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गीतकार की इज्जत कामयाबी पर निर्भर है जेंडर पर नहीं

तभी तो खुद गुलजार कहते हैं, ''इसके पहले भी कुछेक महिला गीतकार हुई हैं लेकिन कौसर की ये खूबी है कि वे आज की मॉडर्न पोएट लगती हैं. तुलना करना चाहें तो कह सकते हैं कि उनकी पोएट्री में परवीन शाकिर जैसा लुत्फ है.

कौसर मुनीर
कौसर मुनीर
अपडेटेड 20 जून , 2023

बातचीत/कौसर मुनीर

कौसर मुनीर उस वाकए को ताउम्र भुला न पाएंगी. लॉकडाउन के दौरान गीतकार और उनके आइडियल गुलजार ने उन्हें एक किताब भेजी: 365 पोएम्स. इसमें शामिल भारतीय उप-महाद्वीप के 279 कवियों की कविताओं का उन्होंने अंग्रेजी और हिंदुस्तानी में अनुवाद किया था. किताब के पहले पन्ने पर कुछ लिखा था पर उर्दू लिपि में.

अरे! क्या उन्हें पता न था कि मुंबई में ठेठ बांद्रा की पैदाइश, मुसलमान फैमिली की, कॉन्वेंट में पढ़ी और हिंदुस्तानी जबान में फिल्मों के लिए गाने लिखती आ रही बेचारी कौसर को उर्दू पढ़ना नहीं आता! अब? वे चाहतीं तो किसी से पढ़वा लेतीं पर फिर उनकी क्रिएटिव सरकशी और मौन बगावत का क्या होता. तय किया कि इसे वे ही पढ़ेंगी.

उन्हें आगे चलकर सरकशी का परचम फहरा दो लिखना था (फिल्म 83), जिसके लिए 2022 में फिल्मफेयर अवार्ड के इतिहास में पहली बार किसी महिला गीतकार को तमगा मिला (इस गाने को यूट्यूब पर अब तक 3.6 करोड़ से ज्यादा बार देखा जा चुका है). कौसर ने किताब को छुपाए रखा और लॉकडाउन के दौरान ही लखनऊ के युवा शायर अभिषेक शुक्ल से उर्दू सीखी. फिर पहला पन्ना खोला. लिखा था: प्यारी कौसर, कोसा कोसा लगता है/तेरा भरोसा लगता है/रात ने अपनी थाली में/चांद परोसा लगता है.

लेकिन कौसर को चेहरे, गली-कूचों की जबान, अनकहे इमोशंस पढ़ना और उन्हें शब्दों में पिरोना आता था. हवा को सांस, पानी को घूंट और राख को भभूत में बदलना आता था. तभी तो खुद गुलजार कहते हैं, ''इसके पहले भी कुछेक महिला गीतकार हुई हैं लेकिन कौसर की ये खूबी है कि वे आज की मॉडर्न पोएट लगती हैं. तुलना करना चाहें तो कह सकते हैं कि उनकी पोएट्री में परवीन शाकिर जैसा लुत्फ है. उनके जैसा लिखती हैं वे. उन पर उस घराने का भी असर है जिसमें वे पैदा हुईं. और एक खास बात: उनमें उर्दू नज्म का फ्लेवर है.’’

यही कोई डेढ़ दशक पहले कौसर, उन्हीं के शब्दों में, टहलते-टहलते नगमानिगारी की दुनिया में आ पहुंची थीं फलक तक चल साथ मेरे (टशन) लिखकर. लेकिन इशकजादे के खिलंदड़ेपन वाले उनके आइटम सॉंग मेरा आशिक झल्ला वल्लाह ने परदे पर विस्फोट-सा कर दिया. और अभी ताजा आई रेट्रो सीरीज जुबली में मुजरे से लेकर बच्चों की पहेली और उदासी तक के 11 अलग-अलग मूड के उनके गानों ने जैसे गीतकार की उनकी हैसियत पर स्टांप जड़ दिया.

