने अलग-अलग खींचतान मचा रखी थी. मुख्यमंत्री पद की दौड़ में 2006 में जेडी (एस) से दलबदल कर आने वाले एस. सिद्धरामैया सबसे तगड़े दावेदार माने जा रहे थे और अंतत: बाजी उन्हीं के हाथ लगी. हालांकि उन्होंने विधायक दल का नेता तय करने का जिम्मा पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के ऊपर डालने का प्रस्ताव कर अलग तरह का दांव खेला था. लेकिन केंद्रीय नेतृत्व ने तुरंत गुप्त मतदान से चुनाव करवाया और उसमें भी केंद्रीय मंत्री मल्लिकार्जुन खडग़े वगैरह को पछाड़कर सिद्धरामैया आगे निकल गए.
वैसे पूर्व केंद्रीय मंत्री सी.एम. इब्राहिम समेत उनके कई चुनिंदा वफादार चुनाव में लुढ़क गए थे. एक कांग्रेसी नेता ने अंदेशा जताया था कि कर्नाटक के चुनावों में हमेशा से जातिवाद का बोलबाला रहा है. सिद्धरामैया ओबीसी तबके के हैं. उनकी ओबीसी जाति कुरुबा की कर्नाटक में खासी तादाद है. ऐसा माना जा रहा है कर्नाटक में इस बार कांग्रेस की जीत के पीछे ओबीसी वोट का एकमुश्त मिला समर्थन महत्वपूर्ण रहा. सिद्धरामैया के राष्ट्रीय नेतृत्व से अच्छे संबंध भी हैं. पर पार्टी में उनकी जड़ें नहीं हैं. अब से कुछ ही महीने बाद लोकसभा चुनाव में उनकी नेतृत्व क्षमता की पहली परीक्षा होगी.
इस चुनाव में कांग्रेस के प्रदर्शन का राहुल गांधी के प्रचार से खास लेना-देना नहीं था. उत्तरी कर्नाटक में कांग्रेस के प्रभारी और 12 दिनों में 5,000 किमी से ज्यादा की भाग-दौड़ करने वाले संजय निरुपम का कहना है कि ‘‘उनका काम कार्यकर्ताओं को एकजुट और उत्साहित करना था, जो उन्होंने किया.’’
प्रदेश बीजेपी नेतृत्व इसी पर यकीन करना चाहता है कि तितरफा विभाजन के चलते पार्टी पंगु हो गई. बी.एस. येद्दियुरप्पा का कर्नाटक जनता पक्ष (केजेपी) और बी. श्रीरामुलु की बीएसआर कांग्रेस (बीएसआरसी) उसी से टूटकर बनीं. कर्नाटक की 28 लोकसभा सीटों में से 19 पर बीजेपी का कब्जा है. पर यह उपलब्धि उन जातिवादी पैंतरों के चलते मिली थी, जिनके सूत्रधार तत्कालीन मुख्यमंत्री येद्दियुरप्पा थे. बाद में 25,000 करोड़ रु. के बेल्लारी खनन घोटाले में उनकी भूमिका के कारण उन्हें बाहर का दरवाजा दिखा दिया गया. उनके उत्तराधिकारी सदानंद गौड़ा और पिछले मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार दोनों में से कोई भी येद्दियुरप्पा की टक्कर के न थे. उन्होंने कई चुनाव क्षेत्रों में पार्टी को भारी नुकसान पहुंचाया. अंदरूनी कलह को लेकर भी पार्टी कुछ न कर सकी. गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी सहित उसके राष्ट्रीय नेताओं के पास अपने प्रचार अभियानों में प्रदेश बीजेपी सरकार के प्रदर्शन को दिखाने की ज्यादा गुंजाइश नहीं थी. एक विधानसभा चुनाव में उन्हें अपनी बात राष्ट्रीय परिदृश्य पर ही केंद्रित कर संतोष करना पड़ा. वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने जहां दो रैलियों को संबोधित किया, वहीं लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने एक और मोदी ने तीन रैलियां कीं.
