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बातचीतः आपदा परियोजनाओं की वजह से नहीं आई...और हम विकास की उपेक्षा नहीं कर सकते

आपदा कोई इन योजनाओं से नहीं आई? क्या हमारे पहाड़ों के लोकगीत आपदाओं के दृष्टांतों से भरे पड़े नहीं हैं? यह पहला मौका थोड़े ही है जब यहां आपदा आई. लेकिन इस डर से विकास की उपेक्षा करना भी तो अफोर्ड नहीं कर सकते

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिेह रावत
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिेह रावत
अपडेटेड 18 फ़रवरी , 2021

चमोली में मौजूदा आपदा से एक बार फिर हिमालय के संवेदनशील क्षेत्र में पनबिजली परियोजनाओं और दूसरी विकास योजनाओं पर सवाल खड़े हो गए हैं. लेकिन उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की राय में आपदाओं के डर से विकास को रोका नहीं जा सकता. उनसे अखिलेश पांडे की बातचीत के अंश:

2013 की केदारनाथ घाटी आपदा से इस आपदा के बचाव कार्य में क्या फर्क था?

यह आपदा चट्टान खिसकने और हैंगिंग ग्लेशियर के टूटने से हुई. यह सब दिन में हुआ, जब लोग अपनी दैनिक दिनचर्या में मशगूल थे. केदार आपदा अत्यधिक बारिश से चोराबाढ़ी ग्लेशियर के झील में पानी बढ़ने और उसके टूटने से हुई थी. वह आपदा रात के समय आई. इसलिए बचाव की गुंजाइश कम थी लेकिन आपदा का पता दो दिन बाद चला था तो उसका असर कम करने का मौका नहीं था. वर्तमान आपदा रात में आई होती तो मजदूर बच जाते क्योंकि तब वे काम पर नहीं होते.

क्या आपदा की पूर्व-चेतावनियों को गंभीरता से लिया गया?

किसी विशेषज्ञ ने यह नहीं कहा था कि वर्तमान आपदा के क्षेत्र में कोई ऐसी नाजुक स्थिति बनी हुई है. सावधानी बरतने की तो हमेशा गुंजाइश बनी रहती है. लेकिन हैंगिंग ग्लेशियर टूट जाएगा, यह चेतावनी कभी किसी ने नहीं दी. प्राकृतिक गतिविधियों को कौन रोक सका है. हां, बचाव किया जा सकता है, जो इस दौरान किया गया तो साफ दिखा भी. जिस नंदा घुंघटी क्षेत्र में यह सब हुआ, उसको लेकर कभी किसी ने ऐसी आशंका व्यक्त नहीं की.

ऐसी घटनाओं के लिए अर्ली वार्निंग सिस्टम विकसित करना क्या संभव नहीं है?

बिलकुल संभव नहीं है. हां, कुछ कंपनियों ने संवेदनशील क्षेत्रों की साल भर सैटेलाइट निगरानी का कोई सिस्टम विकसित किया है. मैंने अधिकारियों से कहा है कि वे इन कंपनियों से मालूम करें कि वे कैसे तबाही से बचाने में मदद कर सकती हैं. कहा गया है कि ये कंपनी साल का एक-डेढ़ करोड़ रुपया फीस लेती हैं. सरकार ऐसा करार करने को तैयार है.

क्या इस क्षेत्र की पनबिजली परियोजनाओं के लिए बने बैराज के कारण तबाही अधिक हुई?

ये पनबिजली परियोजनाएं रन ऑफ द रिवर पर बनी हैं, न कि बड़े बांध बनाकर. इनमें छोटे बैराज टनल तक पानी डाइवर्ट करने के लिए बने हैं. ऐसे में यह कहना कि इन बैराज से तबाही ज्यादा हुई, झूठी बात है. सही यह है कि तपोवन में बने एनटीपीसी के बैराज ने तो इस तबाही को बड़ी होने से बचाया है, ठीक जैसे टिहरी बांध ने 2013 की अत्यधिक बारिश के वक्त पानी की बाढ़ रोककर अधिक तबाही होने से बचाया था.

कई पर्यावरणविद और विशेषज्ञ तो कह रहे हैं कि ये परियोजनाएं न होतीं तो तबाही नहीं होती. यह सरकारी तबाही है, ग्लेशियर को नाहक दोष दिया जा रहा है.

वहां न कोई बांध था, न कोई जलाशय. ये विशेषज्ञ अंदाज लगाकर कह देते हैं कि बिजली बन रही है तो बांध ही होगा. यह सोचना बिलकुल गलत है. ऋषिगंगा परियोजना भी रन ऑफ द रिवर पर है और तपोवन विष्णुगाड परियोजना भी. तपोवन विष्णुगाड परियोजना के बैराज ने तो निचले क्षेत्र को तबाही से बचाया, वरना सेलंग में नदी किनारे पनबिजली परियोजना के कैंप और उनमें रहने वाले लोग भी तबाह हो जाते.

ग्लेशियर के नाजुकमिजाज की बाबत कोई सर्वे कराएंगे?

निश्चित तौर पर ग्लेशियर को लेकर अध्ययन कराने की महती आवश्यकता है, ताकि जानकारियां जुटाकर बर्बादी से बचा जा सके.

क्या हिमालय की संवेदनशीलता को समझे बगैर पनबिजली परियोजनाओं के लिए पर्यावरण मंजूरी उचित है?

पर्यावरण मंजूरी तो सुप्रीम कोर्ट की हाइ पावर कमेटी देती है. सरकारों का इसमें कोई हाथ नहीं होता. एनजीटी पर्यावरण स्वीकृति देती है. जहां तक परियोजनाओं के संवेदनशील क्षेत्र में होने की बात है, तो वैज्ञानिकों की भी राय एक नहीं होती. एक्सपर्ट या वैज्ञानिकों को धरातल की स्थिति को जाने बगैर बयानबाजी नहीं करनी चाहिए. मैं स्वयं हामी हूं कि पर्यावरण का ध्यान रखा जाना चाहिए, लेकिन विकास भी उतना ही जरूरी है.

क्या भविष्य में पनबिजली परियोजनाओं या दूसरी विकास योजनाओं के बारे में सरकार की नीति बदलेगी?

यह प्रश्न ही कहां पैदा है? आपदा कोई इन योजनाओं से आई? क्या हमारे पहाड़ों के लोकगीत आपदाओं के दृष्टांतों से भरे पड़े नहीं हैं? यह पहला मौका थोड़े ही है जब यहां आपदा आई. लेकिन इस डर से विकास की उपेक्षा करना भी तो अफोर्ड नहीं कर सकते.

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