वे पूरी प्लेफुलनेस के साथ टेक्स्चुअल को विजुअल में प्राणांतरित कर रही थीं. गीतकार वरुण ग्रोवर सिंप्लिसिटी के साथ गानों में ताजगी लाने की वजह से ही उनके कायल हुए: ''कौसर ने गानों में हिंदुस्तानी भाषा का अपने ढंग से इस्तेमाल करते हुए एक नई उड़ान हासिल की है. आप देखिए, परेशान की जगह परेशां; और झंडा, तिरंगा की जगह परचम का उन्होंने किस खूबसूरती से प्रयोग किया है.

झल्ला वल्लाह आशिक में उनकी सिंप्लिसिटी, काव्यात्मकता और अल्हड़पना देखिए. वे कुछ भी सिर्फ हुकलाइन क्रिएट करने को नहीं लिखतीं.’’ वरुण जुबली के एक गाने का खास तौर पर जिक्र करते हैं: वो तेरे मेरे इश्क का इक शायराना दौर-सा था. वो मैं भी कोई और ही थी, वो तू भी कोई और ही था. ''कहीं मुश्किल अल्फाज नहीं, इसके बावजूद इससे निकलने वाले अर्थ में गजब का इमोशन और गहराई है.’’

ट्रेडिशन और मॉडर्निटी के बीच उनकी बेलौस आवाजाही एक और पहलू है जो गीतकार स्वानंद किरकिरे को छूती है. वे जोड़ते हैं, ''अब दुपहरी के पीछे न भागूंगी धमधम में जिस तरह से उन्होंने एक लड़की की आजादी की बात लिखी, कोई पुरुष गीतकार शायद न लिख पाता.

कौसर मुनीर हमारे वक्त के लिए एक बहुत बड़ा तोहफा हैं.’’ कांधे का तिल, सीने में दिल और बिजली का बिल; खुशियों का समंदर और पिनकोड का नंबर; धमधम, छमछम, चमचम; क्यूट और करारी; कष्ट और भ्रष्ट. वोकैबुलरी की अपनी एक भरी-पूरी बावड़ी तैयार कर सिनेमा को सींचने वाली कौसर मुनीर से एसोसिएट एडिटर शिवकेश ने सिनेमा और जिंदगी के उनके सफर पर बात की.

आपने चालीस-पचास के दशक के इंडियन सिनेमा की जमीन पर बनी, अमेजन प्राइम पर हाल ही आई जुबली सीरीज के लिए 11 गाने लिखे. इस प्रोजेक्ट के दूसरे स्टेकहोल्डर्स की तरह आपका भी इससे कद बढ़ा. किस तरह से अप्रोच किया था आपने इसे?

मुझ पर ये तोहमत लगाई जाती है कि मैं डायरेक्टर और स्क्रिप्ट के लिए काम करती हूं. इस पर मैं चकरा जाती हूं कि और किसके लिए काम करना चाहिए? मेरी समझ ये है कि हमारे नगमों को स्क्रिप्ट के साथ चलना चाहिए. जो बात डायलॉग न कह सकें, वो गीतों को कहनी चाहिए. यह पीरियड ड्रामा था. इसमें मैंने स्क्रिप्ट और विक्रम (डायरेक्टर: विक्रमादित्य मोटवाणे) के डायरेक्शन को फॉलो किया. इसके कंपोजर अमित (त्रिवेदी) के साथ पिछले कुछ साल से साथ काम करती आई थी. मेरा पहला पूरा एल्बम इशकजादे उन्हीं के साथ था.

पर गानों में उस दौर को उकेरना...

देखिए, आजकल यह फ्रेज बन गया है कि हम 16 से 24-25 वाले एज ग्रुप के लिए गीत या फिल्म लिख रहे हैं. पर इसमें ब्रीफ ही यही था कि हमें रेट्रो होना है. तो सारी चीजें जैसे किसी ने तश्तरी में परोस दीं. अब सवाल था कि कहानी भले 1940 की है, देखने-सुनने वाले तो 2023 के हैं. मुझे लगता है, लोगों को मायने भी न पता हों पर उनको वाइव्स और नीयत पता चल जाए तब भी वे गाना एन्जॉय कर लेते हैं.

