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बेटा चाहिए, पर बेटी को नहीं मारूंगी

आदिवासी और अनपढ़ यशोदा बेटियों को मारने वाले पढ़े-लिखे शहरी लोगों के लिए एक मिसाल हैं. यशोदा ने अपनी बेटियों को गर्भ में और जन्म के बाद न मारने के लिए सास-ससुर, घर-परिवार व समाज सबसे मोर्चा लिया.

अपडेटेड 15 सितंबर , 2012

समूचे देश में घट रहे लिंगानुपात से उत्तराखंड भी अछूता नहीं है. हालांकि दो दशक पहले पहाड़ी इलाकों में यह समस्या नहीं थी, लेकिन अब यहां भी हालात बदतर हो रहे हैं. स्थिति यह है कि सीमांत जनपद पिथौरागढ़ आज देश के उन दस जिलों में शामिल है, जहां लड़कियों की संख्या öति हजार लड़कों पर 700 से कम है.

लेकिन शहरी सभ्य समाजों की तुलना में आदिवासी समाज में आज भी लड़कियों की उस तरह हत्या नहीं की जाती. सीमा, सुनीता, गंगा, राधा और राखी एक ही मां की पांच लड़कियां हैं, जिन्हें लड़के की चाह के चलते गर्भ में मारा नहीं गया. दीगर बात यह है कि इनकी तीन बेनाम बहनें जन्म के कुछ दिनों बाद ही दुनिया से विदा हो गईं.

सामाजिक और परिवारिक दबाव के चलते इन बच्चियों की मां नौ वीं बार पेट से है. सातवां महीना चल रहा है. इस बार भी किस्मत दगा दे गई. लिंग परीक्षण से उसे पता चला है कि इस बार भी लड़की है. लेकिन अपनी बेटी को गर्भ में ही मार देने की बजाय वह आखिरी और नौवीं दफा लड़की को जन्म देने को तैयार है. यह कहानी है उत्तराखंड के जनपद ऊधम सिंह नगर के गदरपुर ब्लॉक के एक आदिवासी बुक्सा समाज में रहने वाली यशोदा की.

कभी मातृसतात्मक रहे आदिवासी बुक्सा समाज में 65 वर्षों से संचालित सरकार की तमाम विकास योजनाएं आज भी धराशायी हैं. बावजूद इसके पिछले एक दशक ने बुक्सा समाज को भी लिंग परीक्षण और लड़की को गर्भ में ही खत्म कर देने की आधुनिक तकनीक से जोड़ दिया है. लेकिन यशोदा उन महिलाओं में से नहीं है. उसने सास-ससुर, घर-परिवार व समाज से एक साथ मोर्चा लिया. वह बार-बार लड़के की खातिर गर्भवती होने को तो तैयार हुई, लेकिन लड़की पैदा होने पर उसे खत्म करने के खिलाफ उसने जी-जान लड़ा दी.

परिवार छूटा, नाते-रिश्तेदारों ने किनारा कर लिया, पति का होना, न होना भी बराबर है क्योंकि बेटा पैदा न होने से वह भी खुश नहीं है. जहां एक ओर राज्य व देश में बच्चियों की संख्या लगातार घट रही है, कन्या भ्रूण हत्याओं से बड़ी तादात में बच्चियों का जनसंहार हो रहा है, ऐसे में सबकी मर्जी के खिलाफ यशोदा का लगातार आठ लड़कियों को जन्म देना और उनकी गर्भ में हत्या के खिलाफ खड़ा होना बड़े साहस का परिचायक है.

यशोदा कहती है, ‘‘पहली लड़की होने पर कई दिनों तक ससुराल के लोग मेरे पास नहीं आए थे. आमदी (बुक्साओं में पति को आमदी कहते है) भी मुझसे नहीं बोले. सबकी इच्छा थी कि पहला बच्चा लड़का ही होना चाहिए था. अब यह क्या मेरे बस में है.’’ 30 वर्षीया यशोदा की शादी कम उम्र में ही हो गई थी. लड़की होने का दर्द उसने कदम-कदम पर झेला. घर वाले हर बार अल्ट्रासाउंड कराने काशीपुर और रुद्रपुर ले गए, लेकिन लड़की होने की जानकारी मिलने पर वह उन्हें मारने को तैयार नहीं हुई.

नब्बे के दशक तक पहाड़ पर लिंगानुपात कोई समस्या नहीं थी. बालिकाओं की संख्या बालकों के लगभग बराबर थी. 2011 की जनगणना के अनुसार 0-6 वर्ष तक का जो चाइल्ड रेश्यो आया है, वह भयावह है. 1991 की जनगणना में प्रति हजार बालकों पर 36 बालिकाएं कम पाई गई थीं. 2001 में लिंगानुपात का अंतर 36 से बढ़कर 98 हो गया और अब  2011 की जनगणना में प्रति हजार बालकों पर 886 लड़कियां हैं.

भ्रूणहत्या के खिलाफ पूरे देश में अभियान चलाने वाले साबु जॉर्ज कहते हैं, ‘‘उत्तराखंड महिलाओं के श्रम पर चलने वाला राज्य रहा है. यहां का यह लिंगानुपात बेहद खतरनाक है. ’’

बुक्सा समाज में महिलाओं के लिए काम कर रहीं महिला कल्याण संस्था की अध्यक्ष हीरा जंगपांगी कहती हैं, ‘‘बुक्सा समाज में ही नहीं, बल्कि हर समाज में महिलाओं की दशा ठीक नहीं है. यहां आज भी लड़कियों को मारने के पुराने तौर-तरीके इस्तेमाल होते हैं. हमने ऐसे अनेक मामले उठाए हैं, जहां महिलाओं ने हौसला दिखाया है. यशोदा उनमें से एक है.’’

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