दुनिया की सबसे युवा आबादी की सरजमीं भारत की पहचान है ऊर्जा, उद्यम और उत्साह. जहां छह में से एक आदमी का खुद का कारोबार है और कृषि तेजी से उड़ान भरता सेक्टर; जहां देश में बने सुपरकंप्यूटर्स मंगल की राह प्रशस्त कर रहे हैं; जहां समृद्धि शिक्षा में क्रांति का संचार कर रही है; जहां दुनिया एक छोटे से उपकरण के जरिये आपकी हथेली में सिमटकर रह गई है. एक ऐसा देश जहां विकास ही नया मंत्र है. जानें कि कैसे हमारा देश अपनी तकदीर को और बुलंद कर रहा है.
इसरो
रॉकेट साइंस में क्रांति
इतिहास में 27 नवंबर, 2013 के दिन को हमेशा याद किया जाएगा क्योंकि उस दिन भारत अपने अंतरिक्ष अभियान में एक बड़ा कदम उठाने जा रहा है. अगर सब कुछ योजना के मुताबिक चलता रहा, तो एक भारतीय सैटेलाइट मंगल ग्रह पर जीवन की खोज के लिए 300 दिन के सफर पर निकलेगा. यह अभियान सफल रहा तो अंतरिक्ष की खोज में सक्रिय देश भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की क्षमताओं का लोहा मानने को मजबूर हो जाएंगे. मंगल की कह्ना में पहुंचना आसान नहीं है. चांद तक पहुंचने के भारत के पहले अभियान चंद्रयान (अक्तूबर 2008 से अगस्त 2009) के लिए 4,00,000 किलोमीटर का सफर तय करना अगर कठिन था तो मंगल तक पहुंचने का अभियान कितना चुनौती भरा हो सकता है, वैज्ञानिकों को इसका एहसास है. पृथ्वी से इस लाल ग्रह की दूरी 5.5 करोड़ से 40 करोड़ किलोमीटर तक हो सकती है, जो दोनों ग्रहों की कक्षा पर निर्भर है. कई अन्य देश पहले से मंगल की खोज कर रहे हैं. इसरो के चेयरमैन के. राधाकृष्णन कहते हैं, ''अगर अमेरिका और रूस मंगल पर काफी काम कर चुके हैं, तो आपको भी अपनी मौजूदगी दर्ज करानी होगी. अगर दुनिया कल मंगल पर फैसले लेती है तो वहां भारत की मौजूदगी जरूरी है. अनुमानों पर गौर करें तो 2030 या “40 तक हम मंगल पर बस्ती बनाने में सफल हो सकते हैं.” मंगल अभियान की अनुमानित लागत 450 करोड़ रु. होने की उम्मीद है, जबकि नासा के क्यूरोसिटी मिशन पर 2.5 अरब डॉलर (13,000 करोड़ रु.) खर्च हुए थे, जो भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम का दोगुना है. इसरो ने मछुआरों की समस्याओं को भी हल किया है. इसरो के सैटेलाइट समुद्र के पानी की सतह का तापमान और पानी का रंग मालूम कर लेते हैं. हैदराबाद के इंडियन नेशनल सेंटर फॉर ओशन इन्फॉर्मेशन सर्विसेज में इस जानकारी का विश्लेषण होता है. मछलियों की मौजूदगी की जानकारी बंदरगाहों को भेज दी जाती है ताकि मछुआरों को इसका लाभ मिले. इसरो जलवायु परिवर्तन के अध्ययन और माइक्रोवेव रिमोट सेंसिंग में भी काम कर रहा है. राधाकृष्णन कहते हैं, ''हमारा विजन लोगों की मदद करने का है.” 1969 में इसरो की स्थापना के चार दशक बाद भी अंतरिक्ष कार्यक्रम का फोकस टस से मस नहीं हुआ है.
