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"हाथ से सितार ले लिया जाए तो मैं दुनिया के किसी काम का नहीं"

इंडिया टुडे से बातचीत में मशहूर सितारवादक उस्ताद शुजात खान ने क्या क्या बताया

उस्ताद शुजात खान, मशहूर सितारवादक
उस्ताद शुजात खान, मशहूर सितारवादक
अपडेटेड 14 अक्टूबर , 2024

उस्ताद शुजात खान इस दौर के श्रेष्ठतम सितारवादकों में से एक हैं. छह साल की उम्र से ही स्टेज पर परफॉर्म करने वाले, ग्रैमी अवार्ड के लिए नामित, इमदाद खान घराने के ये 64 वर्षीय संगीतकार जितने सादगी पसंद हैं उतने ही जिंदादिल. एक अरसा पहले वे दिल्ली की चिल्लपों से दूर गोवा के एक गांव में जा बसे जो पणजी से 12 किमी दूर है. दी लल्लनटॉप और इंडिया टुडे के संपादक सौरभ द्विवेदी ने हाल में जिंदगी के तमाम पहलुओं पर उनसे लंबी बातचीत की. उसी के अंश:

सितार से जुड़ी आपकी पहली स्मृति क्या है?

छह साल की उम्र थी जब बंबई में जहांगीर आर्ट गैलरी के किसी प्रोग्राम के लिए सितार बजाया था. वे लोग आए थे उस्ताद विलायत खान से कोई कार्यक्रम करवाने, लेकिन अब्बा ने कहा कि आप शुजात से बजवा लें. मुझे याद है, तबले पर निजामुद्दीन खान साहब थे. मैंने राग देस बजाया था. उसके बाद दस साल की उम्र तक साल के 12-15 प्रोग्राम करने लगा था.

उस्ताद विलायत खान आपके पिता और गुरु दोनों थे. गुरु पर कभी पिता का असर पड़ता था?

बतौर गुरु, उस्ताद विलायत खान साहब आज भी मेरे लिए खुदा हैं. दुनिया जानती है कि वे एक महान कलाकार थे, उनके अनगिनत चाहने वाले थे. वे हमेशा अपने चाहने वालों से घिरे रहते थे. शायद इसीलिए वे अक्सर भूल जाते थे कि उनके बेटे को उसका पिता भी चाहिए होता था. कभी पीठ पर पिता की तरह थपकी नहीं दी, इसलिए एक बाप और बेटे के बीच जो भरोसा होता है वह नहीं पनप सका. यही वजह रही होगी कि मैं सतरह साल की उम्र में घर से निकल गया.

और घर छोड़कर जाने के बाद क्या किया?

मेरा निकलना एकदम गुस्से में बताकर निकलने जैसा नहीं था. कोई प्रोग्राम बता दिया और महीनों घर नहीं आया. जो काम मिला, करता रहा. 1978 में न्यूयॉर्क में बस धोने का काम किया, फ्लोरिडा में संतरों के बगीचों में काम किया, मछली पकड़ने वाली नावों पर काम किया, ऐसे ही काम जिनका म्यूजिक से कोई लेना-देना न था. पर जिंदा रहने के लिए पैसे तो चाहिए थे.

लेकिन आप तो सीखे-सिखाए कलाकार थे! म्यूजिक इंडस्ट्री में या लाइव परफॉर्मेंस का काम आप तक नहीं पहुंचता था?

बचपन से मुझमें खुद्दारी की भावना बहुत ज्यादा रही. पूरी दुनिया में आपको एक भी आदमी ऐसा न मिलेगा जो यह कह दे कि शुजात उसके पास काम मांगने आया था. न, आपको मेरा काम चाहिए तो सम्मान से मुझे कहना पड़ेगा. बैकग्राउंड म्यूजिक में मैं आर.डी. बर्मन, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, ओ.पी. नैयर वगैरह के साथ काम करता था. किशोर कुमार, मोहम्मद रफी के लिए काम करके पैसे कमा लेता था लेकिन काम हमेशा रहता नहीं था. मुझे काम लोग इसलिए भी नहीं देते थे कि कहीं विलायत खान साहब को बुरा न लग जाए. अपनी जिद की वजह से मैंने जिंदगी में बहुत बुरा दौर भी देखा.

