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बिहार: आविष्कार को नमस्कार

किसी के सामने थी मां की बीमारी तो किसी ने पेट पर लात पड़ने के डर से 'जुगाड़' टेक्नोलॉजी की मदद से किए नए आविष्कार.

अपडेटेड 18 अगस्त , 2012

घर की महिला सदस्य बीमार है, आपको खाना बनाना नहीं आता और बाजार के खाने से पेट खराब हो जाता है. ऐसे में क्या करेंगे? परेशान मत होइए क्योंकि भागलपुर के नवगछिया के 20 वर्षीय अभिषेक भगत ने अहमदाबाद के नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन (एनआइएफ) की मदद से रोबोकुक मशीन बना ली है. यह मशीन आपको घर जैसा खाना ही नहीं बना कर देती बल्कि किसी भी प्रांत की रेसिपी भी तैयार कर सकती है. इसमें सिर्फ जरूरत होती है, रोबोकुक के पीसीबी (प्रिंटेड सर्किट बोर्ड) में उस प्रोग्राम को सेट करने की जिस रेसिपी का जायका आप लेना चाहते हैं.

इस नए प्रयोग के लिए अभिषेक को मार्च, 2012 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने 1,00,000 रु. की सहायता राशि और प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित किया था. यही नहीं, 2011 में अभिषेक के नाम को इंडिया रिकॉर्ड्स ऑफ बुक में भी दर्ज किया गया है. इससे पहले 2009 में पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने अभिषेक को अहमदाबाद में 'किचन किंग' के लिए सम्मानित किया था. उस समय कलाम ने इसे तकनीकी रूप से और अधिक उन्नत करने की बात कही थी. एनआइएफ और तकनीकी डिजाइनरों के सहयोग से अभिषेक ने रोबोकुक को तैयार किया है.Bihar Jugad

ताज्‍जुब यह कि रोबोकुक की सोच किसी वैज्ञानिक अनुसंधान का नतीजा नहीं है बल्कि अभिषेक की घरेलू परिस्थितियों की उपज है. उनकी मां सुलेखा देवी बीमार रहा करती थीं, जबकि पिता ओमप्रकाश भगत किराना दुकान संभालते थे. लिहाजा, बीमारी की हालत में भी उनकी मां को किचन संभालना होता था.

कभी-कभार उन्हें भी किचन में काम करना पड़ता था. अभिषेक बताते हैं, ''जब मैं आठवीं में था तभी मां को किचन से राहत पहुंचाने की चिंता थी. इसके लिए कागज पर किचन किंग का मॉडल तैयार किया, जिसे राष्ट्रपति को भेज दिया.

राष्ट्रपति ने इस मॉडल को एनआइएफ को भेजने का सुझाव दिया, जिसके सहयोग से किचन किंग तैयार हुआ. लेकिन किचन किंग नाम से बाजार में पहले से कई चीजें थीं, इस वजह से इसे रोबोकुक नाम से पेटेंट कराया गया. दिल्ली यूनिवर्सिटी से फिजिक्स ऑनर्स कर रहे अभिषेक के इस प्रयास को एक प्रतिष्ठित कंपनी की मदद से बाजार में उतारा जाएगा. करीब 14,000 रु. की लागत वाली इस मशीन को बिजली के बिना और कम कीमत में बनाने के प्रयास चल रहे हैं.

अभिषेक अकेले ऐसे शख्स नहीं हैं, जिन्होंने परिस्थितियों से निबटने में अपनी प्रतिभा दिखाई है. बिहार में दर्जनों ऐसे लोग हैं, जिन्होंने जुगाड़ टेक्नोलॉजी का सहारा लिया है. मोतिहारी के बेलवनवा के 64 वर्षीय वीरेंद्र कुमार सिन्हा को ही लें. छह साल पहले जनरेटर के शोर के कारण उनकी ग्रिल गेट बनाने की दुकान बंद करने की नौबत आ गई थी. जन शिकायत पर कोर्ट ने वीरेंद्र को दुकान को हटाने या फिर इसका हल खोजने का नोटिस दिया था. लिहाजा, तीन बच्चों वाले सिन्हा परिवार के सामने रोजगार की समस्या पैदा हो गई थी. पर हालात से हार मानने की बजाए उन्होंने ऐसा रास्ता निकाला जो उनके जैसे लोगों के लिए राहत का कारक बन गया.

उन्होंने 'काजल' नामक प्रदूषण निरोधी मशीन विकसित की, जिसे जनरेटर में लगा देने पर साइलेंसर की 100 और मशीन की 42 फीसदी आवाज कम हो जाती है. यही नहीं, यह डिवाइस करीब 80 फीसदी कार्बन पार्टिकल्स को भी अवशोषित कर लेती है, जो पर्यावरण की सुरक्षा के दृष्टिकोण से अहम है. सिन्हा बताते हैं, ''सालभर में 2,500 रु. से 25,000 रु. की करीब 150 डिवाइस बिक चुकी हैं.'' वे डिवाइस को पेटेंट कराने के लिए आवेदन भी कर चुके हैं.

यही नहीं, बाढ़ से प्रभावित इलाकों में अमूमन खाना बनाने के लिए चूल्हा और जलावन की समस्या रहती है. सो मोतिहारी के निस्काट मुहल्ले के 45 वर्षीय अशोक ठाकुर ने मोबाइल चूल्हा तैयार किया, जिसके जरिए नाव पर भी खाना बनाया जा सकता है. करीब 550 रु. कीमत वाले इस मोबाइल चूल्हे से एक घंटे में 5-6 लोगों का खाना एक रु. कीमत की भूसी से तैयार हो जाता है.

पांचवीं पास अशोक मीना बाजार स्थित दुकान में वर्षों से कोयला और लकड़ी के साथ भूसी के चूल्हों का निर्माण कर रहे थे. लोगों को पिछले साल इसकी जानकारी उस समय मिली जब राष्ट्रपति भवन के अशोक हॉल में प्रदर्शनी लगाई गई. अशोक बताते हैं, ''बाढ़ के समय लकड़ी और कोयला मिलना मुश्किल हो जाता है, तब अनाज रहने की स्थिति में भी भूखा रहना पड़ता था, भूसी के चूल्हे से इस कमी को पूरा करना संभव है.''

मुजफ्फरपुर के 26 वर्षीय विकलांग संदीप कुमार ने फोल्डिंग साइकिल का निर्माण किया है. पीएनटी कॉलोनी के संदीप जब आठवीं में थे तब स्कूल जाने के लिए चार किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती थी. लेकिन शहर से बाहर जाने के लिए उन्हें साइकिल की जरूरत महसूस होती थी. अब संदीप मुजफ्फरपुर हेड पोस्ट ऑफिस में डाक सहायक हैं. वे चाहते हैं कि सरकार का प्रोत्साहन मिले तो यह प्रयोग विकलांग लोगों के लिए उपयोगी साबित हो सकता है.

ताज्‍जुब है कि जुगाड़ टेक्नोलॉजी को विकसित करने वाले कम पढ़े-लिखे और जमीनी स्तर के लोग रहे हैं. एनआइएफ के बिहार कोलाबोरेटर अजहर हुसैन अंसारी बताते हैं, ''चयनित लोगों को एनआइएफ  से प्रोत्साहन तो मिल जाता है पर वे उद्यमी नहीं बन पाते क्योंकि राज्‍य सरकार से सहयोग नहीं मिल पाता.'' नीतीश कुमार की सरकार क्या इस तरफ ध्यान देगी? 

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