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उत्तराखंड: इस आपदा का खलनायक कौन

उत्तराखंड एक के बाद एक प्राकृतिक आपदाओं के कहर से जूझ रहा है मगर सुरक्षा और बचाव के पुख्ता.

अपडेटेड 1 अक्टूबर , 2012

उत्तराखंड के सीमांत जनपद रुद्रप्रयाग की ऊखीमठ तहसील में बसे आधा दर्जन से अधिक गांवों के लिए 14 सितंबर की सुबह काली साबित हुई, जब अचानक बादल फटने से इस इलाके में बाढ़  का कहर शुरू हो गया. खेत, खलिहान, मकान और उनमें सोये लोग, कोई इस कहर से बच नहीं पाया. सुबह होने तक 31 लाशें बरामद हो चुकी थीं और 18 सितंबर तक मौत की संख्या 53 तक पहुंच गई. गांव जमींदोज हो गए और लाशें मिलने का सिलसिला कई दिनों तक जारी रहा. बहुत-से लोगों ने पूरे परिवार को खो दिया है.

सबकी आंखों में बस एक ही सवाल है कि इस आपदा का जिम्मेदार कौन है? बादल फटने पर तो किसी का बस नहीं, लेकिन क्या उसके पहले और बाद में बचाव और सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम करना मुमकिन नहीं था? क्या इंसान की जिंदगी इतनी सस्ती है कि असुरक्षित और संवेदनशील इलाकों में रह रहे लोगों के पुनर्वास का सवाल सरकार की महत्वपूर्ण कार्यों की सूची में सबसे आखिर में भी कहीं मौजूद नहीं है? आखिर कौन है इस आपदा का असली खलनायक?

ऊखीमठ के उप-जिलाधिकारी राकेश चंद्र इसे ''बादल फटने के कारण आई दैवी आपदा'' कहकर प्रशासन की जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लेते हैं. ऊखीमठ में आपदाओं का सिलसिला नया नहीं है. पिछले दो दशक में यहां आई दो दर्जन से ज्यादा बड़ी प्राकृतिक आपदाओं में सैकड़ों लोग मारे जा चुके हैं.

ऊखीमठ, केदारघाटी और मदमहेश्वर को लेकर पहले हुए भूगर्भीय अध्ययनों में इन घाटियों को बरसात की दृष्टि से खतरनाक घोषित किया जा चुका है. 1998 में ऊखीमठ के करीब मदमहेश्वर में बादल फटने के बाद अहमदाबाद स्थित राष्ट्रीय भौतिक विज्ञान अनुसंधान केंद्र (पीआरएल) ने मदमहेश्वर औैर ऊखीमठ घाटी का भूगर्भीय अध्ययन किया था. उसमें पाया गया कि सेंट्रल थ्रस्ट के निकट होने के कारण इस क्षेत्र की धरती लगातार गतिशील है. सेंट्रल करंट के चलते जमीन में दरारें पड़ रही हैं और चट्टानें टूटकर खिसक रही हैं. पानी की तेज बौछारों और बादल फटने जैसी स्थिति को यहां के पहाड़ संभाल नहीं पाते जिससे भूस्खलन होता है, जो तेजी से मलबे में तब्दील होकर तबाही मचाता है.

पीआरएल के वरिष्ठ वैज्ञानिक और इस अध्ययन टीम के प्रमुख डॉ. नवीन जुयाल कहते हैं, ''इस इलाके के गांव पुराने भूकंपों और चट्टानों से टूटकर डंप हुए मलबे पर बसे हैं, इसलिए ये ज्यादा संवेदनशील हैं. हमारी टीम ने उसी समय भारत सरकार को रिपोर्ट सौंपी थी, लेकिन उस पर कोई कदम नहीं उठाया गया.'' डॉ. जुयाल के मुताबिक यह प्राकृतिक आपदा अनायास नहीं है. यह इतना संवेदनशील क्षेत्र है कि किसी भी समय इस तरह की कोई आपदा यहां तबाही फैला सकती है.

हिमालयी पर्यावरण शिक्षा संस्थान के अध्यक्ष सुरेश भाई कहते हैं, ''राज्य के 1,200 गांवों को पुनर्वास की जरूरत है, लेकिन राज्य सरकार यह संख्या 233 बता रही है और उनका भी पुनर्वास नहीं कर रही है.'' आपदा प्रबंधन विभाग के प्रमुख सचिव ओमप्रकाश कहते हैं, ''233 गांवों का पुनर्वास करने के लिए 600 करोड़ रु. की जरूरत है, जिसका प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा गया है. पुनर्वास का काम धन के अभाव में रुका हुआ है.''

राज्य में एक आपदा प्रबंधन एक्ट भी है, जिसमें आपदा के नजरिए से खतरनाक स्थानों पर होने वाले निर्माण कार्यों और इन स्थानों पर रह रहे लोगों के नियमन की व्यवस्था है. लेकिन एक्ट बनने के एक दशक बाद भी राज्य में कहीं इसका असर दिखाई नहीं देता. इसकी छाया न तो निजी निर्माण कार्यों पर दिखती है और न ही सरकारी निर्माण कार्यों पर. उत्तरकाशी में फायर ब्रिगेड के कार्यालय समेत दर्जनों सरकारी भवन संवदेनशील इलाकों में बन रहे हैं. सामाजिक कार्यकर्ता मंगला कोठियाल कहते हैं, ''शुरू से ही इस एक्ट का कड़ाई से पालन हुआ होता तो पहले उत्तरकाशी और अब ऊखीमठ में कई जानें बचाई जा सकती थीं.''

इस आपदा से एक बड़ा सवाल और उठ खड़ा हुआ है कि क्या विज्ञान के इतने विकास के बावजूद वैज्ञानिक आपदाओं की भविष्यवाणी का कोई तरीका खोज नहीं पाए हैं? या मौसम विभाग की भविष्यवाणी और आपदा की पूर्व सूचनाएं विभाग के दफ्तर में ही पड़ी रहती हैं और इस बीच बादल फटकर तबाही फैलाकर चले भी जाते हैं? पिछले कुछ समय से उत्तराखंड में बादल फटने की घटनाओं में भी इजाफा हुआ है. गत डेढ़ महीने के दौरान ही उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग और बागेश्वर में बादल फटने की आधा दर्जन से ज्यादा घटनाएं हुई हैं.

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. शरद कुमार जैन कहते हैं, ''दस सालों में बादल फटने की घटनाओं में जबरदस्त इजाफा हुआ है, लेकिन इसका पूर्वानुमान लगाने की दिशा में कोर्ई शोध कार्य नहीं किया गया.'' दूसरी ओर उत्तराखंड राज्य विज्ञान और प्रौद्योगिकी परिषद के निदेशक डॉ. राजेंद्र डोभाल कहते हैं, ''तेज बारिश और तूफान जैसी आपदाओं की सूचना मौसम विभाग बड़ी आसानी से दे सकता है, लेकिन वह भी विभाग की फाइलों में ही पड़ी रहती हैं.''

इस विपदा ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि उत्तराखंड में एक के बाद एक आपदाओं की चपेट में आ रहे लोगों की जिंदगी सरकार के लिए बिलकुल कीमती नहीं है.

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