जब डीएमके ने 19 मार्च को यूपीए से अपना समर्थन वापस ले लिया तो उसके बाद से कांग्रेस के राजनैतिक प्रबंधकों के लिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को अपने करीब लाना उनकी सबसे बड़ी प्राथमिकता बन गई. 25 मार्च को दक्षिण अफ्रीका के डरबन में ब्रिक्स सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ रवाना होते समय वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने नीतीश कुमार को संदेश भिजवाया. उनके संदेश के मुताबिक, केंद्र दो महीने के भीतर पिछड़े राज्य का दर्जा देने के लिए निर्धारित मानदंड बदलने के लिए तैयार है.
26 मार्च को कई मीडिया प्रतिष्ठानों ने खबर दी कि सरकारी सूत्रों ने इस बात की पुष्टि की है कि बिहार (और कुछ अन्य राज्यों) को जल्द ही विशेष राज्य का दर्जा दिया जा सकता है. राजनैतिक हालात ने सुनिश्चित कर दिया कि 28 फरवरी को केंद्रीय बजट के समय जो सतही वादा किया गया था, वह मात्र तीन हफ्ते बाद ही प्रतिबद्धता बन चुका होगा क्योंकि नीतीश कुमार की पार्टी के 20 सांसद बहुत महत्वपूर्ण हैं और जेडीयू यूपीए सरकार को समय से पहले गिरने की स्थिति में बचा सकते हैं.
घटती दूरियां और मोदी का पेंच
नीतीश को अपनी ओर लाने की कांग्रेस की उम्मीद बेबुनियाद नहीं है. पिछले साल 19 सितंबर को उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि वे केंद्र में ऐसी किसी भी सरकार का समर्थन करेंगे, जो बिहार को विशेष राज्य (इससे राज्य को विशेष आर्थिक मदद मिलेगी) का दर्जा देगी. 18 मार्च को दिल्ली में उनकी अधिकार रैली की सफलता ने एक बार फिर उनकी मांग को पुख्ता कर दिया. नीतीश इस बात पर भी अड़े हुए हैं कि बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया तो वे अपने इस मौजूदा गठबंधन सहयोगी से रिश्ता तोड़ देंगे.
इस बीच बीजेपी ने नीतीश से 17 साल पुराने रिश्ते को सुधारने के लिए पूरी मुस्तैदी दिखाई है. 18 मार्च की रैली की शाम बीजेपी के वरिष्ठ नेता अरुण जेटली ने नीतीश को रात्रिभोज पर आमंत्रित किया. दोनों नेताओं के बीच अच्छी दोस्ती रही है और सूत्रों का कहना है कि बीजेपी ने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के लिए मोदी के नाम पर नीतीश को राजी करने का काम जेटली को सौंप दिया है. जेडीयू के एक सांसद कहते हैं, ''वे बीजेपी की ओर से मोदी के सिवाय किसी के भी नाम पर सहमत हो जाएंगे.” लचीला रुख रखने वाले नीतीश अगर किसी मुद्दे पर बिलकुल समझौता नहीं कर सकते, तो वह है एनडीए की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के लिए नरेंद्र मोदी का नाम.
कुछ ही हफ्तों में नीतीश देश में कांग्रेस और बीजेपी की आंखों का तारा बन गए हैं. लेकिन वे जल्दबाजी में कोई भी फैसला नहीं लेने वाले. पार्टी के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि नीतीश हमेशा एक ही सिद्धांत का पालन करते हैं—जब तक कोई चीज हो न जाए तब तक उसकी चिंता न करो. विशेष राज्य का दर्जा देने की औपचारिक घोषणा अभी नहीं हुई है. यह एक ऐसा बिंदु है, जिस पर जेडीयू के वरिष्ठ नेता शरद यादव नाराजगी जाहिर करते रहे हैं. उन्होंने 26 मार्च को कटाक्ष करते हुए कहा था कि उन्होंने इस बारे में सिर्फ अखबारों में पढ़ा है. मोदी के नाम पर बीजेपी का अंतिम फैसला होने में भी अभी कई महीने बाकी हैं.
