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धर्म संसद: संत, संघ और मोदी की सियासत

धर्म संसद में संघ प्रमुख ने नाम लिए बगैर प्रधानमंत्री पद के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री का किया समर्थन, बीजेपी और वीएचपी ने मंदिर का राग अलापा.

अपडेटेड 18 फ़रवरी , 2013

लहराता भगवा. भगवा पहने आठ हजार संत. और आवाज सिर्फ राम मंदिर की. इलाहाबाद में संगम स्थल पर महाकुंभ का यह नजारा सिर्फ संतों का हो, ऐसा भी नहीं है. इसमें संतों के साथ-साथ सियासत और संघ परिवार का ऐसा घोल है, जो 24 बरस बाद नजर आ रहा है. 1989 में कुछ इसी तरह केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल ने उस समय वी.पी. सिंह सरकार को चार महीने का वक्त दिया था और उसके बाद कार सेवा का जो खेल बाबरी मस्जिद को ढहाने के साथ खत्म हुआ, उसका नजारा समूची दुनिया ने देखा. इस बार बाबरी मस्जिद नहीं है लेकिन संत, संघ परिवार और सियासत का संगम कुछ उसी तरह है. संत राम मंदिर को लेकर संस्कृति का सवाल उठा रहे हैं.

संघ परिवार राम मंदिर में देश की अस्मिता को तलाश रहा है. और बीजेपी सियासत के लिए उस भगवा जमीन को तलाश रही है, जहां पर खड़े होकर 2014 के लिए सत्तासीन होने का रास्ता निकल आए. यानी रास्ते की तलाश तीनों को है. लेकिन यह रास्ता सिर्फ मिशन 2014 के लिए हो या मिशन 2014 को भी अपने रास्ते का एक पड़ाव भर मान ले, अंतर्विरोध इसका भी है.

धर्म संसद में पहली बार सरसंघचालक मोहन भागवत ने संकेत में ही नरेंद्र मोदी को भी नायक बताया और उन्हें हिंदुत्व की जमीन पर खड़ा कर मंदिर बनवाने वालों के हाथ सत्ता सौंपने के ख्वाब भी दिखा दिए. उन्होंने कहा, “जो मंदिर बनाएगा, सत्ता उसी को मिलेगी. सत्ता में वही रहेगा, जो मंदिर बनाएगा.” यानी सवाल अब यह नहीं है कि बीजेपी के भीतर मचे घमासान से संघ को जूझना है. सवाल यह है कि बीजेपी अब संघ को अपनी सियासत तले उलझती है या अपनी सियासत को संघ की हथेली पर रख देती है.brand modi

जिस वक्त बीजेपी अध्यक्ष संगम में डुबकी लगाकर संतों के बीच राम मंदिर का अविरल पाठ पढ़ रहे थे, उसी वक्त बीजेपी के सबसे लोकप्रिय नेता नरेंद्र मोदी दिल्ली में युवाओं को विकास का पाठ पढ़ा रहे थे. जब विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) के संरक्षक अध्यक्ष अशोक सिंघल मोदी की तुलना नेहरू से कर रहे थे, उसके कार्यकारी अध्यक्ष प्रवीण तोगडिय़ा मोदी को लेकर संतों के बीच एक ऐसी लक्ष्मण रेखा खींच रहे थे, जहां कोई यह नाम तक न ले.

उधर दिल्ली में मोदी छह करोड़ गुजरातियों के विकास की दुहाई दे रहे थे, तभी मार्गदर्शक मंडल में तोगडिय़ा 15 करोड़ युवाओं को राम मंदिर आंदोलन से जोडऩे का आह्वान कर रहे थे. ऐसे दोराहे बीजेपी की जरूरत हैं या संघ की रणनीति का हिस्सा, समझना इसे भी जरूरी है. राजनाथ अगर राम मंदिर का जाप करते हैं और मोदी विकास का सवाल खड़ा कर युवाओं को चेताते हैं कि वे वोट बैंक की सियासत में न फंसें तो फिर हिंदुत्व या राम मंदिर का मुद्दा इस बार इतना सरल नहीं है.

