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बिहार में सऊदी अरब से आई समृद्धि की बयार

पश्चिम एशिया के देशों से बिहार के सिवान और गोपालगंज में भेजे जा रहे पैसे ने इस इलाके की तस्वीर ही बदल डाली है.

अपडेटेड 15 जनवरी , 2013

उनतीस वर्षीय भीम सिंह और उनके छोटे भाई आशु बिहार के गोपालगंज जिले में अपने गांव इंद्रावा अबेदुल्ला में आजकल अपने सपनों का घर बना रहे हैं. चार मंजिला मकान के हर फ्लोर पर चार कमरे हैं और इसे बनाने में 60 लाख रु. का खर्च आएगा. बहुत दिन नहीं हुए जब दोनों भाई मिट्टी के कच्चे झोंपड़े में रहा करते थे जबकि किराने की दुकान चलाने वाले उनके पिता बमुश्किल 4,000 रु. की मासिक कमाई में दस लोगों का पेट भरते थे.

आखिर कैसे हुआ यह सब? कहानी 2006 से शुरू होती है जब अपने गांव के कुछ नौजवानों की तरह भीम सिंह ने भी तय किया कि वे नौकरी करने विदेश जाएंगे. पांच बहनों के भाई सिंह कहते हैं, “यहां पर कुछ कमाई नहीं हो रही थी.”

उन्हें कतर के दोहा में कंसॉलिडेटेड कॉन्ट्रैक्टिंग इंटरनेशनल कंपनी में पाइप फिटर की नौकरी मिल गई. उन्होंने ट्रैवल एजेंट, वीजा और यात्रा के दूसरे खर्चों पर आने वाली 62,000 रु. की रकम अपने कुछ दोस्तों और साहूकार से उधार ली. वे कहते हैं, “सिर्फ दो महीने में मैंने सब चुका दिया.” उनकी शुरुआती तनख्वाह 35,000 रु. थी. उन्होंने वहां एक स्नैक काउंटर खोल लिया और अतिरिक्त 10,000 रु. कमाने लगे. उनके खाने, कपड़े और रहने का खर्च कंपनी देती थी, लिहाजा उन्होंने पूरी रकम बचा ली और पैसा लगातार घर भेजते रहे.

इसके बाद 2009 में आशु सऊदी अरब चले गए और नेशनल कंस्ट्रक्शन कंपनी में काम करने लगे. उनके पास से परिवार को 32,000 रु. मासिक की रकम मिलने लगी. आज सारे भाई-बहनों की शादी हो चुकी है. सबसे बड़े भाई कहते हैं, “हर बहन की शादी पर कम से कम पांच लाख रु. का खर्च आया. विदेश में कमाए पैसे से ही सब हो सका.”Bihar

यहां अकेला सिंह परिवार ही नया मकान नहीं बनवा रहा है. इस गांव की हर गली में आपको निर्माण कार्य होता दिख जाएगा. एक अनुमान के मुताबिक गोपालगंज की तकरीबन 80 फीसदी और पड़ोसी जिले सिवान की स्थानीय अर्थव्यवस्था विदेश से आ रहे पैसे पर टिकी है. बिहार आप्रवासियों का नया ठिकाना बनकर उभरा है, खासकर उनका जो पश्चिम एशिया की उड़ान पकड़ रहे हैं. आप्रवासी मामलों के मंत्रालय के मुताबिक बिहार से बाहर जाने वालों की संख्या 2006 में 36,493 थी जो 2011 में 71,438 पर पहुंच गई.

बिहार सरकार के पास जिलावार प्रवासियों की सूची नहीं है, लेकिन ट्रैवेल एजेंटों की मानें तो अकेले सिवान और गोपालगंज की हिस्सेदारी इसमें 70 फीसदी है. विदेश जाने की होड़ को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि 2007 से 2012 के बीच सिवान पुलिस ने कुल 1,98,000 पासपोर्टों का निरीक्षण किया जबकि गोपालगंज पुलिस के पास ऐसे 1,53,000 मामले आए.

बिहार के उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी इस बात को स्वीकार करते हैं. वे कहते हैं, “हर बार जब मैं सुबह दिल्ली से पटना की उड़ान भरता हूं, कम से कम 10 से 12 यात्री फ्लाइट में ऐसे मिलते हैं जो विदेश से गोपालगंज या सिवान जा रहे होते हैं.” विदेश से आने वाला पैसा समूचे इलाके की सामाजिक-सांस्कृतिक तस्वीर को बदल रहा है. कुछ साल पहले तक विदेश जाने वाले 80 फीसदी लोग मुस्लिम और बाकी हिंदू होते थे. आज हिंदुओं की संख्या बढ़कर 40 फीसदी हो गई है.

मुसलमानों के बीच इस बदलाव को उनकी शिक्षा के स्तर से समझा जा सकता है. उनके लड़के अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं और प्रोफेशनल पढ़ाई के लिए महानगरों में जा रहे हैं. मसलन, सिवान के बिंदुसर गांव के मोहम्मद हबीबुल्ला को ही लें. उन्होंने स्कूल की पढ़ाई पूरी नहीं की, लेकिन वे 1979 में ड्राइवर की नौकरी करने कतर चले गए थे. उनका बेटा शाहिद नोएडा की एमिटी युनिवर्सिटी से मैनेजमेंट की डिग्री ले चुका है.

