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महाराष्‍ट्र: सूखा नहीं, विकास का कसाईबाड़ा

पानी बरसने या न बरसने पर इंसान का जोर नहीं है. लेकिन इंसानी लालच और सरकार की साजिशें हंसते-खेलते इलाके को पानी से वंचित कर शमशान जरूर बना सकती हैं. महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त इलाके से लौटकर पुण्य प्रसून वाजपेयी की रिपोर्ट.

अपडेटेड 22 अप्रैल , 2013

‘‘ए खेत ची जमीन नाही...शमशान ची जमीन आहे.’’ संयोग से यह बात विदर्भ से लेकर मराठवाड़ा के गांव-गांव में घूमते वक्त औरंगाबाद के उसी डैम के किनारे महादेव ने कहीं, जिसकी नींव रखते समय लाल बहादुर शास्त्री ने समूचे मराठवाड़ा की प्यास बुझने का सपना जगाया था. महादेव ने 1965 में ‘जय जवान जय किसान’ के सपने तले अपनी 165 एकड़ जमीन 164 रु. पचास पैसे प्रति एकड़ के भाव से सरकार को दे दी. 2013 में महज तीन एकड़ जमीन सींचने को तो छोड़िए, उसी डैम के किनारे घर में खाना बनाने को भी पानी नहीं है.

किसानों के सामने यह सवाल समूचे मराठवाड़ा में हर डैम या सिंचाई प्रोजेक्ट को लेकर है. बुलढाणा की रमाबाई हों या जालना के बाबुलकर. लातूर के गायकवाड़ हों या उस्मानाबाद के बाबलसुरे. किसी की खेती प्रोजेक्ट में आ गई तो किसी की खेती प्रोजेक्ट ने ही परती कर दी. डैम और प्रोजेक्ट्स से पटे पड़े महाराष्ट्र का नया सच यही है. बीते डेढ़ दशक के दौरान सत्ताधारियों ने मुनाफे के विकास की ऐसी लकीर खींची, जिसमें किसान की खेती उसकी मेहनत की बजाए सरकारी नीतियों पर टिक गई. कपास की खेती ने खुदकुशी करना सिखाया, तो गन्ने की खेती ने अन्न छोड़ पैसे के पीछे भागना. जमीन पहले बंजर हुई. खेती छोड़ मजदूरी करना किसान की मजबूरी बना. अब 2012-13 का सच यही है कि मराठवाड़ा के 12 लाख किसान पश्चिमी महाराष्ट्र में गन्ना काटने की मजदूरी कर जीवन चला रहे हैं.Maharshtra drought

शुगर फैक्टरियां चलती रहें, इसके लिए हर डैम का पानी आज भी उन्हीं शुगर फैक्टरियों को जा रहा है, जिसके मालिक वही राजनेता हैं जो किसानों के वोट पाकर विधानसभा में महाराष्ट्र के विकास की नीतियां बना रहे हैं. दूसरी ओर किसान परती जमीन पर बैठकर इंद्र से मन्नत मांग रहा है और उद्योगों के साये में निगली जा रही खेती को बचाने की गुहार भी लगा रहा है.

पैठन का सच
पैठन साड़ी के जरिये दुनिया भर में पहचान बनाने वाले पैठन गांव का नया सच जानिए. 1965 में उससे कुछ ही दूरी पर जिस बांध की नींव डालते वक्त लालबहादुर शास्त्री ने समूचे मराठवाड़ा की जमीन की प्यास बुझाने का सपना जगाया, 48 बरस बाद वही बांध सिर्फ 500 मीटर की दूरी पर बसे गांव की प्यास बुझा पाने में भी सक्षम नहीं हो पा रहा. मराठवाड़ा के आठ जिलों के 3,000 से ज्यादा गांव बूंद-बूंद पानी के लिए तरस रहे हैं. हर गांव में किसान के माथे पर सिर्फ पसीना है. खेत में अन्न का एक दाना नहीं. सुनसान पड़े खेत-खलिहानों में मवेशी भी जाने को तैयार नहीं. हर बावड़ी सूखी है. ट्यूब वैल जमीन से पानी खींच पाने में नाकाम हैं. बावजूद इस सबके जिंदगी अपनी रफ्तार से कैसे चल रही है, लोग कैसे जी रहे हैं, यह सोचने/देखने का नायाब सच है 2013.

