अभिनेता, गायक और बांसुरीवादक रघुवीर यादव लॉकडाउन का खूब लुत्फ ले रहे हैं. वेब सीरीज पंचायत की कामयाबी, आत्मकथा और किचन में उनके नए प्रयोगों पर शिवकेश मिश्र की उनसे बातचीत के अंश:
● लॉकडाउन में शूटिंग भी रुक गई है. कब शुरू होगी, पता नहीं. इसका कितना मलाल है आपको?
अजी काहे का मलाल! मलाल करना वक्त जाया करना है. शूटिंग में तो दूसरे किरदार में डूबे रहना पड़ता है. ढाई-तीन महीने से बाल भी नहीं कटवा पाया हूं. जरूरत भी नहीं. खिड़की से (मुंबई) शहर को झांकते हुए बांसुरी बजाता-गाता हूं. आधार (2019) फिल्म की शूटिंग के समय झारखंड के जंगलों से 7-8 बांस ले आया था. दो-तीन दिन से उसी से बांसुरी बनाने में लगा हूं. इसके अलावा किचन में अभी तक ओवन और तवे पर दस तरह की रोटियां बनाने के प्रयोग कर चुका हूं.
रात को बची दाल को आटे में मिलाकर, कई दालें उबालकर, उबला चना पीसकर, इन्हें आटे में किस तरह गूंथना है...किसे कितनी आंच पर पकाना है, सबका स्वाद अलग. ज्यादा रेसिपी बताऊंगा तो मजा चला जाएगा.
● लेकिन रचनात्मक मोर्चे पर जो नुक्सान हो रहा है, उसकी भरपाई हो सकेगी?
देखिए, कम रहने में जो आनंद है ना! वह जीवन की बड़ी से बड़ी उपलब्धि में भी नहीं है. आकांक्षाएं और जरूरतें जितनी बढ़ा लीजिए, उतने ही उलझते जाएंगे ईएमआइ में, अपने लिए कुछ न कर पाएंगे. और यह तो संयोग से अपने भीतर झांकने का इतना बेहतरीन मौका मिला है, क्यूं गंवाएं हम! फेसबुक लाइव के जरिए थिएटर वालों से और दूसरे लोगों से संवाद हो रहा है. जिंदगी को छोटे-छोटे लम्हों में एन्जॉए कीजिए.
● अमेजन प्राइम पर आई आपकी वेब सीरीज पंचायत की खासी चर्चा है. इसे करते वक्त इसके इतना लोकप्रिय होने का अंदाजा था?
जी, इसका अंदाजा मुझे था. लोग कहते हैं, इसमें कोई ड्रामा नहीं, फिर भी क्यों हिट हो रहा है? जी, इसमें कोई ड्रामेबाजी नहीं. इसकी फिजा में, इसकी आबोहवा में ही ड्रामा है. इसका कोई कैरेक्टर आपको बुरा नहीं लगता.
कोई हीरो या विलेन नहीं. गांव की जबान इतनी म्युजिकल होती है, कम और मुहावरेदार लफ्जों में ज्यादा कह जाती है. इसकी टीम दूसरे सीजन के लिए तैयार बैठी है. मैंने तो रीडिंग के वक्त ही कह दिया था कि इसमें ऐक्टिंग की कोई गुंजाइश नहीं. ये कॉमेडी नहीं है. आप सीरियसली करो. नतीजा बाद के लिए छोड़ दो.
● आपके कौन-कौन से प्रोजेक्ट अटके?
दो वेब सीरीज और दो फिल्में थीं. शेखावाटी पर एक खूबसूरत स्क्रिप्ट के साथ हमें एक सीरीज के लिए राजस्थान जाना था. देखिए अब डिजिटल ही चलेगा. 4-5 साल लोग सिनेमाहॉल में नहीं घुसने वाले. फिल्में भी बनेंगी तो छोटे बजट वाली और उनका कंटेंट बेहतर रखना होगा. वेब सीरीज ने टैलेंटेड ऐक्टर्स की पूरी फौज को सामने लाकर रख दिया है. वर्ना यहां तो मोटे पैसे देकर सीखे हुए नकली ऐक्टर भरे पड़े थे.
● आत्मकथा का काम कहां तक पहुंचा?
उस पर काम चल रहा है. शुरुआत बचपन से की है. आत्मकथा के अलावा एक दूसरी किताब पारसी थिएटर के अपने अनुभवों पर नॉवेल की शक्ल में लिख रहा हूं.
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