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'लोकल न हुए तो युनिवर्सल क्या खाक होंगे'

एनएसडी रेपर्टरी में हिंदी भाषेतर क्षेत्र से आए कलाकार ज्यादा अच्छी हिंदी बोल रहे हैं. आप गांधारी के रोल में (पोतशंगबम) रीता और अश्वत्थामा बने बिक्रम (लेप्चा) का काम देखिए. लैला-मजनूं के लिए मैंने बंगाली अभिनेत्री चुनी है

अरे, तुम कहां!: राम गोपाल बजाज
अरे, तुम कहां!: राम गोपाल बजाज
अपडेटेड 3 अप्रैल , 2023

''अरे, तुम कहां!''  दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) के कॉरिडोर में छड़ी के सहारे लेकिन तनकर चल रहे 83 की वय के राम गोपाल बजाज रुककर सामने से आती एक अधेड़ महिला से पूछते हैं. वे नब्बे के दशक में उन्हीं की छात्रा रहीं अभिनेत्री अनुराधा मजूमदार हैं जो आजकल रोहतक की लखमीचंद स्टेट युनिवर्सिटी ऑफ परफॉर्मिंग आर्ट्स में पढ़ाती हैं. बजाज का नाटक (अंधा युग) देखने आई हैं. वे रहने के ठौर की फिक्र करने लगते हैं. ''अब मैं बड़ी हो गई हूं. कर लूंगी इंतजाम.''  उन्हें आश्वस्त कर अनुराधा बाकी लोगों से थोड़ा भावुक शब्दों में कहती हैं: ''अभी भी चिंता नहीं गई. कहां रहेगी, क्या खाएगी!'' इसी एनएसडी में साठेक साल पहले पढऩे आए बजाज, सभी के बज्जू भाई, संभ्रांत माहौल देखकर तब के निदेशक इब्राहिम अल्काजी से बोल पड़े थे, ''यहां पर आप लोग तो सब बातचीत अंग्रेजिए में करते हैं तो हम यहां रहके क्या करेंगे? चले जाएंगे.''

वही बज्जू भाई 1995-2001 तक यहां के निदेशक रहे. उन्हें मंच की युवा प्रतिभाओं की पहचान करने और उनमें कविता पढ़ने-समझने की संवेदना जगाने के लिए भी जाना गया. हिंदी के कई मौलिक नाटकों ने उन्हीं की वजह से मंच की रोशनी देखी. नपुंसकता पर केंद्रित सुरेंद्र वर्मा के नाटक सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक को उन्होंने एनएसडी रंगमंडल के बेचने के लिए रख दिए गए कचरे के ढेर से निकालकर खेला था. रंगमंडल के कलाकारों के साथ इसी 26-29 मार्च के बीच धर्मवीर भारती का क्लासिक अंधा युग उनके निर्देशन में खेला. ''...यह कथा उन्हीं अंधों की है/या कथा ज्योति की है/अंधों के माध्यम से.'' रिहर्सल में मंगलाचरण की इन पंक्तियों के दौरान वे पीछे मुड़ते हैं और कहते हैं: ''भारती जी को ज्ञानपीठ मिलना चाहिए था...उनके साथ न्याय नहीं हुआ.'' बज्जू भाई से एसोसिएट एडिटर शिवकेश की खास बातचीत:

प्र. बज्जू भाई, अंधा युग हिंदी का साठ साल पुराना क्लासिक है. हर दौर में वह अलग-अलग ढंग से मौजूं रहता आया है. आप इसको आज के समय से किस तरह से जोड़ रहे हैं?

किस तरह से क्या! मानव भविष्य की चिंता है इसमें. मानव भविष्य की इस वक्त सबसे ज्यादा चिंता दिखाई दे रही है. आपको युद्ध के संकट दिखाई नहीं दे रहे? आदमी एक-दूसरे को काटने, कीड़ों से, दवा बेच करके मारने को तैयार है. और पर्यावरण को देखिए. सभी कुछ तो मानव-भविष्य के बारे में है. दूसरे, कलेक्टिव ह्यूमन रेस्पांसिबिलिटी. कोई जड़, कोई पिछड़ा, कोई लूला, कोई अंधा. क्या अंधे पैदा हुए बच्चे को मार देना चाहिए? जनसंख्या नियंत्रण, संयम अच्छी बात है पर बालक पैदा हो गया उसे मार दें?