शाम ढलने पर जैसे ही बिजली आती है, हम खेतों के लिए रवाना हो जाते हैं. बेटा मनु ट्यूब वैल चलाता है. तीनों बेटियां खेत में मिट्टी हटाकर पानी के लिए रास्ता बनाती हैं. मैं और मेरे पति वागुलकर खेती का काम शुरू करते हैं. रात में एक बजे और कभी-कभी तीन बजे तक खेत में काम करके लौटते हैं. उसके बाद बिजली चली जाने पर गांवों में कोई काम होता ही नहीं. रात में काम न करें तो बच्चे पढ़ें कैसे और हम जियें कैसे? दो बार पुलिस पकड़ ले गई कि रात को खेत में क्या कर रहे हो? पुलिस को जब समझ में आया कि खेतों को रात में ही सींच पाना संभव है, तब जाकर उसने जाने दिया. पर हम तो रात भर खेत-खलिहान को जगाए रखते हैं. यह भी पाप है. लेकिन करें क्या? शालिनी ताई यह कहते-कहते रो पड़ीं कि उनके सगे-संबंधी उन्हें पागल समझते हैं.Ajit Pawar

वर्धा जिले के भूंगांव में पानी इसलिए नहीं है क्योंकि वहां स्टील इंडस्ट्री और पावर स्टेशन सारा पानी पी ले रहे हैं. जो पानी उद्योग के रास्ते खेतों से होते हुए जमीन के नीचे जा रहा है, उससे बीते एक महीने में 80 से ज्यादा मवेशी मर चुके हैं. 89 फीसदी खेती के लिए सिंचाई की कोई व्यवस्था नहीं है. मौजा, खडकी, आमगांव, वरबड़ी गांव और किनीगांव समेत वर्धा के 350 ऐसे गांव हैं, जहां के 8,000 किसान परिवारों को रात में बिजली आने पर ट्यूब वैल से खेतों को पानी पिलाने के लिए जागना पड़ता है. रात में 8 घंटे की बिजली सप्लाई के दौरान ही खेती का काम चलता है. शालिनी ताई को कोई पागल समझे या खेतिहर, उसका जीवन तो शाम ढले ही शुरू होता है.

यवतमाल: विधवाओं की जमीन
यवतमाल तो किसान विधवाओं की जमीन में तब्दील होता जा रहा है. हाइ-वे पर सिर्फ 2 किमी की दूरी पर जालका गांव में घुसते ही कलावती का घर आता है. अधपक्के घर में जमीन पर लेटी कलावती यह कहने से नहीं कतरातीं कि उसे पैसा तो मिला लेकिन तकदीर ने उसका साथ नहीं दिया. यवतमाल में तकदीर एक भी किसान के साथ नहीं. कपास उगाते किसानों की फेहरिस्त में शुमार कलावती के पति ने 2005 में खुदकुशी कर ली थी. बीते सात बरस में सिर्फ यवतमाल के 450 गांवों में 3,000 से ज्यादा कलावतियां विधवा हो चुकी हैं. उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं. कलावती के गांव से 70 किमी दूर बोथबोर्डन गांव तो घुसते ही मरघट-सा दिखता है. इस गांव में सबसे ज्यादा किसानों ने खुदकुशी की. एक साथ 22 महिलाओं का विलाप हर किसान की खुदकुशी के साथ बढ़ता जाता है. पिछले तीन महीनों में यवतमाल के 53 किसान खुदकुशी कर चुके हैं. इस बार संकट बेमौसम बारिश का है. इसीलिए यहां खुदकुशी की वजह दोहरी है. कभी पानी नहीं तो कभी फसल की कीमत नहीं. 2010 में पानी नहीं था तो 673 किसानों ने खुदकुशी की और 2011 में कपास की कीमत कोई देने को तैयार न था तो 589 किसानों ने खुदकुशी कर ली.

