scorecardresearch

सिंधु घाटी सभ्यता और वैदिक संस्कृति

आज के हरियाणा के राखीगढ़ी में लगभग 4,500 साल पहले सिंधु घाटी के निवासी एक पुरुष जिसे आइ4411 नाम दिया गया है, के कंकाल से प्राप्त डीएनए के नमूने ने आनुवंशिकीविदों को उलझन में डाल दिया.

इतिहास की उलझन
इतिहास की उलझन
अपडेटेड 5 सितंबर , 2018

मैं आमतौर पर प्राचीन भारतीय इतिहास को लेकर ज्यादा माथापच्ची नहीं करता. हालांकि, जब प्रबंध संपादक काय फ़्रीज़े ने मुझे सिंधु घाटी सभ्यता (आइवीसी) पर विशेष रूप से वैदिक संस्कृति के संबंध में एक नई वैज्ञानिक खोज के बारे में सूचित किया, तो मेरी दिलचस्पी बढ़ी. जाहिर है, देश में मौजूदा विवादों को ध्यान में रखते हुए, इसकी प्रासंगिकता से इनकार नहीं किया जा सकता. आइवीसी को वैदिक सभ्यता के रूप में पेश करके वेदों को भारत की सभ्यता की शुरुआत के साथ ही रचे गए सबसे प्राचीन ग्रंथ के रूप में स्वीकार्य बनाने से जुड़े प्रयास भी होने लगे.

हालांकि, आनुवांशिकी विज्ञान में हुई प्रगति की बदौलत अब आइवीसी ने अपने कुछ रहस्यों को प्रकट करना शुरू कर दिया है. आज के हरियाणा के राखीगढ़ी में लगभग 4,500 साल पहले सिंधु घाटी के निवासी एक पुरुष जिसे आइ4411 नाम दिया गया है, के कंकाल से प्राप्त डीएनए के नमूने ने आनुवंशिकीविदों को उलझन में डाल दिया.

सबसे चौंकाने वाला पहलू यह था कि इस कंकाल आइ4411 के डीएनए में R1a1 जेनेटिक मार्कर पाया ही नहीं गया. यह महत्वपूर्ण है क्योंकि R1a1 को अक्सर बोलचाल में 'आर्यन जीन' कहा जाता है जो भारत की आधुनिक आबादी में व्यापक रूप से फैल गया है, हालांकि यह भी काफी हद तक भ्रामक ही है. संकेत यह है कि आइवीसी के लोगों के जीन दक्षिण भारतीय जनजातियों के जीन के ज्यादा करीब पाए गए हैं. 'आर्यन जीन ' तो मूल रूप से स्टेपी के घास के मैदानों के लोगों का है जो यूरोप की ओर से भारत चले आए थे और पहले के अध्ययनों ने पाया है कि उत्तर भारत की उच्च जातियों में यह विशेष रूप से पाया जाता है.

हमारे उद्गम से जुड़ा यह तथ्य भावनात्मक विषय है क्योंकि पहचान के संकट को लेकर देश में राजनैतिक आंदोलन खड़े हुए हैं. इसी मुद्दे को उठाकर 1960 के दशक में तमिलनाडु में द्रविड़ पार्टियों का उभार हुआ और हाल ही में, 'बाहरी लोगों' की पहचान करने के लिए असम में तैयार नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर पर मचा बवाल भी पहचान के संकट से ही जुड़ा है.

पश्चिमोत्तर भारत में 3500 और 1800 ईसा पूर्व के बीच विकसित शुरुआती कांस्ययुगीन सिंधु घाटी सभ्यता के निवासियों का मूल उद्गम स्थल क्या है, यह इस भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे बड़े और सबसे लंबे समय से चले आ रहे रहस्यों में से एक है.

 2014 की अपनी बेस्टसेलर किताब सेपियन्स में, विद्वान और इतिहासकार युवाल नोआ हरारी पश्चिम एशिया के सुमेरियाई और मेसोपोटामियाई सभ्यताओं को अपनी किताब के कई पन्ने समर्पित करते हैं, लेकिन उन सभ्यताओं के समकालीन आइवीसी को बस एक छोटे से संदर्भ के रूप में देकर निकल जाते हैं जबकि आइवीसी का क्षेत्र उन दोनों सभ्यताओं से दोगुना था.

ऐसा इसलिए है क्योंकि सुमेर और मेसोपोटामिया की प्राचीन क्यूनिफॉर्म लिपि को डीकोड किया जा चुका है, लेकिन हमें अभी तक आइवीसी के लोगों की भाषा को समझने के लिए जरूरी वह रोसेटा स्टोन नहीं मिल सका है जिसने सुमेरियाई और मेसोपोटामियाई भाषाओं को डिकोड करने में सक्षम बनाया था. इसलिए प्राचीन सुमेरियाई लोगों का दैनिक जीवन कैसा था और उनके अस्तित्व से जुड़ी बातें काफी हद तक अब हम जानते हैं, लेकिन आइवीसी को लेकर हमें कुछ भी विशेष नहीं पता.

जब तक इसकी लिपि को समझ नहीं लिया जाता, हम यह ठीक-ठीक नहीं जान पाएंगे कि इसके निवासियों ने वास्तव में कैसा जीवन बिताया, ये किनकी पूजा करते थे, कैसे उन्होंने अपने फ्लश शौचालयों, जल आपूर्ति और सीवेज सिस्टम से युक्त पक्की ईंट के घरों वाली जैसी आकर्षक नगर सभ्यता विकसित की, चार सहस्राब्दी बाद भी भारत के कुछ हिस्से उसके लिए तरस रहे हैं.

उदाहरण के लिए, हम तो यह भी नहीं जानते कि उत्कृष्ट चहारदीवारी के बीच बसे पक्के ईंटों के मकानों वाले इस शानदार शहरों को वास्तव में वे क्या कहकर पुकारते थे- मोएनजो दाड़ो और हड़प्पा तो इनके आधुनिक नाम हैं.

इस सप्ताह की हमारी कवर स्टोरी काय फ़्रीज़े ने लिखी है. काय पिछले एक साल से इस विषय पर नजर बनाए हुए थे. स्टोरी में उन नए खुलासों की पड़ताल हुई है जो इस तथ्य पर जोर देते हैं कि उपमहाद्वीप में कई अलग-अलग नस्लों से ताल्लुक रखने वाली आबादी रहा करती थी जिनमें से कुछ, यहां के समुद्रतटों पर दूसरों के मुकाबले पहले चले आए थे.

नए अध्ययन का निष्कर्ष आनुवंशिकीविद डेविड राइक द्वारा सिंधु घाटी के मूल निवासियों को लेकर दिए सिद्धांत पर फिट बैठता है कि ये मूलरूप से दक्षिण भारतीय लोगों के पूर्वज थे जिनमें दक्षिण एशियाई शिकारियों और ईरानी किसानों के अंश थे. इन निष्कर्षों पर शोध जारी रखने की जरूरत है.

यह नवीनतम शोध निष्कर्ष सिंधु घाटी के निवासियों को लेकर हाल तक माने जा रहे कुछ अहम सिद्धांतों को उखाड़ फेंक सकता है, वस्तुतः वे पूर्व के उसी धारणा को मजबूत करते हैं कि भारत किसी खास नस्ल के लोगों की भूमि होने की बजाए कई सभ्यताओं के निरंतर मिलन से तैयार हुआ और इस धरती पर सभ्यताओं का मेल-जोल चलता रहा है. कम से कम यह हमारे देश की महान ताकतों में से एक विविधता में एकता की भावना को रेखांकित करता है.

***

 
Advertisement
Advertisement