इस बारे में कभी अब्बू से बात की?

कई बार. खुलकर पूछा कि आपको मुझसे क्या दिक्कत है? चाहते क्या हैं आप मुझसे? वे बहुत बड़े कलाकार थे लेकिन पिता भी तो थे! बहरहाल बाद में उन्हें महसूस हुआ और माना कि हमारे रिश्ते खराब होने की कई वजहें रहीं. मेरे खिलाफ लोग उनके कान भरते रहे. मेरी गलती ये रही कि मैं कोई बात बहुत समझा नहीं सकता. जब उन्हें कैंसर था तब आखिरी समय में हम दोनों साथ रहे. वह समय हमारे रिश्तों के लिए मरहम की तरह काम आया.

शास्त्रीय संगीत में संगत का जोर देखने में आता है. आपने बहुत कम किसी की संगत में परफॉर्म किया है.

संगत के लिए आपको दूसरे कलाकार के साथ समय बिताना पड़ेगा, दोस्ती करनी पड़ेगी जबकि म्यूजिक की दुनिया में मेरे गिनती के दोस्त हैं. मैंने अब्बू के समय से घर में देखा कि आर्टिस्ट देर रात तक बैठे बातचीत करते थे, जो कभी तो काम की होती थी, कभी बेकार. मैंने सोच लिया था कि मैं अपनी लाइफ डिसिप्लिन के साथ बिताऊंगा. मेरा स्टाइल बिल्कुल साधारण है, कोई चमक-दमक नहीं, ज्वेलरी नहीं. स्टेज पर जब आपके माथे का पसीना चमकता है तो उसके सामने महंगी से महंगी ज्वेलरी की चमक फीकी पड़ जाती है. यहीं आपकी सीख काम आती है.

आपने सीख की बात की. आपने उस्ताद अमीर खान साहब और पंडित भीमसेन जोशी से भी सीखा है. उन दिनों की क्या याद है?

मुझे यह कहते हुए बड़ा गर्व होता है कि मैं अपनी पीढ़ी का इकलौता ऐसा आर्टिस्ट हूं जिसने ऐसे उस्तादों के साथ महीनों गुजारे हैं. जब आप ऐसे महान उस्तादों के साथ समय गुजारते हैं तो उनकी खुशबू आपके साथ घुल जाती है. ये लोग कभी किसी के आत्मसम्मान को ठेस नहीं लगने देते थे. बहुत प्यार और बड़े जतन से सिखाने वाले गुरु थे. अमीर खान साहब सिखाते हुए कहते कि 'सीख ले, ये सब तेरे बाप को भी नहीं मालूम.’ आप सोचिए, उस्ताद विलायत खान जमीन पर बैठकर तानपुरा बजा रहे हैं और उस्ताद अमीर खान साहब मुझे सिखा रहे हैं. ऐसा प्यार और आशीर्वाद रहा है गुरुओं का मुझ पर.

आपको कभी इस बात का मलाल रहा कि आप कॉलेज नहीं गए?

बिल्कुल नहीं. मुझे तो इस बात का मलाल रहा कि मैं स्कूल भी क्यों गया? किताबें रटने में मेरा बिल्कुल मन नहीं लगता था. और स्कूली दिनों में घर की परिस्थितियां कुछ ऐसी थीं कि मैं रात में सितार पर खूब रियाज करता था. दिन में स्कूल और रात में रियाज. स्कूल के दिन ऐसे थे कि एक बार तीन विषयों के टेस्ट हुए, तीनों में मुझे जीरो मिला. टीचर ने गुस्से में मेरे टेस्ट पेपर दीवार पर लगा दिए. मुझे आज भी यह कहने में कोई शर्म नहीं कि मेरे हाथ से सितार ले लिया जाए तो मैं दुनिया के किसी काम का नहीं. दुनिया को जो वापस कर पाता हूं, सितार की मार्फत ही कर पाता हूं.