—गौतम दास
ड्रिप सिंचाई
बूंद-बूंद से आती समृद्धि
अन्य किसानों के विपरीत राजस्थान के कोटा जिले के किसानों के पास बड़े-बड़े खेत हैं. लेकिन वे अपनी जमीन का पूरी क्षमता से इस्तेमाल नहीं कर पाते. इसकी वजह पर्याप्त बारिश का नहीं होना है. लेकिन ड्रिप सिंचाई के चलते स्थिति तेजी से बेहतर हो रही है. कोटा शहर से 15 किलोमीटर दूर भदाना गांव के राजेश विजय ने दो साल पहले ही धान की खेती के लिए सिंचाई का यह तरीका अपनाकर परेशानी का हल निकाल लिया था. ड्रिप सिंचाई का तरीका दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी लघु सिंचाई कंपनी जैन इरीगेशन सिस्टम्स ने तैयार किया था. आज वे 4.8 हेक्टेयर जमीन में धान की खेती कर रहे हैं जबकि इससे पहले वे सिर्फ 2.8 हेक्टेयर (एक हेक्टेयर=2.47 एकड़) जमीन में ही धान की खेती करते थे. उनकी पानी और बिजली की खपत में भी 40 फीसदी की कमी आई है. इतना ही नहीं, फसल की पैदावार में भी 25 फीसदी का इजाफा हुआ है. इस तरह वे प्रत्येक फसल चक्र में प्रति एकड़ 6,000 रु. से ज्यादा कमा लेते हैं. इस समय भारत में अनाज का कुल उत्पादन करीब 24.7 करोड़ टन है. 2050 तक इसे 49.4 करोड़ टन अनाज की जरूरत होगी. इतना अधिक उत्पादन तब तक असंभव है, जब तक कि यहां के किसान सिंचाई के बेहतर तरीके नहीं अपनाते. तमाम फायदों के बावजूद ड्रिप सिंचाई को अपनाने की गति धीमी है. जैन इरीगेशन में रिसर्च ऐंड एक्सटेंशन के सीनियर वाइस प्रेजीडेंट पी. सोमन कहते हैं, ''भारत को अगर भविष्य में अपनी खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करनी है तो इस स्थिति को बदलना होगा.” इस समय छह राज्यों में 100 एकड़ से भी कम जमीन पर इसका इस्तेमाल हो रहा है. सोमन कहते हैं, ''धान या गेहूं की खेती में सरकार ड्रिप सिंचाई के लिए कोई सब्सिडी नहीं देती. इसके अलावा किसानों की रूढि़वादी सोच भी बड़ा रोड़ा है.” जिस दिन किसानों की मानसिकता बदलेगी, उस दिन यह देश में पानी और अनाज की समस्या के समाधान में क्रांतिकारी कदम साबित होगी. —एन. महादेवन
सड़क नेटवर्क
जुड़ते शहर-गांव-कस्बे
सड़कों के जाल ने आंध्र प्रदेश के पूर्वी गोदावरी जिले के मलिकीपुरम के 33 वर्षीय झींगा कारोबारी के. सूर्या सुब्बाराजू की जिंदगी बदल दी है. झींगा मछली काफी जल्दी खराब हो जाती है. ऐसे में इसके कारोबारियों के लिए बाजार तक पहुंचने में लगने वाला वक्त खासा महत्वपूर्ण होता है. सुब्बाराजू बताते हैं, ''हम इन्हें पश्चिमी गोदावरी से मंगवाकर पूर्वी गोदावरी में प्रोसेसिंग इकाइयों और निर्यातकों के केंद्र काकीनाडा भेजते हैं. अब हम पहले से 10 गुना ज्यादा भेज पा रहे हैं.” फर्क यह पड़ा है कि गोदावरी नदी के ऊपर बने चिंचिनाडा पुल से यह दूरी 30 किमी कम हो गई है. आंध्र प्रदेश के कुल झींगा उत्पादन में पूर्वी और पश्चिमी गोदावरी जिले की हिस्सेदारी 60 फीसदी है. सड़कों की वजह से सुब्बाराजू की निजी जिंदगी में भी बदलाव आया है. इस क्षेत्र में पिछले दस साल में तीन प्रमुख पुल बने हैं. आजादी के बाद से अब तक देश में राष्ट्रीय राजमार्गों की ही लंबाई तिगुनी हो गई है. इनकी लंबाई 1947 में 23,000 किमी थी, जो अब बढ़ कर 70,000 किमी हो गई है. भारत में प्राइसवाटरहाउसकूपर्स के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर और हेड ऑफ इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रैक्टिस मनीष अग्रवाल कहते हैं, ''इस काम में 1997 से तेजी आई, जब सरकार ने इस क्षेत्र पर जोर देना शुरू किया. उस समय राष्ट्रीय राजमार्गों की लंबाई 34,000 किमी थी.” लेकिन आज इस क्षेत्र में अलग तरह की निष्क्रियता दिख रही है. सड़क निर्माण कंपनियों को उम्मीद नहीं है कि सरकार इस साल के लक्ष्यों को हासिल कर सकेगी. अग्रवाल कहते हैं, ''भूमि अधिग्रहण, प्रक्रिया संबंधी देरी और स्वीकृति संबंधी मसलों की वजह से इस साल लक्ष्य से काफी कम सड़कें बनने के आसार हैं.” अन्य का मानना है कि लेबर और पेट्रोकेमिकल तथा डीजल की कीमतों में वृद्धि की वजह से निर्माण कंपनियां सड़क प्रोजेक्ट्स में कम रुचि दिखा रही हैं. फिर भी देश पहले से ज्यादा जुड़ा हुआ महसूस कर रहा है. —ई. कुमार शर्मा
