आज से बयालीस साल पहले 'जनता' पत्र के संपादक पद्मनारायण झा विरंचि और पटना से निकलने वाले प्रसिद्ध अंग्रेजी अखबार इंडियन नेशन के देंवेद्र पाठक ने(जो बाद में अखबार के संपादक भी हुए), 'मिथिला मिहिर' पत्रिका के लिए पटना में अटल बिहारी वाजपेयी का साक्षात्कार लिया था. वो साक्षात्कार उन दिनों भी न्यूज एजेंसियों के माध्यम से कई जगह प्रकाशित हुआ लेकिन महीने भर के भीतर ही देश में आपातकाल की घोषणा हो गई और उसकी विशेष चर्चा नहीं हो पाई. बाद में जब कभी चर्चा भी हुई तो वाजपेयी द्वारा मैथिली भाषा को अष्टम अनुसूची में दिए गए समर्थन से ज्यादा नहीं. वाजपेयी के इस साक्षात्कार में विदेशनीति, कश्मीर समस्या, नेपाल, देश की अंदरूनी राजनीति, भारतीय कम्यूनिस्टों का सोवियत कनेक्शन, अमेरिका, रूस और चीन इत्यादि विषयों पर उनका स्पष्ट दृष्टिकोण सामने आता है. उन्हीं नीतियों पर अभी भी केंद्र की भारतीय जनता पार्टी की सरकार चल रही है और नीतियों में ये निरंतरता आश्चर्यजनक है!
एक बात जो महत्वपूर्ण है वो ये कि वाजपेयी ने जो कोसी महासेतु के उद्घाटन के समय मैथिली भाषा को संविधान की अष्टम अनुसूची में शामिल करने की घोषणा की उसमें मैथिली अभियानियों सबका योगदान तो है ही, इस साक्षात्कार का भी विशेष योगदान है जिसपर वाजपेयी सन् 1975 में ही अपना मंतव्य स्पष्ट कर चुके थे.
मैथिली को संविधान की आठवीं अनुसूची में अविलम्ब शामिल किया जाना चाहिए: अटल बिहारी वाजपेयी
"मैथिली भाषा को संविधान की अष्टम अनुसूची में अविलम्ब स्थान मिलना चाहिए," ये उक्ति है जनसंघ के वर्चस्वी नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी की, जिन्होंने मिथिला मिहिर को दिए एक विशेष भेंटवार्ता में ये बात कही.
वाजपेयी जी से भेंट करने का हमलोगों का प्रमुख उद्येश्य मैथिली भाषा के संबंध में उनका और उनके दल के दृष्टिकोण से परिचित होना और उसे प्रेरित-प्रभावित करना था. मैथिली के प्रसंग में सन् 67 में संविद सरकार के समय जनसंघ द्वारा उर्दू के स्थान पर मैथिली को बिहार की द्वितीय राजभाषा के रूप में समर्थन देने की बात उठते ही श्री वाजपेयी हुलस कर बोल उठे- "तो क्या, हमारे दल ने उर्दू को काटने के उद्येश्य से मैथिली का समर्थन किया था?" क्षण भर के विराम के बाद पुन: वे बोल उठे- "हमलोगों ने मैथिली का समर्थन उसकी क्षमता, उसकी विशिष्ट गरिमा और मिथिलांचल की प्राचीन संस्कृति के आधार पर किया था. मैथिली को दिया गया जनसंघ का समर्थन किसी अन्य भाषा के प्रति ईर्ष्या या आक्रोष से प्रभावित नहीं था."
उसी तरह सिंधी भाषा को मान्यता के प्रश्न पर उन्होंने कहा- "निश्चित रूप से मैथिली, सिंधी की तुलना में श्रेष्ठ साहित्य की संरक्षिका है और ये भाषा एक व्यापक क्षेत्र में अभिव्यक्ति का माध्यम है. जबकि सिंधी किसी क्षेत्र विशेष की अधिकारिणी नही रही है. आप लोग इस बात को नोट कर लीजिए कि मैथिली को अविलंब संविधान की अष्ठम अनुसूची में स्थान मिलना चाहिए. ये हमारी मांग है, ये हमारे दल की मांग है."