येद्दियुरप्पा बीजेपी में वापस न जाने पर अड़े हैं पर बीजेपी के एक तबके का मानना है कि उनके पास और कोई रास्ता ही नहीं है. उनकी अनुभवहीन केजेपी को छह सीटें जीतने के बावजूद जल्द ही अस्तित्व के संकट का सामना करना पड़ सकता है. यही बात चार सीटें जीतने वाली बीएसआरसी पर भी लागू होती है. बीजेपी के एक नेता कहते हैं, ‘‘अलग हुए सभी लोगों को हम लोकसभा चुनावों के पहले पार्टी में वापस ले आएंगे. येद्दियुरप्पा जानते हैं कि पार्टी को उनके खिलाफ कार्रवाई करनी ही थी. वे कर्नाटक में हमारे सबसे बड़े नेता थे. केशुभाई पटेल होने की बजाए वे कल्याण सिंह होना पसंद करेंगे.’’
बीजेपी के लिए यह सब मजबूरी बन गई है क्योंकि जनता दल सेकुलर (जेडी-एस) का भाव बढ़ता ही जा रहा है. पार्टी ने अपनी विधानसभा सीटों की संख्या 2008 में 28 से बढ़ाकर इस साल 40 कर ली, जो बीजेपी की सीटों की संख्या के बराबर है. 2014 के आम चुनावों में एक मुश्किल त्रिकोणीय मुकाबले के आसार अभी से नजर आने लगे हैं. जेडी-एस प्रमुख एच.डी. देवेगौड़ा के बेटे और पूर्व मुख्यमंत्री एच.डी. कुमारस्वामी ने पहले ही कह दिया है कि वे इस अहम चुनाव के पहले संसद की सदस्यता छोड़ प्रदेश में आ जाएंगे.
बीजेपी के लिए एक और समस्या है: इस बार वह तटीय कर्नाटक क्षेत्र के अधिकांश हिस्से में हार गई है. यह इलाका संघ परिवार के कट्टरपंथी हिंदुत्व की प्रयोगशाला थी, जहां गिरजाघरों, पबों और रेव पार्टियों पर हमले के साथ-साथ और भी कई चौंकाने वाली घटनाएं हुईं. यही वह क्षेत्र है जहां सत्ता में रहते उसके कट्टरवादी एजेंडे को पर्याप्त बढ़ावा न देने के कारण परिवार पार्टी से काफी कटा-कटा रहा है. एक बीजेपी नेता उम्मीद जताते हैं, ‘‘येद्दियुरप्पा जैसा कोई शख्स उन सबको वापस ला सकता है.’’
इस बार से पहले कर्नाटक में बीजेपी का ग्राफ ऊपर ही जा रहा था. 1983 में 18 सीटें, 1999 में 44, 2004 में 79 और 2008 में 224 में से 110 सीटें. पहले वह स्थानीय मुद्दों को उठाने में देर नहीं करती थी, चाहे वह हुबली में छोटे ईदगाह मैदान का मामला रहा हो या चिकमगलूर में एक गुफा को लेकर चला लंबा विवाद, जिसमें स्थानीय मुसलमानों के विश्वास के अनुसार एक फकीर रहता था जबकि हिंदुओं के अनुसार, वह एक हिंदू संत का स्थान था. बंगलुरू के एक बीजेपी नेता कहते हैं, ‘‘लेकिन एक बार सत्ता में आने के बाद बीजेपी ने ऐसे मुद्दों में रुचि लेनी बंद कर दी. इसकी बजाए तेजी से आगे बढऩे के लिए वह उन लोगों के उपयोग के लिए अधिक उत्सुक रहने लगी, जो नकद पैसा लेकर आते थे.’’
खैर, कांग्रेस को छोड़ ज्यादातर पार्टियां इस बार भ्रष्टाचार को प्रचार का मुद्दा बनाने में नाकाम रहीं. कुमारस्वामी जैसे कुछ लोगों ने तो यहां तक कह डाला कि भ्रष्टाचार कोई मुद्दा ही नहीं. लेकिन बीजेपी के एक नेता स्वीकार करते हैं, ‘‘हमारे ऊपर ज्यादा मार इसी की पड़ी.’’
संयोगवश खनन घोटाले में चल रही सीबीआइ जांच के लिए कर्नाटक की बीजेपी सरकार ने अपनी औपचारिक सहमति नहीं दी. जांच की सिफारिश आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री के. रोसैया ने की थी क्योंकि संबंधित क्षेत्र उनके राज्य से सटा था. कर्नाटक के ये नतीजे 2014 में बीजेपी और कांग्रेस की संभावनाओं के लिए कोई संकेत भले न हों, लेकिन दोनों को ही अलग-अलग वजहों से प्रदेश में खुद को फिर से गढऩे की जरूरत होगी.