दमदार महिलाएं
छूना है आकाश
एक्सिस बैंक की चीफ मार्केटिंग ऑफिसर मनीषा लाठ गुप्ता कहती हैं, ''मेरे पति ने दो साल के लिए काम से छुट्टी ले ली. इस दौरान सारे खर्चे मैं चलाती रही. लोग मुझसे अक्सर पूछते, ''तुम काम करो और पति घर में बैठा रहे, यह कैसे हो सकता है?” गुप्ता को इन सवालों से कोई फर्क नहीं पड़ता. वे देश के वर्कप्लेस को लेकर बदलती हुई मानसिकता का प्रतिनिधित्व करती हैं. इसमें कोई शक नहीं कि काम की जगह पर पुरुषों के बराबर खड़े होने में महिलाओं को अब भी कुछ दूरी तय करनी है. वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम जेंडर गैप इंडेक्स दिखाता है कि भारत की सिर्फ पांच फीसदी कामकाजी महिलाएं नेतृत्व के स्तर पर यानी वरिष्ठ पदों पर पहुंच सकी हैं जबकि वैश्विक रूप से यह आंकड़ा 20 फीसदी है. 135 देशों की सूची में भारत 113वें स्थान पर आता है. इसमें कोई शक नहीं कि पहले से ज्यादा महिलाएं आज भारत के कारोबारी जगत में मौजूद हैं. अग्रणी चेहरों में आइसीआइसीआइ बैंक की मैनेजिंग डायरेक्टर और सीईओ चंदा कोचर, मॉर्गन चेज़ की सीईओ कल्पना मोरपारिया, बायोकॉन की चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर किरण मजूमदार शॉ शामिल हैं. इन्हीं के नक्शे कदम पर महिलाओं की एक नई पीढ़ी भी आगे आई है, जिनमें केलॉग्स इंडिया की एमडी संगीता पेंडुरकर और फेसबुक इंडिया की प्रमुख कीर्तिका रेड्डी हैं. वर्ल्ड बैंक की सालाना विकास रिपोर्ट कहती है कि भारत की ग्राम पंचायतों में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण ने गांवों में पानी, स्कूल और सेनिटेशन को बेहतर बनाया है. भ्रष्टाचार भी घटा है. इस पर शॉ कहती हैं, ''महिलाएं ही संभवत: सामाजिक उद्यमों को नेतृत्व देंगी और सामाजिक बदलाव का माध्यम बनेंगी.” —श्वेता पुंज
भारतीय एमएनसी
दुनिया जीतने का मौसम
साल 2010 की रिपोर्ट में प्राइसवाटरहाउसकूपर्स ने भविष्यवाणी की थी कि 2018 तक भारत हर साल चीन के मुकाबले ज्यादा बहुराष्ट्रीय कंपनियां तैयार करेगा. 2024 तक चीन के मुकाबले भारत के पास 20 फीसदी से ज्यादा बहुराष्ट्रीय कंपनियां होंगी. भले ही यह चौंकाने वाली बात लगे, लेकिन इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है. भारतीय कंपनियां अब विदेशों में अपने पैर पसारना चाहती हैं. भले ही यहां हर साल सीमित मात्रा में एफडीआइ आ रहा हो. उदाहरण के लिए 2010 में भारतीय कंपनियों ने विदेशों में कंपनियां खरीदने या उनमें हिस्सेदारी लेने के लिए 22 अरब डॉलर का निवेश किया. अमेरिका की प्रोफेशनल सर्विसिंग कंपनी डेलॉयट टच तोहमत्सु लिमिटेड के टिमोथी हैनले कहते हैं, ''कंपनियां वहां जाती हैं, जहां उन्हें ग्राहक मिलते हैं.” उनका कहना है कि भारतीय कंपनियों को चीन के मुकाबले ज्यादा आसानी होती है क्योंकि चीन की कंपनियां ज्यादातर सरकारी होती हैं और उनका जोर घरेलू बाजार पर होता है. विदेश में कंपनियां खरीदने या हिस्सेदारी लेने वाली कम-से-कम 2,000 भारतीय कंपनियों का अध्ययन कर चुके अहमदाबाद के सरदार पटेल इंस्टीट्यूट ऑफ इकोनॉमिक ऐंड सोशल रिसर्च में प्रोफेसर जयप्रकाश प्रधान कहते हैं, ''भारतीय विदेश में कंपनियां इसलिए खरीदते हैं जिससे वे भारत से निर्यात कर सकें. खासकर दवा जैसे क्षेत्रों में.” जाहिर है, भारतीय कंपनियों के लिए विदेश में शॉपिंग करना फायदे का सौदा है.