 कितने वर्षों बाद आप अंधा युग कर रहे हैं?

आखिरी बार 2006 में गोहाटी में असमिया में किया था (बहरुल इस्लाम के ग्रुप) सीगल के साथ उसी के 2-4 महीने आगे या पीछे लखनऊ में भारतेंदु नाट्य अकादेमी के साथ किया था. 2002 में तेलुगु में हैदराबाद युनिवर्सिटी में सरोजिनी नायडू स्कूल ऑफ ड्रामा के साथ किया था. तेलुगु प्रोडक्शन का डिजाइन 1992 में एनएसडी में की गई प्रस्तुति जैसा था. अपनी प्रस्तुतियों में उसे मैं महत्वपूर्ण मानता हूं, मंच के चारों तरफ दर्शक और बीच में अभिनेता, जो अपनी जगह से ही पीछे जाकर फिर एंट्री लेते हैं. यह आदिल हुसैन, राजेश तैलंग और विद्यानिधि बनारसे वाला बैच था. इसे पंजाबी और मराठी में भी करने का बहुत मन था लेकिन इसका अनुवाद मुझे उपलब्ध नहीं हुआ. फिर वैसी सुविधाएं नहीं रहीं. अभी की प्रस्तुति में कृष्ण का संवाद ओम शिवपुरी का है जो 1963 की प्रस्तुति का है. हालांकि उसको लाउड करने पर डिस्टॉर्शन आता है पर मेरी कोशिश है इन शख्सियतों की याद में उनके सम्मान के तौर पर उनका कोई न कोई स्वर लिया जाए. इसी वजह से बी.वी. कारंत और भास्कर चंदावरकर जी के संगीत से कुछ-कुछ लिया गया.

 अंधा युग को आजादी के बाद लिखे गए भारतीय नाटकों में शीर्ष पर रखा जाता रहा है. शेक्सपियर के टु बी ऑर नॉट टु बी (हैमलेट) और ब्रूटस यू टू (जूलियस सीजर) की तरह इसके कई संवाद अभिनेताओं की कुव्वत के टेस्ट केस की तरह लिए जाते हैं...

ऐसे कई संवाद हैं ही इसमें. अश्वत्थामा, कृष्ण और विदुर के. कृपाचार्य कहते हैं, ''आत्मघात वाली संस्कृति में मैं नहीं रह पाऊंगा. आत्मघात उड़कर लगता है घातक रोगों-सा.'' और अश्वत्थामा का देखिए कि ''युधिष्ठिर के अर्धसत्य ने मेरी हत्या कर दी.''

 आप रंगकर्मियों की उस विरल पीढ़ी के हैं जो शब्दों को उनकी ध्वनियों से आजमाकर बरतते हुए आगे बढ़े हैं. ऐसे में इसकी जो शैली है, बज्जू भाई, वो कितनी बड़ी चुनौती है?

है ना! शिक्षा में और हमारी आज की संस्कृति में भाषा दोयम दर्जे पर चली गई है. विद्यालयों में उच्चारण को कितना महत्व दिया जाता है? सिर्फ हिंदी में नहीं, मराठी और बांग्ला में भी ठीक से अपनी जबान बोलने वाले लोग नहीं मिल रहे. एनएसडी में तो छात्र ग्रेजुएशन के बाद आते हैं. आधुनिक टेक्नोलॉजी का सबसे बड़ा शिकार भाषा हुई है. आपकी स्थानीयता शिकार हो चुकी है. और अगर आप प्रॉपर स्थानीय नहीं तो युनिवर्सल कैसे हो सकते हैं? आप अपने परिवार के न हुए तो दुनिया के क्या खाक होंगे?

 नाटक की भाषा पर अभिनेताओं के साथ कैसे काम किया?

सबसे बड़ी बात यह कि एनएसडी रेपर्टरी में हिंदी भाषेतर क्षेत्र से आए कलाकार अच्छी हिंदी बोल रहे हैं. गांधारी (पोतशंगबम रीता देवी) और अश्वत्थामा (बिक्रम लेप्चा) को देखिए. रेपर्टरी के ही अगले नाटक लैला-मजनूं में लैला का रोल एक बंगाली अभिनत्री को दिया है. काम तो जो हैं उन्हीं से चलाना है! दूसरी बात, वे जैसा भी बोलेंगे, आज जो जनता सुनने आने वाली है वो कौन-सी भाषा के संस्कार लेकर आ रही है? [रिहर्सल के दौरान भी बज्जू भाई संजय बने अभिनेता को समझाते हैं कि तुम ठीक से संवाद बोल दो (जैसे तेज वाण किसी/कोमल मृणाल को/ऊपर से नीचे तक चीर जाए/चरम त्रास के उस बेहद गहरे क्षण में). इसका अर्थ न तुम समझोगे, न ज्यादातर ऑडियंस और न ही क्रिटिक.]

