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बंदूक वाली औरतें: मेरे पर्स में पिस्तौल रहती है

पुरुष अब भी इस मुगालते में हैं कि स्त्रियों के पर्स में लिप्स्टिक, परफ्यूम और दर्जी का बिल है, जबकि अब वहां   कई दफा रिवॉल्वर भी रहता है.

अपडेटेड 21 जनवरी , 2013

महिलाओं के पर्स से क्या पुरुषों को डर लगता है? एक पर्स, जो मर्दों के लिए किसी रहस्यमय संसार की तरह है. उससे डरना क्या? आखिर उसमें ऐसा क्या है? पैसा, क्रेडिट कार्ड, एटीएम कार्ड, लिप्सटिक, परफ्यूम, आइलाइनर, मैफटाल स्पैज्म और डिस्प्रिन की गोलियां, सेफ्टी पिन, सैनिटरी पैड, टेलर को सिलने के लिए दिए ब्लाउज की रसीद, घर के लिए खरीदने वाले जरूरी सामान की लिस्ट और जाने क्या-क्या. लेकिन इनके अलावा एक और पर्स है, जो कभी भी हमलावर पुरुषों के लिए खौफ का सबब बन सकता है, क्योंकि इन तमाम चीजों के अलावा उस पर्स में एक  चीज और है- आइओएफ .32 रिवॉल्वर. यह पर्स है 41 वर्षीया नलिनी भारद्वाज का, जो दिल्ली में अपना एक एजूकेशन इंस्टीट्यूट चलाती हैं.

दिन हो या रात, दिल्ली की डिफेंस कॉलोनी स्थित अपने घर से वह जब भी बाहर निकलती हैं तो उनके भूरे रंग के डिजायनर बक्कल वाले पर्स में वह रिवॉल्वर जरूर होता है. नलिनी दिल्ली में अकेली रहती हैं और उन्हें लगता है कि अकेली रहने वाली और रात-बेरात अपने काम से शहर की सड़कों पर निकलने वाली औरत आसान निशाना होती है. उन्हें अपने आसपास की दुनिया पर भरोसा नहीं, इसलिए अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारी उन्होंने खुद अपने हाथों में ली है. वे कहती हैं, ‘‘भले बंदूक चलाने की कभी जरूरत न पड़े, लेकिन अपने पास हो तो ताकत महसूस होती है.’’Gun Lady

नलिनी अकेली ‘गन लेडी’ नहीं हैं. दिल्ली समेत पूरे देश में ऐसी स्त्रियों की संख्या लगातार बढ़ रही है, जो अपनी सुरक्षा के लिए अपने पास कोई हथियार रखती हैं. दिल्ली के बहुचर्चित बलात्कार कांड के बाद गन प्वाइंट मांगने वाली महिलाओं की संख्या भी बढ़ी है.

भोपाल में रहने वाली 29 वर्षीया दीप्ति सिंह सामाजिक कार्यकर्ता हैं और प्रियदर्शिनी नाम की संस्था चलाती हैं. पांच साल पहले एक बार जब वह मंदसौर से भोपाल जा रही थीं तो रात के समय कुछ लोगों ने शराब के नशे में उनकी गाड़ी का पीछा किया. दीप्ति कहती हैं, ‘‘उन लोगों ने काफी दूर तक मेरी गाड़ी का पीछा किया और फिर चले गए. उस दिन तो कुछ नहीं हुआ, लेकिन मेरे भीतर एक डर बैठ गया. और इस डर से निपटने का एक ही तरीका था कि अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारी अपने हाथों में ली जाए.’’

भोपाल लौटने के बाद अगले ही दिन उन्होंने आर्म लाइसेंस के लिए दौड़-भाग शुरू कर दी और कुछ महीनों की मशक्कत के बाद आखिरकार एक.22 रिवॉल्वर उनके पर्स में था. अब जब भी दीप्ति घर से बाहर जाती हैं तो सुरक्षित महसूस करती हैं. वे कहती हैं, ‘‘लोग पूछते हैं कि तुम्हें डर नहीं लगता. मैं कहती हूं, डर किस बात का. ये भरोसा है कि अपने साथ कुछ गलत नहीं होने दूंगी. मरना भी पड़ा तो चार को मारकर मरूंगी.’’

