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महाकुंभ: दुनिया का सबसे बड़ा मेला

गंगा किनारे बसा शहर 55 दिनों में 10 करोड़ लोगों की मेजबानी करेगा. महाकुंभ का बंदोबस्त चमत्कारिक रहा तो इलाहाबाद स्टेशन में हुई भगदड़ ने रंग में भंग का काम किया.

महाकुंभ
महाकुंभ
अपडेटेड 11 मार्च , 2013

जवाहर लाल नेहरू के भव्य आनंद भवन को पार कर जाइए. अलोपीबाग फ्लाइओवर के नीचे बैरीकेड पार कर जाइए, दुकानें, रेस्तरां और तीन-तीन नाम वाले स्वामियों के होर्डिंगों को भी पीछे छोड़ जाइए. महाकुंभ की एक अलग ही दुनिया का पहला अलौकिक नजारा आपको सबसे पहले तब हैरत में डालता है, जब आप मेला जिले को इलाहाबाद से जोडऩे वाले त्रिवेणी मार्ग पर आते हैं और वहां से संगम की ओर नजर दौड़ाते हैं. शाम का समय है. सूरज अभी-अभी अस्त हुआ है. सांझ की लाली छाई है और मेले में लगी लाइटें जल चुकी हैं, जिनसे ऐसा लग रहा है जैसे आसमान में सितारों की चादर बिछा दी गई हो या 58 वर्ग किलोमीटर के किसी गहने में हीरे जड़ दिए गए हों.

जहां तक नजर जाती है, वहां तक उल्लास ही उल्लास दिखाई देता है. हजारों की संख्या में गेरुआ वस्त्र पहने साधुओं और करोड़ों श्रद्धालुओं की अपार भीड़ जमा है. सड़क को धार्मिक अखाड़ों से रेखांकित कर दिया गया है, जिनके दमकते द्वार किसी सर्कस के बड़े-बड़े प्रवेश द्वारों की याद दिलाते हैं. यहां अस्तपाल, पुलिस स्टेशन, गैस एजेंसियां, पोस्ट ऑफिस, रेडियो स्टेशन और एक रेलवे आरक्षण केंद्र भी है. बाईं ओर एक सड़क जा रही है, जहां राष्ट्रीयकृत बैंकों ने प्लाईवुड से बने अपने दफ्तर खोल रखे हैं. दाईं ओर जाने वाली सड़क पर कैनवस कोर्टहाउस है, जहां मेले में होने वाले अपराधों की सुनवाई होती है.kumbh

कुंभ की अपनी अलग प्रशासनिक व्यवस्था है जिसमें एक जिला कलेक्टर, एक सीनियर पुलिस अधीक्षक, मुख्य चिकित्सा अधिकारी, चीफ इंजीनियर, इलेक्ट्रीशियन, रेस्तरां मालिक, मल्लाह और कूड़ा इकट्ठा करने वाले रखे गए हैं. मेले में स्टील की प्लेटों से बनी 156 किमी की सड़कें, 18 पंटून पुल, 980 किमी लंबे बिजली के तारों का जाल, पानी की 550 किमी की पाइप लाइनें और 1,200 करोड़ रु. का भारी-भरकम बजट है. यह हर मायने में एक महानगर जैसा बना दिया गया है, जिसे 55 दिन बाद उजाड़ दिया जाएगा. 56 वर्षीय मेला अधिकारी या डीएम (कुंभ) मणि प्रसाद मिश्र ने इंडिया टुडे को बताया, ''जनसंख्या घनत्व

के हिसाब से देखें तो यह दुनिया का सबसे बड़ा शहर है. बस एक ही कमी है कि वास्तव में इस शहर का कोई अस्तित्व नहीं है. '' यह आज है तो कल नहीं है.