राजनाथ संतों और संघ से आशीर्वाद लेने संगम पहुंचे. लेकिन मौजूदा हालात में सियासत करते मोदी अकेले स्वयंसेवक हैं जो संघ के प्रचारक हैं. और संघ परिवार में पहली बार इस सच को लेकर खुशी है कि उनका एक प्रचारक देश के तमाम राजनेताओं पर न सिर्फ सियासी तौर पर भारी है, बल्कि जन-लोकप्रियता के मापदंड पर भी खरा उतरा है. मोदी की तरह प्रचारकों की फेहरिस्त में न तो अटल बिहारी वाजपेयी रहे और न ही लालकृष्ण आडवाणी.

फिलहाल संघ के प्रचारकों की फेहरिस्त को राजनैतिक तौर पर देखें तो सिर्फ तीन नाम ही जेहन में आएंगेः के.एन. गोविंदाचार्य, मदनदास देवी और सुरेश सोनी. ये तीनों नाम कैसे सिर्फ संघ परिवार के भीतर ही लोकप्रिय हैं या फिर संघ-बीजेपी के रिश्तों की अनकही कहानी के बीच ही सियासी चैसर बिछाते रहे हैं, यह किसी से छुपा नहीं है. वजह यही है कि संघ ही नहीं, संत भी यह मानते हैं कि राजनेताओं की फेहरिस्त में कोई उनके दिल के सबसे करीब है तो वे मोदी ही हैं.

यही वजह है कि किसी धर्म संसद में संतों ने पहली बार किसी नेता का नाम लिया कि उसे प्रधानमंत्री पद पर बिठाया जाना चाहिए. संतों ने यह आवाज कभी वाजपेयी या आडवाणी को लेकर नहीं उठाई. लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि मोदी के तौर-तरीकों से कोई और नहीं बल्कि गुजरात में वीएचपी ही परेशान रही, जिसे अब आने वाले वक्त में मंदिर आंदोलन की अगुआई करनी पड़ सकती है. 

तो पहला बड़ा सवाल यही है कि मोदी हिंदुत्व या राम मंदिर का राग छोड़ विकास के जिस रास्ते पर अपनी नई छवि बनाने निकल पड़े हैं, वह मौजूदा राजनैतिक सत्ता समीकरण के लिए है या फिर पहली बार संघ परिवार इस सच को समझ रहा है कि हिंदुत्व के सोच को सिर्फ मंदिर तक अटकाने का मतलब है सत्ता तक पहुंचने के बाकी कई रास्तों को बंद करना. दूसरा सवाल यहीं से शुरू होता है कि हिंदुत्व को आतंक से जोड़कर जो परिभाषा सरकार गढऩा चाह रही है, उसका दाग राजतिलक के रूप में बदल जाए, यह बीजेपी और संघ परिवार की दूसरी रणनीति तो नहीं है.

चाहे 340 प्रतिनिधियों की केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल की बैठक हो या सात हजार से ज्यादा संतों का धर्म सम्मेलन, उसमें हिंदू आतंकवाद के मुद्दे को उठाया ही इस तरह गया, जिससे हर संत और स्वयंसेवक को यह लगे कि उसके खामोश रहने या भविष्य में खड़े होने वाले आंदोलन से न जुडऩे पर संकट उसके अपने अस्तित्व पर आएगा. इसीलिए वीएचपी राम मंदिर आंदोलन की जो रूपरेखा बिछाना चाह रही है, उसे बीजेपी ने खुली सहमति दी है. और आंदोलन को वोट बैंक सियासत से जोडऩे का हथियार बनाने की दिशा में भी ठोस पहल हो रही है.

यह अपने आप में एक नायाब राजनैतिक सोच है कि वीएचपी की अगुआई में देशभर के संत अपने-अपने क्षेत्र में 18 से 30 बरस तक के युवाओं को गंगा जल से यह प्रण करवाकर राम मंदिर बनवाने के आंदोलन से जोड़ेंगे कि 2014 के चुनाव में वे अपना वोट जरूर डालें. और इनकी तादाद 15 करोड़ होगी. यह बहुत ही असंभव-सा प्रण है लेकिन वीएचपी धर्म संसद के जरिए जो बात कर रही है, उसके संकेत साफ हैं कि बीजेपी चाहकर भी राम मंदिर मुद्दे से नहीं बच सकती और उसके साथ खड़े सहयोगी राजनैतिक दल चाहते हुए भी सॉफ्ट हिंदुत्व से अपना पिंड नहीं छुड़ा सकते.