मनोविश्लेषक और द इंडियंस किताब के लेखक सुधीर कक्कड़ हथियार लेकर चलने वाली नई हिंदुस्तानी शहरी लड़कियों के बारे में सुनकर आश्चर्य से भर जाते हैं, लेकिन आंकड़े और तथ्य सुनने के बाद उनका विश्लेषण कहता है, ‘‘ये ग्लोबलाइजेशन और नई आर्थिक नीतियों की देन है. इसने औरतों को पिछले 15-20 सालों में जितना स्पेस और आजादी दी है, उतनी पहले बदलाव के किसी भी टूल से मुमकिन नहीं हुई. आत्मनिर्भरता का आनंद ले चुकी स्त्री बाहर बैठे पुरुष के हमलों के डरकर वापस घर में नहीं दुबकेगी. ये ह्यूमन नेचर है. वह अपनी सुरक्षा के तरीके ईजाद करेगी. गैंग रेप या किसी भी चीज का डर दिखाकर आप आजाद स्त्रियों को वापस घर-गृहस्थी की चौखट में नहीं भेज सकते.’’

दिल्ली गैंग रेप के बाद बहुत से माता-पिता, लड़कियों और कामकाजी औरतों में डर का एहसास गहरा हो गया है, लेकिन इस डर से अपने घरों में दुबकने की बजाए लड़कियां लोकल पुलिस थाने और डीसीपी लाइसेंसिंग के ऑफिस के दरवाजे खटखटा रही हैं. लोकल एसएचओ से और दिल्ली पुलिस की लाइसेंसिंग की वेबसाइट पर जाकर इन्क्वायरी कर रही हैं कि आर्म लाइसेंस कैसे हासिल किया जाए.

गत सप्ताह जंतर-मंतर पर गैंग रेप के खिलाफ एक प्रोटेस्ट के दौरान कॉलेज की कुछ लड़कियां लोकल एसएचओ को घेरकर सवाल कर रही थीं, ‘‘सर, पिस्टल कैसे खरीदते हैं? लाइसेंस कैसे मिलता है?’’

18 दिसंबर के बाद से अब तक 274 महिलाओं ने दिल्ली पुलिस के पास आर्म लाइसेंस के लिए आवेदन दिया है और 1,200 से ज्यादा महिलाओं ने लाइसेंस पाने की प्रक्रिया के बारे में इन्क्वायरी की है. फिल्म ऐंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट, पुणे से फिल्म मेकिंग का कोर्स करके दिल्ली लौटी 27 वर्षीया जोया निकहत गैंग रेप की घटना के बाद अब तक डीसीपी लाइसेंसिंग ऑफिस के तीन चक्कर लगा चुकी हैं.

वे कहती हैं, ‘‘मुझे रात में फोटोग्राफी और वीडियोग्राफी करने का शौक है. मुझे लगता है कि उस लड़की की जगह मैं भी तो हो सकती थी. इसलिए मुझे अपनी सेफ्टी के लिए बंदूक चाहिए.’’ दिल्ली में रहने वाली 41 वर्षीया हाउस वाइफ सोनू भांबी ने सात महीने से आर्म लाइसेंस के लिए अप्लाय कर रखा है. दिल्ली के ही जसोला में रहने वाली 43 वर्षीया अर्चना वर्मा अपनी ज्वेलरी शॉप चलाती हैं. उन्हें लाइसेंस मिल गया है और 28 जनवरी को .32 रिवॉल्वर भी मिल जाएगा. वे अपने इस नए साथी के स्वागत के लिए बहुत उत्साहित हैं.

अकेले दिल्ली शहर में अब तक कुल 277 महिलाओं को आर्म लाइसेंस दिए जा चुके हैं. 2008 में दिए 14 लाइसेंस में से 8 सेल्फ प्रोटेक्शन के लिए दिए गए थे, जबकि सिर्फ चार इनहेरिटेंस के तहत मिले थे. इसी तरह 2009 और 10 में 8 और 2011 में 12 महिलाओं ने सेल्फ प्रोटेक्शन के तहत लाइसेंस हासिल किए.

दिल्ली के लाइसेंसिंग विभाग के डिप्टी कमिश्नर ऑफ पुलिस मधुप तिवारी कहते हैं, ‘‘पहले ज्यादातर महिलाओं के पास अपने पिता या पति से इनहेरिट किए हुए आर्म लाइसेंस होते थे. अब लड़कियां खुद अपने प्रोटेक्शन के लिए लाइसेंस की मांग करने लगी हैं. हालांकि इस संख्या में कोई बहुत आश्चर्यजनक उछाल नहीं आया है, लेकिन बढ़त देखी जा सकती है.’’Delhi arm licence

वर्ष 2012 में कुल 44 महिलाओं ने लाइसेंस के लिए आवेदन किया था और उनमें से 24 महिलाओं को लाइसेंस दिए गए. द्वारका में रहने वाली 28 वर्षीया विद्युत गुलाटी उन 24 महिलाओं में से एक हैं, जिन्हें इस वर्ष के आखिर में बंदूक का लाइसेंस मिला है और अब वह अपनी पहली रिवॉल्वर खरीदने की तैयारी कर रही हैं. वे कहती हैं, ‘‘जैसे महिलाएं ज्वेलरी या फैशनेबल कपड़े खरीदने के लिए उत्साहित होती हैं, वैसे ही मैं अपनी रिवॉल्वर को लेकर एक्साइटमेंट से भरी हुई हूं.’’