लेकिन 10 फरवरी को पावन मौनी अमावस्या के दिन कुंभ में एक दर्दनाक हादसा हुआ, जिसने आखिरकार भ्रम की मुलाकात वास्तविकता से करा दी. भस्म में लिपटे नंगे साधु गंगा और यमुना के संगम में डुबकियां लगा रहे थे, दूसरी और हजारों तीर्थयात्रियों को मेले से निकलकर इलाहाबाद शहर की ओर जाते हुए देखा जा सकता था. अपने सिरों पर सामान उठाए स्त्रियों और पुरुषों की भीड़ अपने गांवों और नगरों को लौटने के लिए बस स्टैंड और रेलवे स्टेशन की ओर बढ़ती हुई देखी जा सकती थी. बिल्कुल किसी नदी की धार की तरह. शाम 7.30 बजे कुंभ नगरी से 5 किमी दूर मुख्य रेलवे स्टेशन पर विशाल भीड़ जमा हो गई.

इलाहाबाद प्रशासन, जिसे सिर्फ 12 लाख लोगों की भीड़ को संभालने का अनुभव रहा है, ने भीड़ को नियंत्रित करने के लिए लाठीचार्ज शुरू कर दिया. इससे लोग घबराकर इधर-उधर भागने लगे. हर तरफ चीख-पुकार सुनाई देने लगी. कुछ लोग ठसाठस भरे ओवरब्रिज से नीचे जा गिरे तो कुछ सीढिय़ों पर फिसल गए. इस भगदड़ में 36 लोग मारे गए और 39 लोग घायल हुए (देखें—विस्तृत रिपोर्ट). कुंभ, जहां अकसर लोग अपने सगे-संबंधियों से बिछड़ जाते हैं और कभी-कभी लोग मोक्ष की जगह मौत पाते हैं, एक बार फिर अपनी पहचान बना गया. इस दुर्घटना से पहले सब कुछ ठीक चल रहा था.

700 मजदूर, छह महीने, टैंट का शहर

हाल ही में तरक्की पाकर आएएस अधिकारी बने राज्य प्रशासनिक सेवा (पीसीएस) के अधिकारी एम.पी. मिश्र को 21 दिसंबर, 2011 को स्वास्थ्य विभाग के विशेष सचिव पद से हटाकर कुंभ मेले की व्यवस्था देखने का काम सौंपा गया था. चूंकि उत्तर प्रदेश में यह चुनाव का समय था, इसलिए चुनाव आयोग की आचार संहिता के चलते वे निर्माण कार्य तभी शुरू करा सके, जब अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी की सरकार बनी.

डीएम (कुंभ) लॉजिस्टिक्स—कुल इलाका, सेक्टरों में विभाजन, सड़क नेटवर्क, वाटर पाइपलाइनें और रहने की जगह—पर काम करने में लगे ही थे कि तभी राज्य के नए मुख्यमंत्री ने पूर्वांचल पॉवर डिस्ट्रीब्यूशन कार्पोरेशन के मैनेजिंग डायरेक्टर (एमडी) ए.पी. मिश्र को 31 दिसंबर को अपने चैंबर में बुलवाया. एक छोटी सी मुलाकात में मुख्यमंत्री ने उनसे कहा कि कुंभ मेला उनकी सरकार की सबसे बड़ी प्राथमिकता है और छह मेलों का काम संभालने का विशेष अनुभव रखने के कारण उन्हें इलाहाबाद जाकर बिजली के तारों को बिछाने का काम शुरू करना होगा.

उसके अगले दिन 1 जून को ए.पी. मिश्र और उनके जूनियर सहकर्मी 2013 के महाकुंभ जिले में कदम रखने वाले सबसे पहले लोग थे. उन्होंने इलाके का जायजा लिया, योजनाएं तैयार कीं, कच्चे सामान का काम ठेकेदारों को दिया और जून के अंत में पहले लैंपपोस्ट की खुदाई के दिन एक छोटा-सा कार्यक्रम आयोजित किया.kumbh

