● किताब में बार-बार आप अपने दिल्लीवाला बनने को रेखांकित करते हैं और शहर के विभिन्न व्यंजनों की खोज - पड़ताल करते हैं...
मैं पहाड़ों से एक युवा के रूप में दिल्ली पहुंचा था. आप नौजवान हों और ताजा-ताजा स्वतंत्र बने हों तो नई जगहें देखने और नए व्यंजनों को आजमाने को लेकर बड़ा रोमांच-सा रहता है. और दिल्ली के बारे में आप कह सकते हैं कि शहर को देखने-जानने से पहले मैंने इसके खानपान को परख लिया. कभी-कभी हमारे पास दिल्ली की सबसे मशहूर दुकानों से भेजी मिठाइयां और पकवान आते थे.
● दिल्ली के खानपान के परिदृश्य को गढ़ने में प्रवासियों के खाने का कितना बड़ा रोल रहा है?
बेहद अहम रोल रहा है. आज बिहारी, मलयाली या बंगाली प्रोफेशनल किसी को भी अपने अंचल के खाने के लिए भटकना नहीं पड़ेगा. शहर में उसे बहुत सारे विकल्प मिल जाएंगे.
● एक जगह आपने 60 के दशक के पीआरआरएम (प्राइस राइज रेसिस्टेंस मूवमेंट) कॉफी हाउस का जिक्र किया है. वह आपकी पसंदीदा जगह थी?
एकदम. आप 50 पैसे में पेट भर भोजन कर सकते थे. इसलिए उन लेखकों, अभिनेताओं, बुद्धिजीवियों की वह पसंदीदा जगह थी जिनके पास अक्सर ज्यादा पैसे नहीं होते थे. वहां मैंने उम्र भर वाले अपने कई दोस्त बनाए. और फिर इमरजेंसी में तो उसे ध्वस्त ही कर दिया गया.
● भारत में आप क्या खा सकते हैं और क्या नहीं, इसे लेकर कानून की मांग करने वालों के बारे में आप क्या कहेंगे?
मैं तो यही कहूंगा कि दूसरे की खाने-पीने की आदतों पर चौकीदारी कमजोर बुद्धि वालों की निशानी है और थोड़ा बड़े फलक पर रखकर कहें तो यह जनता के असुरक्षित, अशिक्षित होने की पहचान है. एक आदर्श संसार में किसी भी सरकार या शासक को ऐसा नहीं करना चाहिए.