 आप 1963 में फिरोजशाह कोटला के किले पर (इब्राहिम) अल्काजी के निर्देशन में हुए अंधा युग में युयुत्सु का रोल करते थे. उस प्रस्तुति के कुछ रोचक वाकए आपके जेहन में हों तो बताइए.

उसे देखने नेहरू जी आए थे. साथ में इंदिराजी भी थीं. नेहरू जी ने कहलवाया था कि वे इंटरवल तक बैठेंगे. शिवपुरी जी लाइटिंग बूथ में थे तो उन्होंने ही देखा और बताया था. अल्काजी साहब वहीं थे, टाइ लगाए हुए और काफी तनाव में थे कि पंडितजी उठकर बीच में उठकर जाएंगे तो शो डिस्टर्ब होगा. तो तय वक्त पर सिक्योरिटी वालों ने जब साइड से टॉर्च जलाई तो इंदिराजी ने पलटकर देखा. उन्होंने नेहरूजी के कान में कुछ कहा, नेहरूजी ने पलटकर गर्दन हिलाई कि नहीं जाऊंगा. लाइटिंग बूथ से यह इशारा देखते ही अल्काजी साहब ने टाइ ढीली की और आश्वस्त हुए. 

 अंधा युग के बाद आप रंगमंडल के साथ ही इस्माइल चुनारा का नाटक लैला-मजनूं कर रहे हैं जो अप्रैल के उत्तरार्ध में होना है. एक ओर शुद्ध काव्यात्मक हिंदी और दूसरी ओर उर्दू का नाटक.

एक हिंसा और मानव भविष्य के बारे में और दूसरा रूमानियत और सूफियाना ढर्रे वाला. चुनारा 3-4 साल पहले गुजर गए. उनसे मेरा परिचय कलकत्ते के रंगकर्मी अजहर आलम और उमा झुनझुनवाला के जरिए हुआ था. उनके पास वो स्क्रिप्ट आई थी तो उन्होंने कहा कि ये नाटक बज्जू भाई कर सकते हैं. चुनारा लंदन से मुझसे मिलने लखनऊ आए क्योंकि उस वक्त मैं असम से वहां आकर बीएनए के साथ अंधा युग कर रहा था. उन्होंने शो भी देखा और कहा कि लैला-मजनूं आप ही को करना है.

 पर आप तो सुरेंद्र वर्मा के मुगल महाभारत का दाराशुकोह करने वाले थे! आपके फैसला बदलने की चर्चा है. इसके लिए किसी तरह का दबाव था?

रेपर्टरी को लगा कि लैला-मजनूं ज्यादा कलरफुल होगा. और शायद दाराशुकोह और औरंगजेब वाली बातें वे लोग नहीं करना चाहते रहे होंगे. वह नया प्ले होता. लैला-मजनूं टेस्टेड है तो उनको भी उसमें सुविधा लगी. और शायद इन लोगों का रिजोल्यूशन भी था कि रामगोपाल बजाज को उनके कोई दो प्रसिद्ध क्लासिक नाटक करने के लिए बुलाया जाए.

 आज जब आप एनएसडी को देखते हैं, जिसे पांच साल से स्थायी निदेशक नहीं मिल पा रहा, तो आप क्या सोचते हैं?

इस बात को लेकर बड़ी निराशा और तकलीफ है लेकिन इस तकलीफ को मेरे पास सहने के अलावा कोई उपाय नहीं दिखता. अब उन्होंने मुझे रंगमंडल में काम करने के लिए बुलाया है तो मुझे उनका एहसानमंद होना पड़ेगा.

एनएसडी की स्थिति को लेकर बड़ी निराशा और तकलीफ है. उसे सहने के अलावा कोई और उपाय नहीं दिखता. पर अब उन्होंने मुझे रंगमंडल में काम करने के लिए बुलाया है तो मुझे उनका एहसानमंद होना पड़ेगा 

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