2007-08 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी यवतमाल आए तो उन्होंने किसान विधवाओं से मिलने का अलग से एक कार्यक्रम रखा. कुल 35 विधवाएं उस सभा में पहुंचीं. प्रधानमंत्री के जाने के बाद से वहां 72 और महिलाएं विधवा हो चुकी हैं.

बुलढाणा: योजनाएं तो हैं, पानी नहीं
बुलढाणा तो 43 सिंचाई योजनाओं पर बैठा है. यहां सबसे पहले 1958 में जवाहर लाल नेहरू नलगंगा सिंचाई योजना के साथ आए और यह कहकर लौट गए कि नलगंगा से बापू के वर्धा की प्यास भी बुझ जाएगी. लेकिन 2013 में नलगंगा का मतलब: डैम की सीमेंट की ऊंची दीवारों की छांव में जमीन पर चादर बिछाकर सोते किसान और सुबह-शाम झुंड में यह देखने आती ग्रामीण महिलाएं. उन्हें उम्मीद है कि कोई दिन तो होगा जब उनके आंसुओं पर डैम का पानी भारी पड़ेगा. 43 परियोजनाओं के बाद भी यहां सूखा है तो सच यही है कि कोई बांध ऐसा नहीं है, जहां कभी सफाई हुई हो.

बीते दस साल में बीस हजार करोड़ रु. इन्हीं परियोजनाओं को विकसित करने के नाम पर कौन डकार गया, इसकी सूची परियोजनाओं की संख्या से ज्यादा है. सरकार के दस्तावेज में 95 फीसदी योजनाएं सूखी हैं, बाकी 5 फीसदी खतरनाक लेवल पर हैं. जीगांव योजना तो ऐसी है कि सूखे के दौर में भी काम पूरा करने के नाम पर कमाई जारी है. बाकायदा जीगांव योजना के लिए ग्राम पंचायत से लेकर स्कूल की इमारत और डूबने वाले खारकुंडी समेत दर्जन भर गांवों के पुनर्वास का अखबार में विज्ञापन निकालकर टेंडर निकाला गया. मजे की बात है कि सूखे के दौर में भी तमाम राजनैतिक दलों से जुड़े लोगों ने टेंडर पाने के लिए होड़ मचा रखी है. प्रोजेक्ट की कीमत इसी दौर में 394.83 करोड़ रु. से बढ़कर 4,044 करोड़ रु. पहुंच चुकी है.

जालना: टूट रही जिंदगी की डोर
बुलढाणा से सटे जालना का सच तो कहीं ज्यादा गहरा है. जालना की प्यास बुझाने वाली एकमात्र बावड़ी, जो निजाम के दौर से कभी नहीं सूखी, वह भी इस बार बिन-पानी है. बाल्टी से टैंकर और पाइप से लेकर ट्यूब वैल तक से हर दिन 450 करोड़ रु. कमाए-खाए जा रहे हैं.

जालना शहर तो पानी खरीद सकता है लेकिन जालना के गांव क्या करें? पहली बार सूखे ने जालना के किसानों को खुदकुशी करना सिखा दिया है. तीन किसानों ने कर्ज लेकर कपास की खेती की. खेत सूख गए. फसल जल गई. तो कर्ज चुकाएंगे कैसे? खुदकुशी कर ली. 12,000 हेक्टेयर जमीन पर मौसम्मी की फसल जलकर खाक हो गई. 18,000 हेक्टेयर जमीन पर कपास की फसल सूख चुकी है. जिन खेतों में कपास बची हुई है, वहां सुबह 7 बजे से दोपहर 2 बजे तक कपास बीनने की एवज में किसान सिर्फ 50 रु. ही देने की स्थिति में है.