घर से निकलते वक्त जिन महिलाओं के पर्स में पिस्टल या रिवॉल्वर होती है, वे एक अनोखे एक्साइटमेंट और हिम्मत से भरी होती हैं. दिल्ली के ऑल इंडिया रेडियो में एनाउंसर 47 वर्षीया राजश्री त्रिवेदी इस हिम्मत को बखूबी बयां करती हैं. वे कहती हैं, ‘‘यह एहसास भी कितना जरूरी है कि हम बिलकुल निरीह और निहत्थे नहीं हैं. पास में हथियार हो तो अपने आप हालात का सामना करने की हिम्मत आ जाती है.’’

उनके पास .32 रिवॉल्वर है, जो रात-बेरात अकेले सफर में उनका साथी है. उनका मानना है कि सेल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग लड़कियों को बचपन से ही दे जानी चाहिए. बंदूक तो लड़कियों के बुनियादी अधिकारों में से एक होना चाहिए. समाज की हिंसा के डर से हम अपनी बेटियों को घर में कैद नहीं रख सकते. उन्हें बाहर निकलने, घूमने, करियर बनाने और कहीं भी आने-जाने का पूरा हक है, बिलकुल वैसे ही जैसे लड़कों को होता है. राजश्री कहती हैं, ‘‘हथियार होना जरूरी है क्योंकि संकट अलार्म बजाकर नहीं आएगा.’’

जालंधर में रहने वाली 46 वर्षीया अनीता धीमन दास भी हमेशा घर से निकलते वक्त अपने पर्स में अपनी .22 पिस्टल साथ रखती हैं. वे कहती हैं, ‘‘आज कोई भी महिला सुरक्षित नहीं है, चाहे वह 3 साल की छोटी बच्ची हो या 80 साल की बूढ़ी औरत.’’ चंडीगढ़ में रहने वाली 52 वर्षीया कवियत्री और पैरेंटिंग कंसल्टेंट रेनी को उनके जीवन की पहली बंदूक अपने पिता से मिली. पिता ने बचपन से अपनी बेटियों को आत्मरक्षा के तरीके सिखाए.

आज 52 वर्षीया रेनी के जीवन की महत्वपूर्ण एसेसरीज में से एक है उनकी .32 रिवॉल्वर, जो हमेशा उनके पर्स में रहती है. इस उम्र में भी वे सटीक निशानेबाज हैं और अकेले रोडसाइड रोमियो को मजा चखा सकती हैं. पूर्व आइपीएस अधिकारी किरण बेदी कहती हैं, ‘‘अच्छा है कि अब लड़कियां अपनी रक्षा के लिए पुरुषों पर निर्भर नहीं हैं. वह खुद अपनी सुरक्षा करना सीख रही हैं.’’

दिल्ली में अपना नर्सिंग होम चलाने वाली 46 वर्षीया गायनिकॉलजिस्ट डॉ. विभा शर्मा के मुताबिक सिर्फ पर्स में बंदूक रखना ही काफी नहीं है. सही वक्त पर उसका सही इस्तेमाल करने के लिए शारीरिक रूप से चुस्त और मजबूत होना जरूरी है. विभा बताती हैं, ‘‘आर्म खरीदते वक्त उसे चलाने की तीन दिन की कंपल्सरी ट्रेनिंग दी जाती है. यह आसान नहीं है, फायर करते वक्त बंदूक बहुत तेज झटका देती है. अगर किसी नाजुक लड़की में मसल्स पावर नहीं है तो वह उसका झटका बर्दाश्त नहीं कर पाएगी.’’delhi arm

डॉ. विभा बताती हैं कि लड़कियां अपने शारीरिक बल और तंदुरुस्ती को लेकर बिलकुल सचेत नहीं हैं. वे कहती हैं, ‘‘शादी के पहले लड़कियां फूल जैसी नाजुक होती हैं और शादी के बाद बच्चे पैदा करके देसी घी खा-खाकर मोटी होती रहती है. ऐसी हालत में बंदूक भी आपकी मदद नहीं कर सकती.’’ अपने पेशे की मजबूरी के कारण विभा को आधी रात भी हॉस्पिटल जाना पड़ता था. फिर अपनी सुरक्षा के लिए .32 रिवॉल्वर खरीदी और अब ये हर वक्त उनके पर्स में रहती है.