कांग्रेस और बीजेपी भले ही नीतीश को अपनी ओर लाने की कोशिशों में लगी हों, लेकिन नीतीश पूरी तरह निश्चित भाव में बैठे हैं. दिल्ली के अपने व्यस्त दौरे में भी उन्होंने एन.के.पी. साल्वे की स्मृति में पहले संगीत समारोह में शास्त्रीय गायिका किशोरी अमोनकर का गायन साढ़े तीन घंटे तक मग्न होकर सुना. इस संगीत सभा का सह-आयोजन दिल्ली में उनके सहयोगी एन.के. सिंह ने किया था. उनके निकट सहयोगी भी उन्हें इस तरह मग्न देखकर हैरत में थे.
नीतीश का फैसला एक ही बात पर निर्भर करेगा: बिहार पर उनकी पकड़ कैसे मजबूत हो. इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर चुके मुख्यमंत्री को अत्यंत व्यवस्थित विचारों वाला व्यक्ति माना जाता है. बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की उनकी मांग सिर्फ राजनैतिक नारेबाजी नहीं है. बिहार में दोहरे अंकों की वृद्धि दर बनाए रखने के लिए उन्हें अतिरिक्त आर्थिक मदद की जरूरत होगी.
विकास का गणित
राज्य की वृद्धि मुख्य रूप से सड़कों, हाउसिंग, शिक्षा और स्वास्थ्य पर होने वाले सरकारी खर्च पर आधारित रही है, न कि निजी कंपनियों के इन्वेस्टमेंट पर. निजी कंपनियां किसी बड़े प्राकृतिक संसाधन के अभाव वाले इस राज्य में इन्वेस्ट नहीं कर रही हैं. कुछ समय से नीतीश इस बात से काफी नाराज हैं कि केंद्र की ओर से प्रायोजित योजनाओं को लागू करने के लिए उनकी सरकार को हर साल अपने खजाने से कम-से-कम 7,000 करोड़ रु. खर्च करने पड़ रहे हैं.
जेडीयू सांसद एन.के. सिंह फरवरी 2012 में बिहार कॉनक्लेव की एक घटना को याद करते हैं, जब उन्होंने उस सत्र का संचालन किया था जिसमें नीतीश ने हिस्सा लिया था. योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया और अर्थशास्त्री अमत्र्य सेन पैनल में थे. नीतीश ने संचालक को हाथ से लिखकर एक नोट दिया, जिसमें अहलूवालिया से दो सवाल पूछने के लिए कहा गया था. पहला, केंद्र अपनी योजनाओं पर खुद ही सारा खर्च क्यों नहीं करता है, और दूसरा, वह कुछ कल्याण कार्यक्रमों या खास रियायतों को लागू करने के लिए राज्य सरकारों पर दबाव क्यों डालता है, जबकि राज्य की अपनी अलग प्राथमिकताएं हो सकती हैं. एन.के. सिंह कहते हैं, ''यह दिखाता है कि उनकी सोच क्या है.”
नीतीश इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि बिहार में वे इसीलिए लोकप्रिय हैं, क्योंकि उन्होंने राज्य को 1990 से 2005 के बीच आरजेडी के कुशासन से बाहर निकाला है. उन्होंने मतदाताओं का जो वोट बैंक तैयार किया है, वह जाति और सांप्रदायिकता की सीमाओं से परे है. एक ऐसा जनाधार, जिसकी प्राथमिकता सिर्फ विकास है.
बिहार अब भी प्रति व्यक्ति आय और मानव विकास सूचकांक जैसे मुख्य पैमानों पर देश में सबसे नीचे आता है. केंद्र पर्वतीय राज्यों या उत्तर-पूर्व के दूरदराज वाले राज्यों को उनके भौगोलिक आधार पर ही विशेष राज्य का दर्जा देता है. केंद्र से अतिरिक्त पैसा मिलने के अलावा इन राज्यों को निजी निवेशकों के लिए टैक्स में विशेष लाभ देने की अनुमति होती है. बिहार की वृद्धि की कहानी के अगले चरण के लिए नीतीश को इन दोनों ही सहारों की जरूरत होगी. उन्हें यह लाभ तभी मिल सकता है, जब यूपीए पिछड़े राज्य का दर्जा देने के लिए अपने नियमों में बदलाव करे और भूगोल से ज्यादा सामाजिक-आर्थिक पैमाने को इसका आधार बनाए.
चुनावों पर टिकी निगाहें
हालांकि नीतीश ने जाति और सांप्रदायिकता के पुराने समीकरण के महत्व को कम कर दिया है, लेकिन वे उसे पूरी तरह छोड़ नहीं पाए हैं. उनके अंदर का नेता जानता है कि अगले लोकसभा चुनावों में अगर जेडीयू की सीटों की संख्या बढ़ानी है तो उन्हें अपना गठबंधन को सही-सलामत रखना होगा. वोटों की हिस्सेदारी के मामले में जेडीयू-बीजेपी गठबंधन की जीत पक्की है.
