इलाहाबाद में संगम की रेती पर बसी कुंभ नगरी में त्रिवेणी मार्ग से प्रवेश करते ही आप अखाड़ों की दुनिया में पहुंच जाते हैं. इसी मार्ग पर आधा किमी चलने के बाद एक लाख वर्ग फुट जगह में बसा संन्यासिनी अखाड़ा अखाड़ों के टूटते पुरुष वर्चस्व की ओर इशारा कर रहा है. यहां की अध्यक्ष महंत देव्यागिरि साथी संन्यासिनों के साथ लगातार बातचीत में व्यस्त हैं ताकि जल्द-से-जल्द महिला अखाड़े के नियम-कायदों को अंतिम रूप दिया जा सके. कुंभ के अब तक के इतिहास में यह पहला मौका है जब महिला संन्यासियों को एक अलग अखाड़े के रूप में जगह दी गई है.
महाकुंभ में अब तक साधु-संन्यासियों के कुल 13 अखाड़े भाग लेते आ रहे हैं. ये हैं शिव संन्यासी संप्रदाय का श्रीपंचायती अखाड़ा महानिर्वाणी, श्रीपंच अटल अखाड़ा, श्रीपंचायती अखाड़ा निरंजनी, श्रीतपोनिधि आनंद अखाड़ा पंचायती, श्रीपंचदशनाम जूना अखाड़ा, श्रीपंचदशनाम आह्वड्ढान अखाड़ा और श्रीपंचदशनाम पंच अग्नि अखाड़ा.
इसके अलावा बैरागी वैष्णव संप्रदाय के तीन अखाड़े श्रीदिगंबर अनी अखाड़ा, श्रीनिर्वाणी अनी अखाड़ा, श्रीपंच निर्मोही अनी अखाड़ा और उदासीन संप्रदाय के श्रीपंचायती बड़ा उदासीन अखाड़ा, श्रीपंचायती अखाड़ा नया उदासीन और श्रीनिर्मल पंचायती अखाड़ा संगम किनारे जुटे हैं.
दिल्ली गैंग रेप कांड के बाद देश में महिलाओं की समानता और उनकी सुरक्षा के लिए बने माहौल का असर कुंभ में शामिल होने आए अखाड़ों की गतिविधियों पर भी दिखा है. महाकुंभ नई परंपरा की नींव डाल रहा है. इसकी पहल नागा संन्यासियों के संख्या की दृष्टिड्ढ से अग्रणी जूना अखाड़े ने की. इस अखाड़े ने माई-बाड़ा कहे जाने वाले संन्यासिनियों के अपने समूह को एक स्वतंत्र पहचान दी. माई-बाड़ा एक अलग अखाड़ा बना और लखनऊ के श्रीमनकामेश्वर मंदिर की प्रमुख महंत देव्यागिरि को इसका अध्यक्ष बनाया गया. 10,000 से अधिक महिला साधु-संतों वाले इस अखाड़े की मांग पिछले कुंभ से ही चली आ रही थी.
बीते कुंभ तक जूना अखाड़े के पंडाल के भीतर ही एक छोटी-सी जगह में माई-बाड़ा अपनी गतिविधियां संचालित करता था. माई-बाड़ा की न तो कोई अलग पहचान थी, न ही अलग धर्मध्वजा थी. उनकी सारी गतिविधियां जूना अखाड़े में ही सम्मिलित थीं. पिछले 10 से 15 वर्षों के दौरान संन्यासिनियों की संख्या में लगातार तेजी से बढ़ोतरी हुई और यह 10,000 का आंकड़ा पार कर गई. समाज में संन्यासिनियों को मिल रहे समर्थन ने उनके लिए अलग अखाड़े की मांग पर भी जोर दिया.
महिला संतों की मांग रंग लाई और इस बार महाकुंभ में इनका सपना साकार हुआ. गेरुआ वस्त्र और पुरुषों की भांति जनेऊ पहने संन्यासिनी अखाड़े की अध्यक्ष महंत देव्यागिरि बताती हैं, “महिला संतों को माई-बाड़ा नाम पर आपत्ति थी क्योंकि इससे उनके अलग अस्तित्व का बोध नहीं होता था. इसीलिए यह नाम बदलकर दशनाम संन्यासिनी अखाड़ा कर दिया गया.” अलग पहचान के बाद अब वे अपना अलग विधान और एजेंडा लागू करने के प्रयास में जुटी हैं.
