मध्य प्रदेश की शिवराज सरकार और चर्च के बीच युद्घ में जीत चर्च की हुई. दरअसल 18 मार्च को सरकार ने एक सर्कुलर जारी कर गैर-सहायता प्राप्त ईसाई मिशनरी स्कूलों में 25 फीसदी सीटों पर अभावग्रस्त और कमजोर तबके के बच्चों को प्रवेश देने के निर्देश दिए थे. ऐसे 10,000 से ज्यादा स्कूलों ने यह दावा करते हुए सरकार को ललकारा था कि सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें राइट टू एजुकेशन (आरटीई) के दायरे से बाहर रखा है. मामला मध्य प्रदेश हाइकोर्ट पहुंचा जहां इस सर्कुलर को रद्द कर दिया गया.
राज्य की स्कूली शिक्षा मंत्री अर्चना चिटनिस ने प्रेस में जारी बयान में कहा था कि अधिनियम में संशोधन के चलते अब आरटीई को गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों में भी लागू किया जाएगा और इससे बाहर केवल वही स्कूल होंगे जहां धार्मिक शिक्षा दी जाती है. इसमें यह भी कहा गया था कि यह संशोधन पिछले साल आए सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के बाद किया गया है. राज्य सरकार के विधि विभाग ने भी राय दी थी कि ईसाई मिशनरी सहित अन्य अल्पसंख्यकों के शिक्षण संस्थान जहां धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाती है, आरटीई की सीमा में आते हैं इसलिए, ‘ऐसे स्कूलों को 25 फीसदी सीटों पर अभावग्रस्त और कमजोर तबके के बच्चों को प्रवेश देना होगा.’
वहीं दूसरी ओर भोपाल के आर्चबिशप लीयो कार्नेलियो का दावा था कि यह सर्कुलर सुप्रीम कोर्ट की अवमानना करता है क्योंकि 12 अप्रैल, 2012 को आए एक फैसले में शीर्ष अदालत ने गैर-सहायता प्राप्त अल्पसंख्यकों के स्कूलों को आरटीई के दायरे से बाहर रखा है. आर्चबिशप कहते हैं, ‘‘सर्कुलर गलती से जारी कर दिया गया लगता है. सर्कुलर में ऐसा कहा गया है कि कानून में संशोधन के चलते गैर-सहायता प्राप्त स्कूल भी इसके दायरे में आ जाएंगे. अगर ऐसी बात है तो इसका पालन करने में हमें कोई दिक्कत नहीं है. लेकिन जहां तक मेरी जानकारी है, हम इस कानून के दायरे में नहीं आते हैं.’’
इस सर्कुलर के बाद ईसाई अल्पसंख्यकों के स्कूलों के सभी प्राचार्यों ने 23 मार्च को भोपाल में बैठक की, जिसमें यह निष्कर्ष निकला कि स्कूली शिक्षा विभाग को आरटीई कानून के क्रियान्वयन को लेकर समझने में भूल हुई है. प्राचार्यों के मुताबिक कानून की धारा 1 में हुआ संशोधन कहता है, ‘‘भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 के प्रावधानों के मद्देनजर आरटीई कानून 2009 के तहत बच्चों को निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार सुनिश्चित करना होगा.’’ लेकिन प्राचार्यों के मुताबिक सर्कुलर में ‘‘प्रावधानों के मद्देनजर’’ वाक्य की गलत व्याख्या कर ली गई है और अनुच्छेद 29 और 30 के तहत अल्पसंख्यकों के संस्थानों को मिला विशेषाधिकार ‘‘वैदिक पाठशालाओं और मदरसों’’ पर भी लागू होता है.
मध्य प्रदेश कैथलिक चर्च पब्लिक रिलेशंस ऑफिसर फादर सोलोमन एस कहते हैं, ‘‘प्राचार्यों ने पाया है कि गैर-सहायता प्राप्त अल्पसंख्यकों के संस्थानों को मिले विशेषाधिकार संशोधन से खत्म नहीं हो जाते हैं.’’ प्राचार्यों ने तय किया था कि वे स्कूलों में आरटीई ऐक्ट के तहत प्रवेश नहीं देंगे. हालांकि वे आर्थिक रूप से कमजोर बच्चों को संस्थान में प्रवेश देने के लिए राजी हो गए थे.
यह विवाद लगभग एक साल से जारी था. मिशनरी स्कूल आरटीई से इसलिए बचना चाहते हैं क्योंकि उन्हें लगता था कि इससे स्कूल की प्रवेश प्रक्रिया में नेताओं का दखल शुरू हो जाएगा. एक पादरी कहते हैं, ‘‘नेता राजनैतिक फायदे के लिए हमें हर किसी को प्रवेश देने के लिए मजबूर करेंगे. हम नहीं चाहते कि हमारे प्रतिष्ठित स्कूलों में ऐसा कुछ हो. जरूरतमंद और गरीब लोगों को निशुल्क शिक्षा हम दे ही रहे हैं.’’
सरकारी सर्कुलर के खिलाफ जबलपुर के एक क्रिश्चियन स्कूल ने हाइकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था, जिस पर प्रदेश सरकार को बड़ा झटका देते हुए अदालत ने इस सर्कुलर को रद्द कर दिया है.