—सुमन लायक
सूचना का अधिकार कानून
कारगर हथियार
सुभाष चंद्र अग्रवाल पुरानी दिल्ली की संकरी गलियों में कपड़े का कारोबार चलाते हैं. जितना वक्त वे कपड़े के थान की डिलीवरी-ऑर्डर में लगाते हैं, उससे कहीं ज्यादा सूचना का अधिकार कानून, 2005 का इस्तेमाल करके बंद फाइलों पर से धूल हटाने में लगाते हैं. उनके शुरुआती करीब 6,000 आवेदनों को मीडिया में काफी कवरेज मिली है. मसलन, उन्होंने 2010 में सुप्रीम कोर्ट और हाइकोर्ट के जजों की संपत्ति का ब्योरा सार्वजनिक करवाने में कामयाबी हासिल की. यह कानून छात्रों में भी काफी लोकप्रिय है. वे विभिन्न कारणों से इसका इस्तेमाल करते हैं. मसलन, दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से पोस्ट ग्रेजुएशन कर रहे 24 वर्षीय परमहंस कोलागनी ने यह पता लगाने के लिए इसका इस्तेमाल किया कि उनका पासपोर्ट क्यों अटका हुआ है. मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज से सोशल वर्क में पोस्ट ग्रेजुएट श्रुति पारिजा ने झारखंड के रांची में एक पॉवर प्रोजेक्ट से विस्थापित होने वाले ग्रामीणों के पुनर्वास का पता लगाने के लिए आरटीआइ का इस्तेमाल किया. वे कहती हैं, ''देश में बदलाव लाने का यही एक तरीका है.” जानकारों का मानना है कि जिन 93 देशों में सूचना का अधिकार कानून है, उनमें भारत का कानून सर्वाधिक मजबूत कानूनों में से एक है. इसके तहत 2007-08 में दो लाख आवेदन किए गए थे, जो 2010-11 में पांच लाख पहुंच गए हैं. इसी अवधि में खारिज हुए आवेदनों में गिरावट आई है और यह नौ फीसदी से 5.41 फीसदी पर आ गए हैं. कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनीशिएटिव में आरटीआइ प्रोग्राम के कोऑर्डिनेटर वेंकटेश नायक कहते हैं कि इस कानून ने लोगों को ताकत दी है.
—मानसी मिथेल
मोबाइल इंटरनेट
दुनिया तेरी मुट्टी में
एक सौ बीस करोड़ लोगों की इस मध्यवर्गीय अर्थव्यवस्था में कई विरोधाभास हैं. इनमें से एक है देश में पर्सनल कंप्यूटर और इंटरनेट कनेक्टिविटी की कम पहुंच. यहां महज चार करोड़ लोगों के पास पर्सनल कंप्यूटर हैं. लगभग 10 करोड़ इंटरनेट उपभोक्ता हैं और 1.5 करोड़ से भी कम लोगों के पास ब्रॉडबैंड इंटरनेट (केवल 512 केबीपीएस की स्पीड के आधार पर) है. 22 वर्षीय सुमित से बात करें तो पता चलता है कि स्थिति किस तरह बदलने वाली है. पॉश कॉलोनी वसंत विहार के पास स्थित नई दिल्ली की सबसे बड़ी झुग्गी बस्ती में रहने वाला सुमित अपने पड़ोसियों की इंटरनेट की हर जरूरत पूरी करता है. पार्ट टाइम ड्राइवर के तौर पर काम करने वाला सुमित कहता है, ''मैं यह काम जेब खर्च के लिए करता हूं.” वह इसके लिए 3.2 इंच चौड़े स्क्रीन वाले नोकिया म्युजिक एक्सप्रेस 5,800 फोन का इस्तेमाल करता है. इंटरनेट चलाने के लिए वह इस फोन के 2जी कनेक्शन पर हर हफ्ते 49 रु. खर्च करता है. अपनी टूटी-फूटी अंग्रेजी में वह कहता है, ''मैं इंटरनेट का इस्तेमाल तस्वीरें, वीडियो, गाने वगैरह दूसरों को भेजने, फेसबुक और चैटिंग के लिए करता हूं मैं आसपास रहने वाले कम पढ़े-लिखे परिवारों को जीमेल, यू-ट्यूब वगैरह के इस्तेमाल और कीमतों का पता लगाने के लिए इंटरनेट उपलब्ध कराता हूं.”
भारत के दूरसंचार नियामक ट्राइ के अनुमानों के मुताबिक मोबाइल फोन के जरिए इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले सुमित जैसे लोगों की संख्या 46 करोड़ है. यह संख्या बढ़ी-चढ़ी लग रही है, क्योंकि भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण हर उस व्यक्ति को मोबाइल इंटरनेट का उपभोक्ता मान लेता है, जिसने अपने मोबाइल फोन का इस्तेमाल एक बार भी इंटरनेट के इस्तेमाल या मैसेजिंग के लिए किया हो.