2010 के विधानसभा चुनाव में दोनों को मिलाकर करीब 40 प्रतिशत वोट मिले थे, जिसके बल पर वे बिहार की 80 प्रतिशत सीटें जीतने में कामयाब रहे थे. अगर वे गठबंधन से अलग हो जाते हैं, तो नीतीश को करीब 16-17 प्रतिशत वोटों का नुकसान हो सकता है, जो 2010 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी को मिला था. उन्हें सवर्णों का वोट भी खोना पड़ सकता है, जो बीजेपी को वोट देते हैं और हाल में नीतीश सरकार से उनका मोहभंग हुआ है.
यह एक बड़ी वजह है, जिसके कारण नीतीश बीजेपी से अलग होने से हिचकते हैं. नीतीश अगर बीजेपी से अलग होना चाहते हैं, तो उन्हें 16 प्रतिशत मुस्लिम वोटों को अपने पक्ष में करना होगा. नीतीश जब तक बीजेपी के साथ हैं, तब तक लालू प्रसाद यादव की आरजेडी अल्पसंख्यकों के एक बड़े वर्ग का वोट हासिल करती रहेगी.
वोटों के मामले में बीजेपी के मुकाबले कांग्रेस से नीतीश को ज्यादा फायदा नहीं होने वाला है. पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को केवल 8 प्रतिशत वोट ही मिले थे. नीतीश के लिए कांग्रेस की ओर कदम बढ़ाने की कोशिश की वजह विपक्षी ताकतों के गठजोड़ को रोकना हो सकती है—नीतीश अगर अकेले चुनाव लड़ते हैं तो आरजेडी-एलजेपी-कांग्रेस का गठजोड़ उन्हें हरा सकता है. नीतीश निश्चित रूप से लालू को पस्त रखना चाहते हैं और इस धारणा को भी झुठलाना चाहते हैं कि लालू धीरे-धीरे फिर से बिहार में अपनी पकड़ बना रहे हैं. नीतीश की अधिकार यात्रा और बीजेपी की प्रस्तावित हुंकार रैली के खिलाफ परिवर्तन यात्रा शुरू कर चुके लालू की जनसभाओं में काफी भीड़ जुट रही है.
राज्य के खुफिया सूत्र इस बात की पुष्टि करते हैं कि लालू की रैलियों में 10,000 लोगों की भीड़ जुटती रही है, जबकि पांच साल पहले उनकी सभाओं में बमुश्किल 2,000 की भीड़ होती थी.
कांग्रेस के साथ जाने के नुकसान
कांग्रेस के साथ गठजोड़ बनाने के दूसरे नुकसान भी हैं. नीतीश के एक करीबी सहयोगी के मुताबिक, वे लोकसभा चुनाव में यूपीए की बदनामी का हिस्सा नहीं बनना चाहते हैं. इसके अलावा जेडीयू के कैडर के लिए, जो जेपी आंदोलन के समय कांग्रेस के धुर विरोध से पैदा हुआ था, उस कांग्रेस के साथ जाना मुश्किल होगा, जिसका वे हर बात में विरोध करते रहे हैं. मुख्यमंत्री कोई भी अंतिम फैसला लेने से पहले अपने करीबी सहयोगियों जैसे आर.सी.पी. सिंह और एन.के. सिंह (दोनों पहले अफसरशाह रह चुके हैं) और शरद यादव तथा वशिष्ठ नारायण सिंह जैसे वरिष्ठ नेताओं से जरूर सलाह लेंगे.
एक बात तो तय है कि नीतीश अगले चुनावों में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर अपना नाम आगे नहीं रखना चाहते. वे किसी बात की हड़बड़ाहट दिखाते नजर नहीं आ रहे हैं. पार्टी के एक वरिष्ठ सांसद के मुताबिक, नीतीश अकसर बताते रहते हैं कि जो मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री पद की लालसा रखते हैं, वे बाद में मुख्यमंत्री बनने लायक भी नहीं रह जाते हैं. जाहिर तौर पर उनका इशारा एच.डी. देवेगौड़ा की ओर है. फिलहाल तो वे किंग बनने की बजाए किंगमेकर की भूमिका में ही रहना चाहेंगे.

