● पिताजी आपको पहलवान बनाना चाहते थे. कैसे आप संगीतकार बन गए?
पिताजी चाहते थे कि मैं परिवार की परंपरा को आगे बढ़ाऊं. लेकिन मेरा दिल संगीत पर रीझ गया. पड़ोस में रहने वाले ध्रुपद गायक और संगीत गुरु पंडित राजाराम को सुनते-सुनते उसमें मेरी गहरी दिलचस्पी पैदा हो गई. मां लोरी गाया करती थीं तो शायद खून में भी संगीत था.
● पर आपने गायिकी में जाने की बजाए बांसुरी को क्यों चुना?
पंडित राजाराम से मैंने गायिकी सीखनी शुरू तो की लेकिन मेरे गले में उतनी रेंज थी नहीं जितनी कि गायकों में होनी चाहिए. तो उन्होंने सुझाया कि संगीत की शिक्षा जारी रखनी है तो कोई साज चुन लो. अब मेरे पास सीमित साधन-सुविधाएं थीं, ऐसे में बांसुरी मेरे लिए एकदम सही पसंद निकली जो कि मुझे संयोगवश मिल गई. वही मेरी जिंदगी का निर्णायक मोड़ था.
● संगीत के परिदृश्य को आपने दशक-दर-दशक बढ़ते-बदलते देखा है. पहले के मुकाबले आज के संगीतकारों के लिए क्या बेहतर और क्या बदतर है?
संगीत की दुनिया का खासा विस्तार हुआ है और वह समावेशी भी बनी है लेकिन इसमें वह गहराई नहीं. आज के संगीतकार अपनी जगह बैठे-बैठे दुनिया में कहीं भी पहुंच सकते हैं. लेकिन मुझे यह देखकर बड़ा दुख होता है कि लोगों में धैर्य बहुत कम रह गया है. आज फटाफट परफॉर्म करने, उसे निखारने और कम-से-कम समय में कामयाबी पा लेने की हड़बड़ी है. इससे संगीत की आपकी तालीम, रियाज और समझ पर असर पड़ता है. हमारे श्रोता भी वैसे नहीं रहे जो एक आर्टिस्ट को सुनने के लिए पहले रात-रात भर बैठे रहा करते थे.
● आपके चाहने वाले क्या कुछ नए की उम्मीद करें?
मेरे गुरुकुल ने एक नया म्यूजिकल तैयार किया है: बांसुरी जब गाने लगे. यह मेरी जिंदगी की दास्तान और भारतीय सिनेमा में दिए गए संगीत पर आधारित है. 10 और 11 मई को इसकी प्रस्तुति बेंगलूरू में हुई थी और अब 30 मई को यह मुंबई के नेशनल सेंटर फॉर परफॉर्मिंग आर्ट्स में मंचित होने जा रहा है.
—नेहा किरपाल.