देव्यागिरि कहती हैं, “मेरा प्रयास है कि मौनी अमावस्या के स्नान से पहले अपना अलग संविधान तैयार कर लिया जाए. यह संविधान संन्यासिनियों को अपनी रक्षा और सम्मान का अधिकार प्रदान करेगा.”
महिलाओं को अखाड़ों में बराबरी का दर्जा देने की कवायद केवल संन्यासिनी अखाड़े के गठन तक ही सीमित नहीं रही. इस बार के महाकुंभ की एक खास बात यह भी है कि आयोजन के शुरू होने के बाद सबसे पहले पुरुष को नहीं, बल्कि एक महिला को किसी अखाड़े का महामंडलेश्वर बनाया गया. पंचायती अखाड़ा महानिर्वाणी ने महिला संत वेदगिरि को महामंडलेश्वर की उपाधि दी. संत वेदगिरि पंजाब के लुधियाना में आश्रम चलाती हैं. पिछले चार दशकों से धर्म और समाज की सेवा कर रहीं संत वेदगिरि के आश्रम में कई स्कूल और अस्पताल भी चलते हैं.
महानिर्वाणी अखाड़े में आयोजित एक समारोह में कई अखाड़ों के प्रतिनिधियों ने संत वेदगिरि को चादर ओढ़ाकर अपना समर्थन दिया. स्पष्ट है कि देश के साथ संत समाज में भी आधी आबादी की उपस्थिति बढ़ी है. पुरुष वर्चस्व वाले अखाड़ों में महिला महामंडलेश्वरों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है.
कुंभ में कई और अखाड़े भी संन्यासिनियों को महामंडलेश्वर की उपाधि देने की तैयारी कर रहे हैं. पंचायती अखाड़ा श्रीनिरंजनी भी इनमें से एक है. इस अखाड़े के एक महंत बताते हैं कि बिहार के रोहतास इलाके में ‘श्रीअद्वैतस्वरूप संन्यास आश्रम’ की अध्यक्ष साध्वी निर्भयानंद पुरी को जल्द ही महामंडलेश्वर की उपाधि दी जाएगी. उनकी सेवा, समर्पण और व्यक्तित्व को देखते हुए यह निर्णय लिया गया है.
पंचायती अखाड़ा श्रीनिरंजनी की अध्यक्ष महामंडलेश्वर आनंदमयी ने महिलाओं में शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलंबन, आत्मरक्षा और स्वरोजगार जैसे मुद्दे पर लोगों का ध्यान खींचने के लिए कुंभ नगरी में ‘वुमन पावर कैंप’ लगाने का निर्णय लिया है. महामंडलेश्वर कहती हैं, “यह कैंप अपने आप में अनोखा होगा, जिसमें हाइटेक तकनीक से महिलाओं को स्वावलंबन और आत्मरक्षा के गुर सिखाए जाएंगे.”
दुनिया के सबसे बड़े धार्मिक आयोजन के अखाड़ों में महिला संतों को अचानक महत्व मिलने को प्राचीन संस्कृति की पुनस्र्थापना के रूप में देखा जा रहा है. इलाहाबाद में सैम हिगिनबॉटम इंस्टीट्यूट ऑफ एग्रीकल्चर, टेक्नोलॉजी ऐंड साइंस (डीम्ड यूनिवर्सिटी) के प्रोफेसर और लंबे समय से अखाड़ों की गतिविधियों पर नजर रखने वाले प्रो. सी.के. शुक्ल कहते हैं, “प्राचीन भारतीय संस्कृति में महिला संतों को पुरुष संतों के बराबर अधिकार मिले थे. कई महिला संत तो पुरुषों से भी आगे थीं, लेकिन धीरे-धीरे इनका महत्व कम होता गया और इससे अखाड़े भी अछूते नहीं रहे. पिछले कुछ वर्षों में समाज में काफी बदलाव आया है.
महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने का प्रयास हो रहा है. ऐसे में साधु-संत भी महिला संतों को आगे ला रहे हैं.” आखिर समाज के उत्थान को लेकर इन संन्यासिनों का समर्पण, त्याग, निष्ठा और सोच कम नहीं है. अखाड़ों ने भले ही महिलाओं के लिए अपने दरवाजे खोले हों, लेकिन अभी लंबा सफर तय करना बाकी है.