प्राइसवाटरहाउसकूपर्स के हेड ऑफ टेलीकॉम प्रैक्टिस मोहम्मद चौधरी बताते हैं, ''मोबाइल फोन पर इंटरनेट का नियमित इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या हकीकत में 12.5 करोड़ है.” कंसल्टेंसी फर्म डेलॉयट हास्किंस ऐंड सेल्स के पार्टनर हेमंत जोशी कहते हैं कि इस उदाहरण का विस्तार अन्य क्षेत्रों में करके देखिए. उनके मुताबिक, 'मोबाइल बैंकिंग, स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा और कृषि’ के क्षेत्रों में डाटा संबंधी सेवाएं काफी तेजी से आगे बढ़ेंगी.
—जोसी पुलियनतुरुतेल और सनी सेन
योग
सेहतमंद बनाता विज्ञान
जब सूजन रेनी 13 साल की थीं, तब योग से उनका परिचय एक जापानी औरत ने करवाया था, जिसके यहां वे बच्चे पालती करती थीं. अमेरिका के डलास की रेनी का दावा है कि योग से उन्होंने ओवेरियन कैंसर पर जीत हासिल की है. कैंसर पर फतह पाने के बाद उन्होंने योग सिखाना शुरू किया. अब तक वे 2000 शिष्यों तक अपने ज्ञान का प्रसार कर चुकी हैं. हमारे देश से बाहर गई चीजों में योग सबसे अहम है. यह पश्चिम में कई अरब रु. का कारोबार बन चुका है. द योग जर्नल का आकलन है कि हर साल फीस, कपड़ों, सामग्री, किताबों, चटाइयों, योग के वीडियो आदि की बिक्री पर अकेले अमेरिका में 10.3 अरब डॉलर खर्च हो रहे हैं. योग के कुछ सेलिब्रिटी अभ्यासी भी हैं जैसे शिल्पा शेट्टी, रानी मुखर्जी, करीना कपूर और कैटरीना कैफ. तकरीबन हर मुहल्ले में पॉवर योगा सेशन चलते हैं, जिनका खर्च 500 से 10,000 प्रति माह है. मुंगेर में बिहार स्कूल ऑफ योग दुनिया का पहला योग विश्वविद्यालय है जिसका दावा है कि वहां 85 फीसदी विदेशी छात्र आते हैं. योग की ही माया थी कि बाबा रामदेव कम समय के लिए ही सही, एक जन आंदोलन खड़ा कर सके, क्योंकि रोजाना तीन करोड़ लोग उन्हें टीवी पर देखते हैं. आस्था टीवी की लोकप्रियता की बड़ी वजह उनके योग सत्र हैं. रामदेव ने हालांकि भारत में वो कर दिखाया है जो शायद विरले ही कर सके हैं: उनके 2,300 से ज्यादा आरोग्य केंद्र और पतंजलि चिकित्सालय नमक से लेकर अनाज और बिस्कुट से लेकर शैंपू सब कुछ बेचते हैं. अनुमान है कि उनका समूचा कारोबार 1,000 करोड़ रु. सालाना का है.
—सारिका मल्होत्रा
ऑन लाइन एजुकेशन
ई-लर्निंग से सबक
आखिरकार 13 साल की सिमरन याकूब को गुणा और भाग समझ में आ ही गए. वह कहती है, ''न सिर्फ अब मैथ समझ में आता है, बल्कि मैं हिंदी भी लिख और पढ़ लेती हूं. सेंटर पर आने के बाद से मैं बेहतर कर रही हूं.” वह दिल्ली के गोविंदपुरी में स्थित माइंडस्पार्क सेंटर की बात कर रही हैं, जहां पड़ोस की झुग्गियों से उसके जैसे बच्चे अपनी स्कूली पढ़ाई को कंप्यूटर की मदद से मांजने आते हैं. शहर में ऐसे दो केंद्रों में यह एक है जिसे एजुकेशनल इनीशिएटिव्स (ईआइ) ने खोला है. इन केंद्रों में 20 कंप्यूटर हैं. बच्चे हफ्ते में तीन बार एक घंटे के लिए यहां इंग्लिश, हिंदी और मैथ सीखने आते हैं. ईआइ एक शैक्षणिक अनुसंधान संगठन है, जिसे आइआइएम-अहमदाबाद के कुछ पूर्व छात्रों ने शुरू किया है. ईआइ के शिक्षण केंद्रों की स्थापना धर्मार्थ संस्था सेंट्रल स्क्वायर फाउंडेशन की मदद से हुई है जिसका उद्देश्य वंचित समुदाय के बच्चों में लर्निंग को बेहतर बनाना है. टेक्नोलॉजी और ऑनलाइन