ये तमाम महिलाएं अपने पर्स में हथियार रखती हैं, लेकिन एक लड़की और भी है जो हर वक्त अपनी .22 पिस्टल को अपने कंधे और कमर पर टांगकर चलती है. गुना से तकरीबन 40 किमी. दूर एक कस्बे अशोक नगर में रहने वाली 26 वर्षीया रेखा नामदेव वंचित वर्ग से ताल्लुक रखती हैं. स्थानीय अखबारों में फ्रीलांसिंग के दौरान एक बार उन्होंने लोकल माफिया और सट्टेबाजों पर एक स्टोरी की. उसके बाद वे लोग रेखा की जान के पीछे पड़ गए. एक बार तो उन्हें ऐसा लगा कि दिल्ली की निर्भया जैसा कोई भयानक कांड उनके साथ होते-होते रह गया. उसके बाद तो रेखा की जिंदगी का एक ही मकसद हो गया कि मुझे हथियार चाहिए.

गुना से भोपाल, इंदौर की एक साल की दौड़-भाग के बाद आखिरकार तकरीबन एक लाख रु. खर्च करके रेखा ने अपने लिए पिस्टल खरीदी. अब वे अपने इलाके में गर्व से सिर उठाकर चलती हैं और माफिया उनके नाम से थर-थर कांपते हैं. रेखा कहती हैं, ‘‘जब इरादे साफ हों और अपने काम पर विश्वास तो मौत का डर नहीं सताता. मौत से तो माफिया, हत्यारे और बलात्कारी डरते हैं, क्योंकि उनकी आत्मा मर चुकी होती है.’’

इंदौर की पूर्णा सिंह और भुवनेश्वरी राणावत हाउस वाइफ हैं, लेकिन अकेले सफर में अपना हथियार साथ जरूर रखती हैं. इन औरतों के ये हथियार पारंपरिक स्त्रियों के कमर में लटकी हुई चाभी के छल्ले की तरह उनके अस्तित्व और आत्मसम्मान का जरूरी हिस्सा हो गए हैं.

सामाजिक चिंतक आशीष नंदी भी इसे सकारात्मक बदलाव की तरह देखते हैं, ‘‘सिर्फ आर्म ही नहीं, स्त्रियां सेल्फ डिफेंस के कई तरीके सीख रही हैं. अपनी सुरक्षा के लिए लडऩा अपने हक के लिए लडऩे जैसा है.’’ 

अपनी सुरक्षा के लिए हथियार हासिल करना मुश्किल नहीं है, लेकिन इतना आसान भी नहीं है. वैध ढंग से तो लाइसेंस के लिए कोई फीस नहीं होती, खर्च सिर्फ आर्म खरीदने का होता है. लेकिन इंदौर की एक महिला अपना नाम उजागर न करने की शर्त पर बताती हैं कि सिर्फ लाइसेंस लेने में 80,000 रु. से लेकर एक लाख तक का खर्च आता है. थानेदार से लेकर ऊपर के अधिकारी तक को पैसे खिलाने पड़ते हैं.

दिक्कतें कई हैं, लेकिन फिर भी इतनी सारी महिलाओं के फैशनेबल, ग्लैमरस पर्स के एक कोने में छिपा बैठा यह हथियार उन स्त्रियों को एक किस्म की हिम्मत और उम्मीद तो देता ही है. जो स्त्रियां बंदूक नहीं खरीद सकतीं, उनमें से कई अपने पर्स में लाल मिर्च पाउडर, छोटा चाकू और पीपर स्प्रे लेकर चलती हैं. मप्र के गांवों की पंचायत अध्यक्ष महिलाएं जब मीटिंग के लिए भोपाल आती हैं तो अपने झेले में चाकू रखकर लाती हैं. अब हर स्त्री अपनी रक्षा के लिए पुरुष का मुंह नहीं ताकती. हर स्त्री अपने स्तर पर, अपने तरीके से अपनी रक्षा के लिए चाक-चौबंद हो रही है, खुद को बचाने के तरीके इजाद कर रही है. निश्चित ही यह बदलाव की आहट है.   

-साथ में लखनऊ से आशीष मिश्र और ग्वालियर से समीर गर्ग

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