यह मुश्किल कांग्रेस के सामने भी होगी. इसलिए सिलसिलेवार तरीके से अगर राम मंदिर को लेकर खड़े होने वाले आंदोलन के अक्स में वोट बैक की सियासत को ही परखें तो 2009 में बीजेपी को सिर्फ साढ़े आठ करोड़ से कुछ ज्यादा वोट मिले थे. जबकि सत्ता में बैठी कांग्रेस को साढ़े ग्यारह करोड़ वोट मिले थे. ऐसे में अगर धर्म संसद के आह्वान के बाद वाकई देश में बीजेपी की शिरकत के बगैर भी आंदोलन शुरू हो जाता है तो उन करोड़ों युवाओं के मानस को समझना होगा जिनका जन्म अयोध्या आंदोलन के वक्त नहीं हुआ था.

दरअसल, बीजेपी ही नहीं, समूचे संघ परिवार के सामने भी यही सवाल सबसे बड़ा है कि न सिर्फ वोट बैंक के लिहाज से बल्कि आंदोलन को ऊर्जावान बनाने के लिए भी जो पीढ़ी मौजूद है, उसने अयोध्या आंदोलन के बारे में अपने जन्म के बाद सिर्फ सुना है. और जो सुना है, वह देश की धर्मनिरपेक्षता में सेंध लगाता है. ऐसे में वह युवा मन कैसे इन्हीं सिंघल और तोगडिय़ा के साथ खड़ा हो जाएगा जो ढाई दशक पहले भी यही राग अलाप रहे थे. और इसी के आसरे सत्ता पाने के बावजूद बीजेपी ने राम मंदिर के मुद्दे को ही ताक पर धर दिया. हालांकि बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने इस संवाददाता को दिए इंटरव्यू में तीन तथ्य साफगोई से रखे.

पहला जब तक बीजेपी को अपने बूते बहुमत नहीं मिलता, तब तक वह राम मंदिर का निर्माण कैसे कर सकती है. दूसरा राम मंदिर को भुलाकर बीजेपी कैसे अपने अस्तित्व को बनाए रख सकती है. और तीसरा हिंदुत्व ही वह धारा है, जिसके सहारे विकास की बात हो सकती है. यानी मोदी के विकास से लेकर संघ परिवार के राम मंदिर को एक छतरी तले लाने में ही राजनाथ अपनी उपयोगिता देख रहे हैं.

लेकिन यहीं से दिल्ली और धर्म संसद के तीन सवाल भी निकलते हैं. पहला वीएचपी की मुश्किल यह है कि ’90 के दौर को दोबारा जीने जैसी ताकत उसके पास नहीं है. दूसरा, बीजेपी का अंतर्विरोध कि वह अपने बूते सत्ता में नहीं आ सकती और सहयोगियों के तालमेल के साथ मौजूदा दौर में उनके पास कांग्रेस की अर्थनीति का विकल्प नहीं है. और तीसरा संघ परिवार के मुखिया भागवत जिस राम मंदिर को अपना मिशन माने हुए हैं, वह तब तक संभव नहीं है, जब तक आरएसएस की बेसिक सोच के साथ उसके अपने तीन दर्जन संगठन और बीजेपी एक साथ सदा वत्सले न कहने लगें.

संघ की तरफ से तो इसकी शुरुआत भागवत ने अरसे बाद खुद वीएचपी के कुंभ में लगे शामियाने में जा कर की. 7 फरवरी को धर्म संसद और संत महासम्मलेन के शुरू होने से पांच घंटे पहले वीएचपी कैंप में जाकर और राम मंदिर अभियान पर अपना ठप्पा लगा कर भागवत ने पहले ही संकेत दे दिया कि आने वाले वक्त में मंदिर को लेकर अगुआई वीएचपी को करनी है लेकिन इस मुद्दे के सहारे परिवार को एकजुट करना उनका पहला मकसद भी है. इसका असर यही हुआ कि राजकोट से आए महामंडलेश्वर स्वामी वैष्णवदास हों या महाराष्ट्र से आए महामंडलेश्वर स्वामी भगवंता नंदगिरि या बद्रीनाथ से आए स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती—सभी ने अपने भाषण में एक स्वर में हिंदुत्व के आसरे सियासत थामने और पाने का मंत्र भी दिया.