जालना ही नहीं, समूचे मराठवाड़ा में यह कोई नहीं जानता कि मनरेगा है क्या चीज? ऐसे में किसान जब मजदूरों को मजदूरी देता है तो अपनी स्थिति दिखा-बता कर मजदूरी तय करता है. जालना में किसी किसान की ऐसी स्थिति नहीं है कि वह 100 रु. मजदूरी दे सके. जालना ही नहीं, समूचे मराठवाड़ा में किसानों की जबान पर यह नारा है कि मजदूरी में 100 रु. चाहिए तो गन्ने के खेत में जाओ. यानी? पश्चिमी महाराष्ट्र में जाकर मजदूरी करो. करेंगे भी क्यों नहीं. जालना में जब हजारों हेक्टेयर जमीन परती हो चली है और किसानों के घरों में चूल्हे बुझने लगे हैं तो गांव के गांव मजदूरी के लिए पश्चिमी महाराष्ट्र का रुख कर रहे है. जालना से अगर 10,000 से ज्यादा मजदूर अप्रैल के पहले हफ्ते में काम की खोज में पुणे-मुंबई का रास्ता पकड़ चुके हैं तो सबसे बुरी स्थिति पलायन को लेकर बीड की है.

बीड में सबसे बड़ी माझलगांव सिंचाई योजना की तलहटी में बसे माझलगांव के 2,000 किसान परिवारों के लिए रोज पानी का जुगाड़ करना एक बड़ी समस्या है. सबसे नीचे के स्तर पर पहुंच चुके माझलगांव डैम से किसान पानी नहीं ले सकता. डैम से सीधे पानी लेने का मतलब है 250 रु. का चालान या जेल की सजा. डैम में बचा पानी वीवीआइपी समाज के लिए है. वीवीआइपी कौन? यह सर्किट हाउस जाकर पता चलता है, जहां रजिस्टर में साफ-साफ लिखा है कि सर्किट हाउस में जो भी रुकेगा, अधिकारियों को उसे हर हाल में हर तरह से पानी की सुविधा मुहैया करानी होगी. रजिस्टर में दर्ज इस आदेश की एक कापी डैम के चीफ इंजीनियर के पास भी है. डैम के आसपास से गुजरना भी अब माझलगांव के लोगों के लिए मुश्किल है.

इस डैम में पानी न होने से एकमात्र पावर स्टेशन पार्णी में भी काम ठप हो गया है. बिजली और पानी के संकट के चलते सिर्फ माझलगांव से 12,000 से ज्यादा किसान-मजदूर पलायन कर चुके हैं. यह अप्रैल का वक्त है. ट्रैक्टर, बस और हाइवे पर दौड़ते ट्रकों में इन इलाकों के मजदूर पहली बार काम की खोज में गांव छोड़कर जा रहे है.

लातूर और उस्मानाबाद: कड़वा सच
उस्मानाबाद और लातूर का सच तो कहीं ज्यादा भयावह है. बीस बरस पहले भूकंप में सब कुछ गंवा चुके इन इलाकों के 300 गांवों में अब एक ही सवाल उठ रहा है: भूकंप ने ज्यादा हिलाया था, या अब पानी की किल्लत ज्यादा मार रही है? 20 बरस पहले भूकंप का केंद्रबिंदु लातूर का किल्लारी था. उस वक्त किल्लारी के सरपंच डॉ. एस.डी. परसा थे. अब वे 80 पार कर चुके हैं. सूखे ने उन्हें इतना हिला दिया है कि 23 मार्च को उन्होंने यहां के गांवों के दर्द को चार पन्नों में उकेर डाला. उन्होंने राज्य के मुख्यमंत्री से अपील की कि वे एसी कमरे से बाहर निकल, बोतलबंद पानी छोड़ एक बार किल्लारी आकर लोहार, सुतार, कुम्हार, माली, कोली, ढोर, चर्मकार और किसान के घर रात गुजारें. उनका दावा है कि हर घर की रात भूकंप से कहीं ज्यादा काली है.