अगले छह महीनों में एमडी की वरिष्ठ इंजीनियरों की टीम ने रोजाना 600 से 700 मजदूरों को काम पर लगाकर पूरे मेला क्षेत्र में 770 किमी की हाईटेंशन और 210 किमी की लो टेंशन तार बिछा दी. ए.पी. मिश्र कहते हैं, ''प्रयागराज एक्सप्रेस को दिल्ली से इलाहाबाद के बीच 650 किमी की दूरी तय करने में साढ़े नौ घंटे लगते हैं. अगर इस ट्रेन की रफ्तार से कुंभ के तारों के कुल नेटवर्क की लंबार्ई तय की जाए तो इसमें 12 घंटे से ज्यादा का समय लग जाएगा. '' ये तार 22,000 स्ट्रीट लाइटों को जोड़ते हैं और अखाड़ों तथा अन्य प्रतिष्ठानों को 1,40,000 मुफ्त कनेक्शन मुहैया कराते हैं. राज्य सरकार 55 दिनों के लिए उनके 4 करोड़ रु. के बिल का भुगतान करेगी.

लेकिन जिस राज्य में बिजली की आपूर्ति आंखमिचौली करती रहती है, वहां कुंभ में स्नान की विशेष तिथियों पर 3 करोड़ लोगों को बिजली की अबाध आपूर्ति सुनिश्चित करना आसान नहीं था. इस तरह की व्यवस्था तैयार की गई थी कि लाइनों पर अपनी क्षमता का 50 फीसदी से ज्यादा का बोझ न उठाना पड़े. हर लाइट क्लस्टर को इस तरह बनाया गया था कि बिजली फेल होने पर भी वह जलती रहे.

इसके लिए दो अलग-अलग स्रोतों से बिजली ली गई. ब्रेक डाउन की स्थिति में तीन सेकंड का ऑटोमेटिक स्विच टाइम रखा गया था. इनके प्वाइंट विशाल जनरेटरों से जोड़े गए. हर दूसरा लाइट क्लस्टर चौबीसों घंटे इन जनरेटरों पर चल रहा था, ताकि राष्ट्रीय ग्रिड फेल होने पर भी मेले में रोशनी गुल न होने पाए.

ए.पी. मिश्र की टीम ने तीन मॉक ड्रिल किए. इनमें बिजली के विभिन्न सब-स्टेशनों को वैकल्पिक रूप से अक्षम किया गया ताकि सबसे खराब हालात में भी तैयार रहा जा सके. आखिरकार 14 दिसंबर, 2012 को यानी मेला शुरू होने से एक महीना पहले हरी झंडी दे दी गई. ए.पी. मिश्र कहते हैं, ''यह पूरी तरह अस्थायी शहर है, जहां विशेष अवसरों पर 3 करोड़ से ज्यादा श्रद्धालुओं की भीड़ जमा होती है और हजारों किमी के तारों में बिजली दौड़ती रहती है. यहां नदी है, बारिश है, लेकिन कभी भी आग नहीं लगती. इसे ईश्वर का चमत्कार ही कहा जाएगा. इसके सिवा और क्या कहा जा सकता है? ''

18 पुल, 130 इंजीनियर, करोड़ों श्रद्धालु

दूर से कुंभ की तस्वीर लें तो पता चलेगा कि यहां की अस्थायी सड़कों और पुलों का नेटवर्क ही मेले की जीवनरेखा है. नदी के समतल किनारे पर बनी सड़कें न सिर्फ विशाल मैदान के कोनों को जोड़ती हैं, बल्कि यह भी सुनिश्चित करती हैं कि करोड़ों तीर्थयात्री सुव्यवस्थित ढंग से मेले में आवाजाही कर सकें. लोक निर्माण विभाग (पीडब्लूडी) में चीफ इंजीनियर आर.सी. भारद्वाज की देख-रेख में सड़क निर्माण का काम मानसून के बाद ही शुरू हो सका क्योंकि उस समय नदी का पानी अपने सामान्य स्तर पर आ गया था.