हमने तय किया कि थोड़ी-सी छेड़खानी करेंगे फॉर्म के साथ लेकिन उसकी रूह को पुरानी ही रखेंगे, देखते हैं क्या होता है. जैसे उड़े उड़नखटोले नैनों के तेरे गाने का पुरानापन उसके फेवर में गया. उडऩखटोले, नयन, हिंडोले ये शब्द नए लगते हैं. जान, जिगर, नजर, सनम बस पुराने लगने लगे क्योंकि वे ओवरयूज हो चुके हैं. और इसका जो मुजरा है, वो तेरे-मेरे इश्क का...शूटिंग के वक्त सबसे ज्यादा ये यंग क्रू का, असिस्टेंट डायरेक्टर्स और इंटर्न्स का पसंदीदा गाना था.

आपको गानों के लिए क्या कुछ रेफरेंस पॉइंट बताए गए थे?

हां. जैसे क्लब वाले बाबूजी भोले-भाले गाने के लिए गीता बाली, गीता दत्त का और दरिया चा राजा के लिए राज कपूर-शंकर जयकिशन का, रमैया वस्तावय्या का रेफरेंस था.

जहां तक इस प्रोजेक्ट की बात है, मुझे छोड़िए, कम ही लोगों को ऐसा मौका मिलता है क्योंकि ऐसी चीजें बनती ही नहीं हैं. इसी तरह का एक और रेट्रो प्रोजेक्ट था रॉकेट बॉएज, जिसमें विक्रम साराभाई और होमी भाभा की कहानी है. मैंने उसके सभी 16 एपिसोड्स के डायलॉग लिखे. रॉकेट बॉएज और जुबली मेरे लिए पर्सनल माइलस्टोन हैं.

आप रूमानियत और रियलिटी का बेहद खिलंदड़े अंदाज में इस्तेमाल करती हैं: कांधे का तिल, सीने में दिल और बिजली का बिल (पैडमैन)...

रिश्तों को लेकर जो रोमांटिसिज्म और आइडियलिज्म होता है, उसमें रियलिटी चेक का सामना तो करना ही पड़ता है. खुशियां, ख्वाब और जनम जनम का साथ तो ठीक है लेकिन दिक्कतें तो रोजमर्रा की चीजों से ही शुरू होती हैं. तो लड़की कह रही है कि आज से तुम्हारा घर और पिन कोड का नंबर भी मेरा हो गया. लोग कहते हैं, अब गानों में वो बात नहीं रही. एक तो मुसीबत ये है कि सब कहा जा चुका है. फिल्मों में शुरू के 10-15 सालों में बेस्ट वर्क हो रहा था. उसे सौ साल से ऊपर हो गए भई.

किसी मूड या किरदार के लिए गाना लिखने की आपकी प्रोसेस क्या है?

मूड और किरदार के लिए लिखना आसान है और उसमें मजा भी आता है. पर जब आपसे यह कहा जाता है कि एक पार्टी गाना, शादी गाना या ऐसा गाना लिखना है जो वायरल होना है, वो बहुत मुश्किल है. इनके अलावा पंजाबी गाना मार्केटिंग टूल है. बच्चों को पसंद न आया तो फिल्म नोटिस नहीं होगी. इसी तरह से होली गाना लिखने में मुश्किल होती है. 5-6 करीबी गीतकारों को मैसेज डालती हूं कि भई आइडियाज दो. तुरंत 50 आइडियाज आ जाते हैं. मैं कहती हूं, अच्छा बस.

गानों में जोर मुखड़े पे रहा है लेकिन आपके गाने पोएटिक प्रोज की तरह हैं. आप जैसे कंटीन्यूटी में लंबे गाने लिखती चली जा रही हैं, नए मुहावरों में...

वरुण (ग्रोवर) कहते हैं कि मुखड़े के बाद अंतरे में आप लाश भी छुपा दो तो किसी को पता नहीं चलेगा (ठहाका लगाती हैं). पर मैं दो-तीन अंतरे तो लिख ही लेती हूं. कंपोजर और म्युजिक बेचने वालों को मुखड़े चाहिए होते हैं. पर मेरे लिए एक थॉट को कंप्लीट करना जरूरी होता है. खयाल मुखड़े में आ जाए और सोच को अंतरों में जगह मिले, बल्कि आखिरी शब्द तक आपको कोई नई बात कहनी चाहिए.

आइटम सॉंग लिखना आपके लिए आफत है या अवसर?