आमतौर पर लोग अपने सच स्वीकारते नहीं. कम से कम लोगों से तो नहीं कहते.

मैं स्वीकारता भी हूं और कहने में भी कोई हर्ज नहीं. शास्त्रीय कलाकार को लगता है कि पब्लिक में उसकी इमेज एकदम संत जैसी होनी चाहिए. मुझे नहीं लगता. क्योंकि जिन लोगों को आप यह बता रहे हैं, उन्हें हौसला मिले कि बिना संत हुए और बिना महानता का बोझ लिए भी कामयाब हुआ जा सकता है. मुझे ऑनलाइन चीजें ऑर्डर करने का और दोस्तों के साथ घूमने का भी शौक है. मैं टीवी भी बहुत देखता हूं. ये सब स्वीकारने में कैसी शर्म? पिता से कहता था कि मुझे कोई घुट्टी पिला दीजिए ताकि मैं आप जैसा महान हो जाऊं. बाद में समझ आ गया कि बिना मेहनत कुछ नहीं होगा. इसीलिए कहता हूं, मुझसे सीखना है तो मेरा संगीत सीखिए, और कुछ नहीं.

आर.डी. बर्मन और किशोर कुमार के साथ आपके काम की क्या स्मृतियां हैं?

एक यादगार वाकया बताता हूं. इससे आप इन कलाकारों के दिग्गज होने की वजह समझ सकेंगे. एक बार स्टूडियो में किशोर कुमार को गाने के लिए बुलाया गया. आर.डी. बर्मन का ही म्यूजिक था. गाने में घोड़े का जिक्र था. किशोर कुमार ने प्रोड्यूसर से कहा कि ऐसे मूड नहीं जमेगा, घोड़ा मंगवाओ, उसे देखकर गाना गाऊंगा. प्रोड्यूसर परेशान कि खड़े पांव घोड़ा कहां से मंगवाए! खैर, लोग घोड़ा लेने दौड़े. सारे कलाकार इंतजार में बैठे रहे.

एक शिफ्ट बीत गई. किशोर कुमार ने प्रोड्यूसर से कहकर सबके लिए बिरयानी मंगवाई. सबको दो शिफ्ट के पैसे देने को कहा. बर्मन साहब ने उनसे पूछा कि ऐसा क्यों कर रहे हैं? तब पता चला कि किशोर कुमार इंडस्ट्री में जब नए थे तो इसी प्रोड्यूसर ने एक बार उनको स्टूडियो से बिना गवाए वापस भेज दिया था. इतने सालों बाद वे उसी का बदला ले रहे थे, लेकिन बदले में भी दूसरों का फायदा देख रहे थे.

आपने रफी साहब का भी जिक्र किया था. उनके साथ समय कैसा रहा?

उनके साथ मैंने बहुत कम वक्त गुजारा क्योंकि वे बहुत सामाजिक किस्म के आदमी नहीं थे. सबकी अपनी तबीयत होती है. जैसे किशोर कुमार गाना खत्म होने के बाद सबको लेकर घर चले जाते थे कि चलो भाई, सब साथ में खाना खाते हैं. लेकिन रफी साहब का यह था कि गाना गाया और सीधे घर. घर से स्टूडियो और स्टूडियो से घर. उनके साथ हमारी तो रिश्तेदारी ही थी. तो साथ में उठते-बैठते जरूर थे. तब के कलाकारों का जमाना ही अलग था.

● उस जमाने को थोड़ा और आपकी नजर से जानना-समझना चाहें तो कैसे दिन याद आते हैं?

