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"संगीत के लिए मंच पर जाने से पहले और उतरने के बाद बहुत कुछ होता है देखने-सुनने के लिए"

शास्त्रीय गायिका शुभा मुद्गल से उनके बचपन के किरदारों, संगीत की शुरुआत और उनकी किताब पर सौरभ द्विवेदी से बातचीत

शास्त्रीय गायिका शुभा मुद्गल
शास्त्रीय गायिका शुभा मुद्गल
अपडेटेड 31 अक्टूबर , 2023

● आपकी किताब लुकिंग फॉर मिस सरगम किस बारे में है? संगीत के जरिए मुखरता से अपनी बात कहती आईं शुभा मुद्गल बतौर लेखक और क्या कहना चाहती हैं?

संगीत के लिए मंच पर जाने से पहले और उतरने के बाद बहुत कुछ होता है देखने-सुनने के लिए. एक पूरी दुनिया है अपने किस्सों और अनुभवों के साथ. मुझे लगा कि इनके बारे में लिखना चाहिए, कुछ बरसों तक तो मैंने संगीत पर एक कॉलम लिखा भी.

सब कुछ सीधे कहा नहीं जा सकता, इसलिए मैंने सोचा कि इसे गल्प के तौर पर लिखा जाए. तो अब तक जो देखा-सुना, उसको मैंने लुकिंग फॉर मिस सरगम नाम की इस किताब में कहने की कोशिश की है.

● आपने यह किताब समर्पित की है अपने माता-पिता को, जो इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हुआ करते थे. उस दौर का आप पर क्या और कितना असर रहा?

मां और पिताजी दोनों ने संगीत सीखा था. दोनों के मन में संगीत को लेकर बहुत आस्था और लगाव था इसीलिए मुझे और मेरी बहन को पूरा मौका मिला आर्ट को समझने का, बरतने का. जब मैं पोस्ट ग्रेजुएशन में एडमिशन लेने जा रही थी, एक दिन मां ने अपने पास बिठाया, कहा 'मुझे तो लगता है तुम्हारे मन में संगीत के लिए जुनून है, खुश तभी लगती हो जब संगीत में होती हो’. तो मेरे जीवन ने जो भी दिशा ली, वह उन्हीं के मार्गदर्शन से मुझे मिली.

● सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा से जुड़ी आपके बचपन की एक मजेदार घटना है, क्या है वह?

बचपन में हमारे एक पिल्ले का देहांत हो गया था और मैं बहुत ज्यादा उदास रहती थी. पंत जी ने वादा किया कि महादेवी जी के यहां से एक कुत्ता दिलवा देंगे. हम पंत जी के साथ उनके यहां पहुंचे तो महादेवी जी ने मना कर दिया. मैं बालहठ में रोने लगी. बाद में महादेवी जी खुद हमारे घर आईं और वह प्यारा-सा कुत्ता हमें सौंप दिया.

● साहित्य नगरी इलाहाबाद में और भी रचनाकारों से जुड़ी आपकी यादें होंगी...

इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में मशहूर शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का आना हुआ. फ़ैज़ साहब की नज्म किसी स्टूडेंट को गानी थी. लेकिन उनका गला खराब हो गया. बिना किसी तैयारी के मैंने शाम-ए-फिराक अब न पूछ... गाया. हाथ में एक पर्चा था जिस पर नज्म लिखी हुई थी. फ़ैज़ साहब ने वह पर्चा देखा और कहा 'आज ये नज़्म तुम्हारे नाम’, और पर्चे पर दस्तखत कर दिए.

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