लर्निंग के संगम से तैयार इस तरह की सेवाएं प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षण में भारत में मौजूद चुनौतियों का कारगर जवाब हो सकती हैं. भारत में 14 लाख स्कूल हैं, जहां केजी से हाइस्कूल तक की पढ़ाई होती है. इनमें अस्सी फीसदी सरकारी हैं. Meritnation.com भारत के सबसे बड़े ऑनलाइन लर्निंग पोर्टल्स में से एक है जिसके नौ देशों में 37 लाख रजिस्टर्ड छात्र हैं. करीब दस फीसदी छात्र बाहरी देशों से हैं. अपने मुनाफाकारी मॉडल के बावजूद—सारे विषयों के लिए प्रति छात्र 3,500 रु. की फीस—इसे लोगों ने हाथोहाथ लिया है. इसके सह-संस्थापक और प्रबंध निदेशक पवन चौहान कहते हैं, ''हमने देखा है कि कम से कम आधे छात्र छोटे शहरों से हमारी साइट पर आते हैं.” उनके मुताबिक गांवों में मेरिटनेशन के प्रसार को रोकने में सिर्फ इंटरनेट की वहां अनुपलब्धता ही आड़े आ रही है. राज्यसभा सांसद अनु आगा कहती हैं, ''टेक्नोलॉजी के पास बेशक समाधान हैं, पर प्राथमिक शिक्षा के मामले में मेरा विश्वास मशीन की बजाय मानवीय पठन-पाठन में ही है.” —शमनी पांडे
दूध
पानी नहीं, दूध की नदी
कर्नाटक (पूर्वी) में कोलार-चिक्काबल्लापुर सूखाग्रस्त इलाका है. यहां 2,919 गांव हैं और इनमें से किसी भी गांव में सिंचाई की सुविधा के नाम पर कुछ भी नहीं है. वे सिर्फ बारिश पर निर्भर रहते हैं, जो कभी-कभी ही मेहरबान होती है. पिछले पांच साल में इस इलाके को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया गया था. ऐसे में अगर कोई इस इलाके को दूध से सींचने की बात कहे तो उसे सिरफिरा ही कहा जाएगा. लेकिन यहां दूध के 1,674 कोऑपरेटिव हर रोज 9,25,000 लीटर से ज्यादा दूध इकट्ठा करते हैं. कोलार जिला कोऑपरेटिव दुग्ध संघ के तहत संगठित वे प्रति लीटर दूध के लिए 18 रु. का भुगतान करते हैं. इसमें से करीब 24,000 लीटर दूध इसी इलाके में इस्तेमाल हो जाता है और बाकी बचा दूध बंगलुरू के अलावा आंध्र प्रदेश और केरल भेज दिया जाता है, जहां एक लीटर दूध के लिए 22 रु. से 23 रु. मिलते हैं. बंगलुरू इलाके के तीन जिलों में डेयरी का अपना नेटवर्क है, जो हर रोज 11 लाख लीटर दूध मुहैया कराता है. ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने और कर्नाटक को गुजरात के बाद दूसरा सबसे बड़ा दूध उत्पादक राज्य बनाने में कर्नाटक की डेयरियों—जिनकी कुल संख्या 12,000 है—की महत्वपूर्ण भूमिका है. गुजरात की डेयरियां न सिर्फ पहले स्थान पर हैं, बल्कि उनके और कर्नाटक की डेयरियों के बीच अंतर भी बहुत ज्यादा है. ये डेयरियां कर्नाटक के मुकाबले दो गुना से ज्यादा दूध का उत्पादन करती हैं. अमूल, जो गुजरात कोऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन का ब्रांड है, एशिया में सबसे बड़ा डेयरी ब्रांड बन गया है. भारत करीब डेढ़ दशक पहले ही अमेरिका को पीछे छोड़कर दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश बन गया था. तब भारत का उत्पादन प्रति दिन 70 अरब लीटर था. आज भारत दुनिया के कुल उत्पादन का 17 प्रतिशत दूध पैदा करता है. भारत के 7 करोड़ डेयरी किसानों का भविष्य और भी उज्ज्वल है क्योंकि अगले 10 साल में देश में दूध की मांग रोजाना 203 अरब लीटर होने की उम्मीद है जबकि मौजूदा मांग 124 अरब लीटर है.