सूखा सिर्फ किसान और मवेशियों के लिए है. उद्योग, पावर प्लांट, शुगर फैक्टरी, तीन या पांच सितारा होटल और हर तरह की सरकारी इमारतों में पानी की कोई कमी नहीं है. नासिक से नांदेड़ तक गोदावरी नदी के किनारे कोई खेत ऐसा नहीं है, जिसमें पानी हो. दूसरी ओर कोई उद्योग ऐसा नहीं है जो पानी की वजह से ठप हो गया हो. कोई होटल ऐसा नहीं, जहां बोर्ड लगा हो कि इलाके में सूखा पड़ा होने की वजह से पानी का उपयोग कम करें. गोदावरी जब महाराष्ट्र से निकलकर आंध्र प्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र में जाती है तो संयोग से आखिरी जिला भी उसी सूखे मराठवाड़ा के नांदेड़ का आता है, जहां खेती की 80,000 हेक्टेयर जमीन पर एक बूंद पानी नहीं पड़ा है.

नांदेड़ शहर से सिर्फ 8 किमी की दूरी पर एशिया की सबसे बड़ी लिफ्ट सिंचाई परियोजना विष्णुपुरी डैम है, जिसके जरिये नांदेड़, कंधार और लोहा ताल्लुका की 20,000 हेक्टेयर जमीन को सींचा जाता रहा है. लेकिन 2013 में इसके 18 गेटों में एक भी नहीं खुला है. इसी तरह अपर मन्नार परियोजना के जरिए सिंचाई की राह देख रही 12,000 हेक्टेयर खेती भी सूखी पड़ी है. महाराष्ट्र में गोदावरी के आखिरी पड़ाव बाबली डैम के जरिये जो 10,000 हेक्टेयर जमीन सींची जानी थी, वहां बीते तीन महीने से एक बूंद पानी नहीं छोड़ा गया है. यह सच है कि हर डैम में पानी सबसे निचले स्तर पर पहुंच चुका है.

पानी का संकट कितने खतरनाक स्तर पर है, यह नांदेड़ के बाबली डैम को लेकर आंध्र प्रदेश सरकार के रुख और नांदेड़ के धर्माबाद ताल्लुके के हालात से समझा जा सकता है, जहां बाबली डैम है. आंध्र प्रदेश का मानना है कि बाबली डैम को विस्फोट कर उड़ा देना चाहिए क्योंकि यह गोदावरी के पानी को तेलंगाना में आने से रोक रहा है. गोदावरी तेलंगाना के आदिलाबाद, करीमनगर, वारंगल, नालगौंडा और खम्माम वगैरह के लिए जीवनरेखा है. महाराष्ट्र सरकार का कहना है कि गोदावरी पर पहला हक महाराष्ट्र  का है और बाबली डैम को उड़ा दिया गया तो महाराष्ट्र में पांच लाख हेक्टेयर जमीन बूंद-बूंद पानी के लिए तरसेगी.

गोदावरी के तट पर नांदेड़ के धर्माबाद ताल्लुके के 26 गांव पूरी तरह सूखाग्रस्त हैं. इसमें बाबली गांव भी शामिल है, जो डैम के सबसे करीब है. लेकिन महाराष्ट्र-आंध्र प्रदेश सीमा पर नांदेड़ के आखिरी साखर कारखाने यानी शुगर फैक्टरी से 7 अप्रैल को भी धुआं निकल रहा था और वहां पानी की सप्लाई बेरोक-टोक जारी थी, बाकायदा डैम के सुरक्षा पहरे में.

तो सूखा है किसके लिए? यह महाराष्ट्र में उप-मुख्यमंत्री से लेकर मंत्री और बड़े नेताओं के बड़े बोल से समझा जा सकता है, जिनके लिए महादेव सरीखे किसानों की डबडबाई आंखों से निकलते आंसू बेमानी हैं और खेती ची जमीन  को श्मशान ची जमीन कहना सच है क्योंकि विकास के आंकड़ों में खेतिहर किसान फिट नहीं बैठता.

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