एकदम खुशी और जिंदगी से भरपूर दिन थे वे. एक बार मेरे वालिद साहब, नौशाद साहब, लता मंगेशकर जी, नरगिस जी और युसूफ साहब (दिलीप कुमार) हमारे यहां बैठे हुए थे. उन सबकी जुबानी मैंने एक किस्सा सुना. तब लता जी के बहुत शुरुआती दिन थे. अब देखिए कि कलाकार कैसे आपस में हंसी-मजाक करते थे. किसी ने नौशाद साहब से कहा कि लता बाई का आप पर दिल आ गया है. वे घबराकर 'नहीं, नहीं’ कहने लगे. उधर लता जी से चुपके से कहा गया कि ये नौशाद साहब की एक टांग लकड़ी की है पर किसी को बताते नहीं.

दूसरे दिन लता जी को नरगिस जी ने कहा कि नौशाद के पास बैठो. उधर यूसुफ साहब नौशाद साहब को छेड़ रहे हैं कि देखो, लता तुम्हारे पास आकर बैठी है. नरगिस जी के कहने पर लता जी ने बातों बातों में नौशाद साहब के पैर पर हाथ रख कर देखा तो वह लकड़ी का नहीं था. यूसुफ साहब नौशाद साहब से कह रहे हैं कि देखो! कह रहा था न कि ये तुम्हें प्यार करती हैं. सबको पता है कि इन दोनों लोगों के साथ हंसी हो रही है. तो इस तरह की मासूम चुहलबाजियों का जमाना था वो. कलाकार एकदम परिवार की तरह रहते थे.

आज के दौर में एक तरफ शास्त्रीय संगीत है तो दूसरी तरफ रैप म्यूजिक भी. भारत में रैप करने वालों के बारे में आपका क्या खयाल है?

देखिए, मैंने यहां का रैप सुना नहीं है. बहुत पहले मैं सुनता था लेकिन अमेरिका के रैपर्स को. बाद में वह भी बंद कर दिया. कोई भी आर्ट अच्छा या बुरा नहीं होता, इसके अपने-अपने पहलू और देखने के अपने-अपने नजरिए होते हैं. देखिए, हनी सिंह और बादशाह का कितना नाम है, लेकिन खुद को एक्सप्रेस करने का इनका अपना तरीका है. एक बार मैं दुबई से आ रहा था तो एक लड़का आकर मेरे पैर छूकर गया. फिर किसी ने बताया कि वो हनी सिंह था. प्यारे लोग हैं. सब कलाकार हैं. और सुनने वालों के पास विकल्प तो हमेशा मौजूद ही है.

पुरस्कारों पर आपका क्या कहना है? उस्ताद विलायत खान साहब ने तो पद्म पुरस्कार लेने से ही इनकार कर दिया था. और आपको अब तक नहीं मिला.

सिफारिश और गुजारिश से जो चीज मिलनी हो, उसका क्या करना है! मेरे वालिद साहब अपने वक्त के सबसे दिग्गज कलाकार थे. उनके रहते कई लोगों को पद्म पुरस्कार मिला. फिर जब उन्हें मिला तो उनका कहना था कि आप रखिए अपना पुरस्कार, मुझे कोई ऐसा पुरस्कार हो तो दीजिए जो पहली बार मुझे ही मिले. आज लोग उस्ताद विलायत खान और उनके म्यूजिक को याद करते हैं. किसको फर्क पड़ता है किसी पुरस्कार से! मेरे मामले में भी मेरा यही मानना है कि पुरस्कार के लिए किसी लाइन में लगने की जरूरत नहीं. मुझे अपने सुनने वालों से जो प्यार मिलता है वह बराबर मिलता रहेगा. फिर क्यों परेशान होना. मेरे लिए सुनने वालों का प्यार, उनकी दी हुई इज्जत ही सबसे बड़ा पुरस्कार है.

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