इंद्रावा अबेदुल्ला और चार अन्य गांवों की पंचायत में इंद्रावा बैराम गांव भी आता है. इस गांव के 40 लड़के कर्नाटक, महाराष्ट्र्र और दिल्ली में इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे हैं. सरपंच शेर आलम के मुताबिक दस साल पहले इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. वे बताते हैं कि पंचायत में कुल 6,400 मतदाता हैं जिनमें 3,300 पुरुष हैं.

इनमें से कम से कम 1,700 विदेश में काम कर रहे हैं. यहां से जितने भी लोग बाहर जाते हैं, उनके पास औपचारिक प्रशिक्षण नाम मात्र का होता है और वे नौकरी के दौरान ही काम सीखते हैं. इसी के चलते कुछ स्थानीय लोगों ने मिलकर राजगीरी और बढ़ईगीरी जैसे कामों के प्रशिक्षण के लिए केंद्र खोल दिए हैं.

गोपालगंज और सिवान में इस तरह के करीब 50 केंद्र हैं, जैसे अल सैफी और अरबाब इंस्टीट्यूट. इसमें काम सिखाने के बदले 2,000 से 5,000 रु. तक लिए जाते हैं.

ये केंद्र प्लेसमेंट एजेंसियों के तौर पर भी काम करते हैं जहां भारतीय या विदेशी कंपनियों के अधिकारी नौकरी के इच्छुक स्थानीय लोगों के इंटरव्यू करते हैं. सिवान में हमीदिया वल्र्ड ट्रैवल्स चलाने वाले एम. हक बताते हैं, “यह रुझान करीब पांच साल पहले शुरू हुआ था. हर माह तीन से चार इंटरव्यू लिए जाते हैं.”

ये केंद्र खाड़ी के देशों की कंपनियों से या तो सीधे या फिर दिल्ली और मुंबई के एजेंटों के माध्यम से संपर्क साधते हैं. स्थानीय बाजारों में लाउडस्पीकरों के माध्यम से ये केंद्र इंटरव्यू या परीक्षा की तारीख की मुनादी करवाते हैं. ये परचे बांटते हैं जिनमें इंटरव्यू के लिए आने वाली कंपनियों के नाम, अलग-अलग श्रेणियों में रिक्त पदों की संख्या और संभावित वेतन का ब्योरा दिया होता है. ऐसे ही एक परचे में राजगीरों और बढ़ई के लिए 1,300 से 1,400 अरबी रियाल का वेतन दिया हुआ है (19,000 से 20,500 रु. के बीच).

विदेश में काम करने को लेकर यहां इतना उत्साह है कि दोनों जिलों में बच्चा-बच्चा भी रियाल और रुपए की विनिमय दर से परिचित है. उप-मुख्यमंत्री मोदी मानते हैं कि यहां लोगों को प्रशिक्षण की जरूरत है. उनके मुताबिक सरकार जल्द ही अलग-अलग श्रेणियों में 15 से 20 दिनों का प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू करने वाली है.

यह विदेश से आ रहे पैसे का ही कमाल है कि यहां पैसे हस्तांतरित करने वाली एजेंसियां कुकुरमुत्ते की तरह उग आई हैं. वेस्टर्न यूनियन नामक ग्लोबल एजेंसी के गोपालगंज में 200 केंद्र हैं.

वेस्टर्न यूनियन सर्विसेज इंडिया के प्रबंध निदेशक किरण शेट्टी के मुताबिक बिहार काफी तेजी से एक मजबूत रेमिटेंस बाजार के तौर पर उभरा है. वे कहते हैं, “बिहार में हमारे आउटलेट की संख्या 2010 के 2,200 से बढ़कर 2012 में 5,500 हो गई है.” गोपालगंज में बथुआ बाजार स्थित आउटलेट में एजेंट अशरफ अली बताते हैं कि उनके केंद्र पर रोजाना दो लाख रु. तक का विनिमय होता है. उनका अनुमान है कि गोपालगंज में महीने भर का विनिमय कारोबार 150 करोड़ रु. का होगा जबकि सिवान में यह राशि 200 करोड़ रु. होगी.

एक्सप्रेस मनी और वेस्टर्न यूनियन का प्रमुख एजेंट यूएई एक्सचेंज है. इसके आउटलेट की संख्या 2010 में बिहार में तीन थी जो आज बढ़ कर नौ हो गई है. यहां से कामगारों का आप्रवासन और पैसे की आमद पूरे इलाके का नक्शा बदल रही है. अलग-अलग ब्रांड की दुकानें खुल गई हैं. महिलाएं सौंदर्य प्रसाधनों पर टूट रही हैं तो किसान ट्रैक्टर और खेती के अन्य उपकरण खरीदने में लग गए हैं.

मीरगंज के सामुदायिक नेता और कारोबारी मोहम्मद अली इमाम को एक गरीब महिला याद है जिसे वे तरस खाकर अक्सर एक या दो रु. का सिक्का दे देते थे. वे कहते हैं, “करीब छह माह गायब रहने के बाद अचानक एक दिन वह मेरी दुकान पर आई. मैंने उसके लिए एक सिक्का निकाला. उसने पहली बार मेरी आंख में देखकर कहा—बाबू, अब ये नहीं चाहिए. मेरे दो बेटे अरब को गए हैं.”

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