ट्रैक्टरों से कीचड़ और रेत को जमा करके जमीन को समतल किया गया. इसके बाद उसे स्टील की चादरों से ढक दिया गया. ये चादरें स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड से मंगाई गई थीं. पहली बार चार खाने वाली चादरों का इस्तेमाल किया गया, ताकि उस पर चलते वक्त फिसलन न हो. इन्हें बोल्टों से आपस में कस दिया गया था ताकि वे बिल्कुल सड़क की तरह समतल रहें.kumbh

भारद्वाज कहते हैं, ''हमने 156 किमी का रास्ता बनाने के लिए धातु की 75,000 चादरों का इस्तेमाल किया. इन चादरों का इस्तेमाल संगम के मुहाने पर, जहां शाही स्नान होता है, एक विशाल प्लेटफार्म बनाने के लिए भी किया है, ताकि अखाड़ों के मुखिया अपने रथों को वहां खड़ा कर सकें. ''

नदी के दोनों किनारों को जोडऩे के लिए 18 पंटून पुल बनाए गए थे, जिनमें से सबसे बड़ा पुल गंगोली और शिवाला के बीच बनाया गया था. यह 725 मीटर के दायरे को कवर करता था. भारद्वाज कहते हैं, ''पंटून पुलों का निर्माण कुंभ और हमारे करियर के लिए भी सबसे बड़ी चुनौती था. यह कतई आसान नहीं था. इसमें काफी श्रम और वक्त लगना था. '' इसकी सफलता के लिए वे 130 इंजीनियरों की टीम को भी श्रेय देते हैं.

हर पुल के निर्माण में धातु के पंटूनों का इस्तेमाल किया गया था. ये पंटून 10 मीटर चौड़े और 2.7 मीटर व्यास के थे. प्रत्येक पंटून का वजन छह टन था. नदी के दोनों किनारों के बीच पंटून बिछाने के बाद उन्हें आपस में फंसने वाले स्लीपरों से ढक दिया गया था, ताकि लकड़ी का डेक बनाया जा सके. इस डेक को घास-फूस, मिट्टी, रेत और फिर चार खाने वाले स्टील की प्लेटों से ढक दिया गया था ताकि एक ही समय में वह कई वाहनों का भार सह सके.

भारद्वाज कहते हैं, ''हमारी टेस्टिंग से पता चला कि ये पंटून पुल 10 टन तक का वजन सह सकते थे, लेकिन सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए हमने 5 टन की सीमा तय कर दी थी. ''

आखिरी चरण में पुलों को किनारों से जोड़ दिया गया और किनारों पर रेत के बोरे लगा दिए गए. इसके बाद 9 दिसंबर, 2012 को इनके प्रयोग की इजाजत दे दी गई. सभी पुलों के निर्माण के लिए कुल 1,537 पंटून की जरूरत पड़ी थी. इसके लिए 988 पंटून पीडब्लूडी के गोदाम से लिए गए, 437 पंटून खास तौर से कुंभ के लिए बनाए गए और 112 पंटून बाजार से लिए गए. इसके निर्माण में हर रोज 12 घंटे काम करने वाले 100 मजदूरों की जरूरत पड़ी, जिन्होंने एक पुल बनाने में करीब 30 दिन का समय लिया. इस हिसाब से देखा जाए तो पुलों का नेटवर्क बनाने के लिए 6,48,000 श्रम घंटे लगे.

बुनियादी ढांचा तैयार होने के बाद अगला एजेंडा था यातायात सुनिश्चित करना और भीड़ का प्रबंधन. इस काम के लिए 53 वर्षीय वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक आर.के.एस. राठौर की देख-रेख में पुलिस ने सबसे बड़ी भूमिका निभाई. अयोध्या और अलीगढ़ जैसी संवेदनशील जगहों पर काम करने का अनुभव रखने वाले राठौर कुंभ को अब तक की नौकरी में सबसे बड़ी चुनौती मानते हैं.

