भारत के मुख्य न्यायाधीश अल्तमस कबीर की पत्नी ने दिसंबर, 2012 में गुवाहाटी से 45 किमी दूर सुआलकुची में बिमल मेधी की दुकान से असम का पारंपरिक परिधान पट सिल्क की मेखला चादर खरीदी थी. मेधी के ससुर असम के इस गांव में रेशम की बुनाई करने वाले 40 हथकरघों के एक कारखाने के मालिक हैं. उनके यहां 17 अक्तूबर, 2006 को पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम आ चुके थे. पर 42 वर्षीय मेधी आज बदनामी का दर्द झेल रहे हैं. उन पर काला व्यापारी का ठप्पा लगा दिया गया है.
पिछले महीने 29 मार्च को करीब 1,000 लोगों की भीड़ ने उनके घर और वहीं स्थित उनकी दुकान पर हमला बोल दिया. दुकान में रखी हजारों मलबरी सिल्क की मेखला चादर को जलाकर राख कर दिया गया. देखने में सुआलकुची की पट सिल्क की तरह ही लगने वाली यह मेखला चादर उत्तर प्रदेश के मुबारकपुर और इस्लामपुर के हैंडलूमों में बनाई गई थी. स्थानीय लोग इन्हें बनारसी पट कहते हैं.
हमला करने वालों में शामिल मृणाल बैश्य (बदला हुआ नाम) का कहना है कि मेधी और उनके तीन भाई बनारसी पट को सुआलकुची की पट सिल्क बताकर बेचते हैं. लेकिन मेधी इस आरोप से इनकार करते हैं. मेधी ने इंडिया टुडे से कहा, ‘‘हम 25 वर्षों से बनारसी और असमी सिल्क बेच रहे हैं. हम दोनों को आपस में कभी नहीं मिलाते. हमारे ग्राहकों को पता होता है कि वे क्या खरीद रहे हैं. हमें अपने असमी कपड़े पर गर्व है.’’
कुछ बेईमान व्यापारियों के इस बनारसी सिल्क को ही असम का सिल्क बताकर बेचने की वजह से ही 29 मार्च को असम के कपड़ा उद्योग के गढ़ में दंगे जैसी स्थिति पैदा हो गई थी. यहां के कुछ बुनकरों ने डिब्रूगढ़ के एक मारवाड़ी व्यापारी को रास्ते में रोक लिया, जो 25 बनारसी पट लेकर अपने घर जा रहा था. उसने इन्हें असमी पट समझकर सुआलकुची में मनोज कुमार नाम के एक व्यक्ति से 2 लाख रु. में खरीदा था. गुस्साए बुनकरों ने कपड़ों को आग के हवाले कर दिया और मनोज कुमार की दुकान में तोडफ़ोड़ कर दी.
घंटे भर के भीतर वहां करीब एक हजार लोगों की भीड़ जमा हो गई और लोगों ने मेधी और गांव के एक बड़े सिल्क व्यापारी दीपक कुमार के घरों पर हमला कर दिया. भीड़ जब मेधी के घर को तहस-नहस करने के बाद लौट रही थी, तो पुलिस से उनका टकराव हो गया और पुलिस ने गोलियां चला दीं. इस झड़प में दो सुरक्षा कर्मियों समेत दस लोग घायल हो गए. स्थिति की गंभीरता को देखते हुए कर्फ्यू लगा दिया गया, जिसे तीन दिन बाद हटा लिया गया.
असम के रेशम उद्योग से 25,000 लोगों को रोजगार मिला हुआ है. इनमें 50 फीसदी महिलाएं हैं. सुआलकुची में करीब 12,000 लूम हैं. असम में बनारसी सिल्क कम-से-कम तीन दशकों से बिक रही है. लेकिन संकट 2008 में तब शुरू हुआ, जब असम के कुछ व्यापारियों ने मुबारकपुर और इस्लामपुर के बुनकरों से असमी मेखला चादर जैसा कपड़ा बनवाना शुरू किया. उन बुनकरों ने पट सिल्क की नकल तैयार करनी शुरू कर दी, जो अपेक्षाकृत काफी सस्ती होती थी. असम के बाजार में जल्दी ही नकली कपड़ों की भरमार हो गई. दीपक कुमार स्वीकार करते हैं कि उन्होंने यहां के बेलबूटे और डिजाइन उत्तर प्रदेश भेजे थे. लेकिन इसके लिए वे असम में बुनकरों की कमी और उनके बढ़ते पारिश्रमिक को जिम्मेदार ठहराते हैं.
हिंसा को देखते हुए जिला प्रशासन ने अस्थायी तौर पर बनारसी सिल्क की बिक्री पर रोक लगा दी है. कई दुकानों पर छापा भी मारा गया है. बुनाई के एक कारखाने के मालिक खनिकर दास कहते हैं, ‘‘अस्थायी उपायों से कुछ नहीं होने वाला है. सरकार अगर गंभीर है तो उसे महीने भर के भीतर कपड़ा नीति बनानी चाहिए.’’ लेकिन तब तक तो रेशम की जंग जारी ही रहेगी.