अवसर. यहां मेरा औरत होना नई और अलग बात है. आइटम सॉंग हमेशा एक मेल गेज से, पॉइंट ऑफ व्यू से लिखा जाता है. उससे हम कतरा नहीं सकते क्योंकि एक तवायफ, जिस्म बेचने वाली भजन तो गाएगी नहीं. पर बतौर औरत मेरी जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि उसमें एक कंसेंट हो. आइटम सॉंग बीड़ी जलाइ ले और कजरारे भी हैं और फेविकोल भी. सवाल उठता है कि लिखने वाले का मेयार और उसकी नीयत क्या है?

आप पैदा तो मुंबई में हुईं लेकिन हिंदी, अंग्रेजी और मराठी, गुजराती के अलावा अवधी, बांग्ला, पंजाबी शब्दों का भी सलीके से इस्तेमाल कर लेती हैं.

ये दरअसल बॉम्बे का कैरेक्टर है. जैसा पंडित नेहरू ने कहा था, इंडिया इज अ मेल्टिंग पॉट ऑफ कल्चर्स. मेरा उसी तरह का रहा है. मुसलमान खानदान, कॉन्वेंट स्कूल एजुकेशन, अजीबोगरीब-सी फैमिली जहां पे उर्दू लिटरेचर का जोर था क्योंकि मेरी दादी सलमा सिद्दीकी अलीगढ़ से ताल्लुक रखती थीं.

उनके फादर रशीद अहमद सिद्दीकी. सारे एकेडमिक लोग, एएमयू के. लेकिन हमको कभी उर्दू लिखना-पढ़ना सिखाया नहीं. दादी की दूसरी शादी कृश्न चंदर से हुई. तो मुझे आज भी ये एक फ्रॉड लगता है कि किसी ने मेरा रिवायती विरसा छीन लिया मुझसे. उर्दू मैंने लॉकडाउन के दौरान लखनऊ के अभिषेक शुक्ल से सीखी. मेरा पढ़ना अभी भी वीक है पर लिख अच्छा लेती हूं. लोग पढ़ते बेहतर हैं. उलटी गंगा. 

हिंदी सिनेमा में महिला गीतकार एक दुर्लभ प्राणी क्यों है?

देखिए, फर्क औरत-मर्द का नहीं, हिट और फ्लॉप का है. आपके साथ जो बर्ताव होता है, इज्जत होती है वह कामयाबी पर है, जेंडर पर नहीं. और मैं भी इस गली में टहलते-टहलते आ गई. मेरा कोई सपना नहीं था बड़े होके गीतकार बनने का. लोग पूछते, बड़े होकर क्या बनोगी, तो मैं कहती कि हैपी.

● क्या गीतकार सिर्फ गाने लिखकर ग्रेसफुल जिंदगी जी सकता है?

जी. और उसका पूरा क्रेडिट जावेद (अख्तर) साहब को जाता है क्योंकि उन्होंने रॉयल्टी के लिए लड़ाई लड़ी. जब आप हिट गाना लिखते हैं तो सिर्फ कंपनी कमाती है और आपके हाथ में ट्रॉफी थमा दी जाती है! नहीं. अब आपको रॉयल्टी भी मिलती है. तो आपका मोटिवेशन भी बढ़ा है. ठीक है मेरा एक फैमिली बैकग्राउंड था लेकिन मैंने सब अपने आप किया. उन्होंने तो पढ़ना भी नहीं सिखाया. उसका मुझे मलाल रहता है कि अजीब-सी लेगेसी उठा के घूम रहे हैं.

आइटम साँग तो बीड़ी जलाइ ले और कजरारे भी हैं और फेविकोल भी. सवाल उठता है कि लिखने वाले का मेयार और उसकी नीयत क्या है.

औरों की नजर में
''कुछ महिला गीतकार पहले भी हुई हैं लेकिन कौसर आज की मॉडर्न पोएट लगती हैं. वे परवीन शाकिर की तरह लिखती हैं. उनके गानों में उर्दू नज्म का फ्लेवर है.’’
गुलजार, गीतकार

''कौसर मुनीर हमारे वक्त के लिए एक बहुत बड़ा तोहफा हैं. गानों की दुनिया में एक सशक्त महिला स्वर. उनकी सेंसिबिलिटी जितनी मॉडर्न है उतनी ही ट्रेडिशनल.’’
स्वानंद किरकिरे, गीतकार.

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