13 पुलिस स्टेशन, 25,000 कर्मचारी और भीड़ पर नियंत्रण

राठौर के अधीन कुल 13 पुलिस स्टेशन हैं. उन्होंने अपने लिए 25,000 कर्मचारियों का स्टाफ कई राज्य और केंद्रीय बलों से मंगाया. वे कहते हैं, ''पहली बार हमने इलाहाबाद के आस-पास पार्किंग की बड़ी जगह बनाने का फैसला किया ताकि भीड़ से बचा जा सके. हमने इसके लिए 99 जगहें बनाईं, जहां 3,50,000 से ज्यादा कारें पार्क की जा सकती हैं.

पार्किंग की यह जगह 2001 के महाकुंभ के मुकाबले तीन गुना बड़ी है. जुलाई, 2012 में इस काम को हाथ में लेने के बाद राठौर को अपने कुल स्टाफ का 10 फीसदी हिस्सा 15 अक्ïतूबर को मिल गया था. अगला 30 फीसदी का बैच उन्हें 15 नवंबर को और शेष 60 फीसदी कुंभ शुरू होने से एक महीना पहले मिला.

जनता को संभालना अलग बात है और 60,000 साधुओं को नियंत्रित करना एकदम अलग चीज है. राठौर कहते हैं, ''वे एकदम अलग किस्म के लोग होते हैं और तरह-तरह की कठिनाइयों से गुजरते हैं, इसलिए उनमें एक तरह का जोश भरा होता है. वे कुंभ को अपना त्यौहार मानते हैं, इसलिए उन्हें विशेष सम्मान देना जरूरी होता है. '' पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी अखाड़ों का मुआयना करते हैं और  हर शिविर में जाकर साधुओं की सुख-सुविधाओं का ध्यान रखते हैं.

कुंभ में हर तरह के साधु मौजूद हैं. जापान की योगमाता कीको आइकावा हैं, जो परम समाधि का अनुभव करने के लिए जानी जाती हैं. स्वामी नित्यानंद और आसाराम बापू जैसे विवादित लोग भी हैं. स्वामी नरेंद्राचार्य हैं, जिनके बड़े-बड़े होर्डिंगों में दावा किया गया है कि परिवार नियोजन के कारण हिंदू धर्म खतरे में है. तांत्रिक कापालिक बाबा हैं, जो सेक्टर-9 के एक कोने में बने छोटे से टेंट में काला वस्त्र पहने बैठे रहते हैं. वे विश्व शांति और ग्लोबल वार्मिंग जैसे विषयों पर दिल खोलकर बात करते हैं.

कुंभ प्रशासन की ओर से बहुत ऊंची आवाज में परिजनों के खोने और मिलने की घोषणाएं लगातार होती रहती हैं, जो शिविरों में होने वाले भजनों की गूंज को भी दबा देती हैं. इन घोषणाओं में लोगों से कहा जाता है कि वे अपने परिवार के सदस्यों को संगम पर बने एक बड़े से लाल टॉवर से प्राप्त कर लें.

यहां ढेरों लोग अपनी पत्नियों से बिछड़ जाते हैं, माताएं अपने बच्चों से बिछड़ जाती हैं और युवा अपने बूढ़े माता-पिता से बिछड़ गए होते हैं. ये लोग देश के हर कोने से आते हैं और कुछ तो विदेशों से भी आते हैं. ललितपुर से 29 वर्षीय अंशुमान सिंह, जो खास तौर से बताते हैं कि वे एक क्षत्रिय हैं, बिहार के सहरसा से गंगा प्रसाद शाह हैं, जो एक सरकारी शिविर में रात बिता रहे हैं. एक स्थानीय गाइड भी हैं जो फ्रांसीसी यात्रियों को ढूंढ रहा है.

कुंभ जिले में छोटी-छोटी असुविधाओं के बावजूद सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा है. लेकिन इस नगरी से बाहर निकलने के बाद ही शहर के प्रशासन की कलई खुल जाती है, जिसकी वजह से 10 फरवरी को भगदड़ हुई और लोगों की जान गई. और इसके साथ ही असल दुनिया की भयावह सचाई भी हमारे सामने खुलकर आ जाती है.

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