संघ परिवार के भीतर मोदी को लेकर तीन धारणाएं साफ हैं. गुजरात में जो काम सोमनाथ मंदिर को लेकर खामोशी से एक वक्त सरदार पटेल ने कर दिया. वह काम उत्तर प्रदेश में अयोध्या को लेकर कोई कर नहीं पाया है और मौजूदा हालात में गुजराती मोदी ही अयोध्या को संघ परिवार के मकसद तक पहुंचा सकते हैं.

संघ परिवार मोदी को कांग्रेस के उस आर्थिक ढांचे में भी सेंध लगाने में सफल मानता है, जिसे मनमोहन सिंह ने खड़ा किया है. और तीसरा परिवार को आतंक से जोडऩे के कांग्रेसी दावे की हवा निकालने में मोदी को सफल मानता है. यानी सामाजिक तौर पर राम मंदिर-हिंदुत्व संघ परिवार को जोड़े और राजनैतिक तौर पर मोदी के जरिए बीजेपी को एकजुट किया जाए.

धर्म संसद से इतर संगम में पहुंचे करोड़ों लोगों की अनुगूंज ने कुछ ऐसे सवालों को भी जन्म दिया, जिसका जवाब न संघ परिवार के पास है और न बीजेपी के पास. न ही वीएचपी अपने भविष्य के आंदोलन के जरिए इनका जवाब दे पाएगी. मसलन 1984 में दिल्ली में हुई पहली धर्म संसद से लेकर अब तक की हर धर्म संसद में वही धर्म संसद सफल रही जो सियासत को धमकाते हुए चुनावी समीकरण बनाने या बिगाडऩे की स्थिति में हो. इसलिए वी.पी. सिंह सरकार को चार महीने का अल्टीमेटम देकर 1989 में कार सेवा को परवान चढ़ाने वाले 2013 में पस्त नजर आ रहे हैं.

और नई पीढ़ी के संतों के सामने भी नए सवाल हैं. उन्हें मंदिर से ज्यादा हिंदुत्व का मतलब शिक्षा-दीक्षा से लेकर गंगा सफाई और संस्कृति को सहेजने में समझ आता है. मसलन, महाकुंभ में जिस रसिया बाबा के प्रांगण में केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल ने राम मंदिर पर मुहर लगाई, उन्हीं रसिया बाबा की उम्र 1992 में सिर्फ 27 बरस थी. और अगर वे खुद को बतौर कार सेवक 1992 में देख रहे थे तो 2013 में उन्हें लगता है कि पहली जरूरत तो हिंदुत्व के रास्ते को ही बचाना है. वे स्कूल खोलकर नई पीढ़ी को कर्मकांडी बनाना चाहते हैं ताकि हिंदुत्व के नाम पर कम से कम धंधा तो बंद न हो जाए. रसिया बाबा अकेले नहीं हैं. संतों में सैकड़ों की कतार है जो 1992 में कार सेवक थे और 2013 में राम मंदिर निर्माण के लिए उन्हें कार सेवक चाहिए.

चेहरा वीएचपी का भी बदला है. ’90 के दशक में वीएचपी संगठन को मजबूत करने को महत्वपूर्ण मानती थी. 2013 में संगठन के बदले पद पाने की ललक नए वीएचपी कार्यकताओं में बढ़ी है. इसी तर्ज पर महाकुंभ के भीतर संतों के समागम से ज्यादा भक्ति करोड़ों लोगों में सिर्फ मैली होती गंगा में डुबकी लगाकर हिंदू संस्कृति से ओत-प्रोत होने वाली ही रही.

यानी 12 किमी लंबे और 6 किमी चैड़े महाकुंभ के बीच सिर्फ आधे किमी से भी कम रास्ते में समूची धर्म संसद सिमटी रही और संत यह भी तय नहीं कर पाए कि जिस गंगा के आसरे वे हिंदुत्व की पोटली बांध कर एकजुट हुए, उस गंगा पर भी एक प्रस्ताव ले आते कि यह नदी साफ हो और उसमें पानी तो बचे.

शायद इसीलिए गुजरात के वैष्णवदास जी महराज के प्रांगण में (धर्म संसद की बैठक के ठीक सामने वाला प्रांगण) अहमदाबाद से आई 90 बरस की बुजुर्ग मालती देवी ने मोदी का नाम लेने पर इतना ही कहा, “महाकुंभ है, गंगा में पानी नहीं है. मोदी होंगे तो पानी भी आ जाएगा और गंगा का रंग भी चोखा हो जाएगा.”

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