—के.आर. बालसुब्रमण्यम
सी-डैक सुपर कंप्यूटर्स
परम श्रेष्ठता की चाहत
इस कहानी की शुरुआत उस हताशा से हुई, जब अस्सी के दशक में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस और भारतीय मौसम विभाग दोनों ही एक-एक सुपरकंप्यूटर आयात करने की कोशिश कर रहे थे लेकिन अमेरिका ने इसकी मंजूरी नहीं दी थी. दरअसल, 1974 के परमाणु परीक्षण के बाद भारत को हाइटेक्नोलॉजी की बिक्री पर अमेरिका ने प्रतिबंध लगा रखा था. इसी वजह से भारतीय वैज्ञानिकों ने तय किया कि वे अपना सुपरकंप्यूटर खुद बनाएंगे. प्रधानमंत्री के टेक्नोलॉजी एडवाइजर रहे सैम पित्रोदा ने राजीव गांधी को एक स्वदेशी प्रोग्राम के लिए राजी कर लिया. इस तरह 1988 में सेंटर फॉर डेवलपमेंट ऑफ एडवांस्ड कंप्यूटिंग की स्थापना हुई. सीडैक के डायरेक्टर जनरल प्रोफेसर रजत मूना कहते हैं, ''हमारी पहली मशीन 30 करोड़ रु. के बजट से तीन साल में बन कर तैयार हुई. इसके बाद हमने पीछे मुड़कर नहीं देखा.” मूना बताते हैं कि सीडैक ने भारत की बढ़ती कंप्यूटिंग की जरूरतों के साथ रफ्तार बनाए रखी है और परम सुपरकंप्यूटर के नए संस्करण तैयार करता रहा है. फिलहाल दो परम सुपरकंप्यूटर हैं, एक पुणे और दूसरा बंगलुरू में. इनमें सबसे ज्यादा ताकतवर 50 टेराफ्लॉप की मशीन है. टेराफ्लॉप सिस्टम के प्रोसेसर की पावर को बताने के लिए इस्तेमाल होता है और एक टेराफ्लॉप में एक ट्रिलियन फ्लोटिंग ऑपरेशन प्रति सेकेंड होते हैं.
इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी विभाग के तहत साइंटिफिक सोसायटी के रूप में गठित सीडैक का सुपरकंप्यूटर मॉलिकुलर सिम्युलेशन, मौसम की मॉडलिंग और दवा अनुसंधान के लिए जरूरी मदद उपलब्ध कराता है. आइआइटी-कानपुर में कंप्यूटर पढ़ा चुके मूना कहते हैं, ''तमाम रिसर्चर इंटरनेट पर हमारे इन्फ्रास्ट्रक्चर का इस्तेमाल अपने एप्लिकेशन को चलाने में करते हैं. सीएसआइआर अपने ओपन सोर्स ड्रग डिस्कवरी प्रोग्राम के लिए हमारे सुपरकंप्यूटर का इस्तेमाल कर रहा है.” कंप्यूटर के क्षेत्र में देश की जरूरत जिस तरह बढ़ेगी, सीडैक की अहमियत भी बढ़ेगी. संस्था अब पेटास्केल (एक क्वाड्रिलियन फ्लोटिंग प्वाइंट ऑपरेशन प्रति सेकंड) और एग्जास्केल (एक एग्जाफ्लॉप बराबर हजार पेटाफ्लॉप) के स्तर पर कंप्यूटिंग को ले जाना चाहती है जिससे एडवांस्ड मेडिकल मॉडलिंग का काम मुमकिन हो सकेगा. मूना कहते हैं, ''एग्जास्केल कंप्यूटिंग दुनिया को पर्सनलाइज्ड ड्रग डिस्कवरी और जेनेटिक इंजीनियरिंग में सक्षम बना सकेगी. दुनिया भर में एग्जास्केल कंप्यूटिंग अब बस चार-पांच साल की बात रह गई है.” उनके मुताबिक पेटास्केल कंप्यूटिंग तक तो सीडैक दो से तीन साल में ही पहुंच जाएगा.
दुनिया में पेटास्केल कंप्यूटिंग जारी है और कुल 20 से ज्यादा पेटाफ्लाप सुपरकंप्यूटर दुनिया में हैं जिनमें सबसे तेज टाइटन, अमेरिका की ओक रिज नेशनल लेबोरेटरी में लगा हुआ है जिसकी क्षमता 17.59 पेटाफ्लॉप है. देश को भले ही सीडैक की ओर से और तेज सुपरकंप्यूटरों का इंतजार हो, लेकिन इंस्टीट्यूट भारतीय भाषाओं में कंप्यूटिंग से लेकर कृषि और स्वास्थ्य सेवा इलेक्ट्रॉनिक्स तक दूसरे क्षेत्रों में भी काफी योगदान कर रहा है. सैमसंग और सोनी एरिक्सन अपने मोबाइल फोन में सीडैक में विकसित इंडियन लैंग्वेज टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करते हैं. संसद के दस्तावेजों का अनुवाद सीडैक की टेक्नोलॉजी से ही हो पाता है. सीडैक की सालाना कमाई 100 से 115 करोड़ रु. है. 3,000 कर्मचारियों की फौज और तमाम संभावित आविष्कारों के साथ आने वाले वर्षों में यह संस्था अपना कारोबारी आकार और बढ़ा सकेगी.
—गौतम दास
खेल
जीत का बाजार
बीते सितंबर बैडमिंटन खिलाड़ी साइना नेहवाल ने रिती स्पोट्र्स मैनेजमेंट के साथ 40 करोड़ रु. की एंडोर्समेंट डील पर दस्तखत किए जिसके बाद क्रिकेट के अलावा किसी दूसरे खेल में वे भारत की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली खिलाड़ी बन गईं. यह सौदा ओलंपिक में कांस्य पदक लाने वाली साइना के लिए ही नहीं बल्कि क्रिकेट के बाहर की दुनिया में तमाम खिलाडिय़ों के लिए अहम है क्योंकि यह उनकी बढ़ती ब्रांड वैल्यू और ताकत को दर्शाता है. क्रिकेट के दीवाने इस देश में बैडमिंटन के किसी खिलाड़ी के लिए ऐसी डील सोच से परे थी. भारतीय खेलों में व्यावसायिक अधिकारों पर नजर रखने वाले लोगों का कहना है कि यहां ओलंपिक खेलों की लोकप्रियता में इजाफा हुआ है क्योंकि भारतीय खिलाडिय़ों का प्रदर्शन अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में लगातार सुधरा ही है. अटलांटा में 1996 में हुए ओलंपिक में लिएंडर पेस ने एक ब्रांज मेडल जीता था, उसके बाद हुए हर ओलंपिक में कम-से-कम एक भारतीय तो मेडल जीतकर आया ही है. भारतीय दल का बेहतरीन प्रदर्शन पिछले साल रहा जब नेहवाल समेत कुल छह भारतीय खिलाडिय़ों ने मेडल जीते. एनआइआइटी ने आनंद को अपने ब्रांड का प्रायोजक चुना. मोनेट ने 18 करोड़ रु. में इंडियन बॉक्सिंग फेडरेशन के साथ 2010-17 तक की स्पॉन्सरशिप डील की है. प्राइसवाटरहाउसकूपर्स के मुताबिक भारतीय खेल बाजार 2010 में 1.48 अरब डॉलर का था. जहां तक खिलाडिय़ों की बात है, उनका मानना है कि एक खिलाड़ी को स्पॉन्सर मिलने से ही सिलसिले की शुरुआत हो सकती है. -संजीव शंकरन और गौतम दास
बॉलीवुड फिल्में
मुनाफे की बयार
अभिनेता आमिर खान की 2009 में आई फिल्म थ्री इडियट्स न्यूयॉर्क स्थित संयुक्ïत राष्ट्र के मुख्यालय में दिखाई जा चुकी है और न सिर्फ हॉलीवुड, बल्कि चीन और इटली के फिल्मकार भी अपनी भाषा में इसे दोबारा बनाने के अधिकार लेने के लिए कतार में हैं. एक साल बाद 2010 में आई शाहरुख खान की माय नेम इज खान ने इस्लामिक जगत में बड़ी कामयाबी हासिल की और मिस्र से इंडोनेशिया तक इसकी आकर्षक समीक्षाएं हुईं. अब पश्चिम और पूरब के अधिकतर अंग्रेजी अखबार चुनिंदा हिंदी फिल्मों की समीक्षाएं छापते हैं. हाल ही में तलाश, जब तक है जान और इंग्लिश विंग्लिश की समीक्षाएं देखने को मिली हैं. जिन देशों में भारतीय मूल के लोगों की आबादी ज्यादा है, वहां हिंदी सिनेमा के दर्शक लगातार बढ़ते जा रहे हैं. इनमें अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और पश्चिमी एशिया प्रमुख हैं. इनके अलावा चीन, ताईवान और दक्षिण कोरिया में हिंदी फिल्में आश्चर्यजनक रूप से देखी जा रही हैं, जहां भारतीय मूल के लोगों की आबादी बेहद कम है. केपीएमजी की 2011 की रिपोर्ट कहती है कि 2011 से 2016 के बीच विदेश से होने वाली कमाई में 10.5 फीसदी की वृद्धि होगी जबकि इसी अवधि में घरेलू वृद्धि दर 9.4 फीसदी रहेगी. हिंदी सिनेमा को विदेश से होने वाली आय की रीढ़ प्रवासी भारतीय ही हैं. हिंदी के अलावा भोजपुरी फिल्में मॉरीशस और फिजी में खूब कमाती हैं जबकि पश्चिमी एशिया में मलयालम फिल्मों को दर्शक मिल जाते हैं. हिंदी फिल्मों की बढ़ती अहमियत का एक और बड़ा संकेत वाल्ट डिज्नी, ट्वेंटिएथ सेंचुरी फॉक्स और वार्नर ब्रदर्स जैसे हॉलीवुड के स्टूडियो का हिंदी फिल्म निर्माण में उतर आना है. नए सब्जेक्ट और 3डी व स्पेशल इफेक्ट जैसी टेक्नोलॉजी से हॉलीवुड को टक्कर दे रहे बॉलीवुड का भविष्य काफी सुनहरा है. —आनंद अधिकारी