राष्ट्रीय नेता का सानिध्य
अटल बिहारी वाजपेयी सिर्फ जनसंघ के सर्वोच्च नेता ही नहीं बल्कि जाने-माने राष्ट्रीय नेता के रूप में ख्याति अर्जित कर चुके हैं. इसी वजह से गत सात मई को दोपहर साढ़े तीन बजे से शाम पांच बजे तक उनका सानिध्य हमारे लिए अविस्मरणीय बन चुका है. स्थानीय अधिवक्ता विष्णुदेव बाबू के यहां वो सिरदर्द की वजह से विश्राम कर रहे थे और उसके ठीक बाद उनको गांधी मैदान में एक सार्वजनिक सभा में भाषण देने भी जाना था. लेकिन मिथिला मिहिर का नाम सुनते ही वे तत्काल बाहर आए और चिर-परिचित अंदाज में हमारा स्वागत किया. मैथिली के प्रति उनका प्रेम किसी तरह से छिपा हुआ नहीं था.
मिथिला मिहिर की प्रति को हाथ में लेते हुए वे तत्काल बोल उठे-"वाह! बहुत बढ़िया पत्रिका है. इसके नाम से तो मैं पहले से परिचित हूं." फिर वे भीतर का पन्ना उलटने-पुलटने लगे और शीर्षक को पढ़ने का प्रयास करने लगे यथा-'मुख्यमंत्री डॉ मिश्र सं विशेष भेंट-वार्ता', 'सूतल छी आ ब्याह होइत अछि' तथा 'तीन गोट कविता' (मिहिर 27 अप्रैल). फिर मुस्कुराते हुए बोले-"मुझे मैथिली समझने में दिक्कत हो रही है वैसे कुछ-कुछ समझ जाता हूं." इस पर जब हमने कहा कि मैथिली, मैथिली है...तो वे तत्काल ठहाका लगाकर बोले- "मैं कहां कह रहा हूं कि मैथिली, हिंदी है. वस्तुत: मैथिली तो मैथिली ही है."
राष्ट्रीय प्रश्न: असहमति के स्वर
जनसंघ के सर्वोच्च सूत्रधार से जिस आत्मीय वातावरण में हमारी बातचीत हो रही थी, वो राष्ट्रीय प्रश्नों पर उनके दृष्टिकोण और विचारों को जानने का एक विशिष्ट अवसर था. उन्होंने छोटे-बड़े सभी प्रश्नों का निश्छल मुस्कान और आत्मीयता के संग उत्तर दिया और कुछ प्रश्न तो ऐसे थे जिसके जवाब में उन्होंने प्रश्न भी खड़े किए. एक प्रश्न के उत्तर में कि जनसंघ का घोषित सिद्धांत तो प्रारंभ से ही प्रत्येक तरह की अराजकता और राष्ट्रीय संपत्ति की क्षति के विरोध में खड़ा होने का है, फिर उसका वर्तमान आन्दोलन को समर्थन देने का औचित्य क्या है, श्री वाजपेयी ने कहा-"आप ठीक कह रहे हैं. जनसंघ कभी भी किसी ऐसे आन्दोलन का समर्थन नहीं कर सकता जिससे राष्ट्रीय संपत्ति की क्षति अथवा अराजकता फैलने की आशंका हो. मैंने पिछले साल आन्दोलन के प्रारंभ में ही पटना में इसी तरह की चेतावनी दी थी. लेकिन इस आन्दोलन को हमारे दल के समर्थन के औचित्य पर आपलोगों को ये विचार करना चाहिए कि हिंसा और अराजकता का पादुर्भाव इस आन्दोलन के कारण हो रहा है या आन्दोलन को मटियामेट करने के लिए सरकार उसे बढ़ावा दे रही है? जहां तक बिहार आन्दोलन का प्रश्न है तो जनसंघ इसके शांतिपूर्ण चरित्र और राष्ट्रीय उद्येश्य के कारण समर्थन कर रहा है."
फिर हमलोगों ने जनसंघ के नेता से देश की आन्तरिक समस्याओं से संबंधित भिन्न-भिन्न तरह के सवाल किए.
प्रश्न: प्रतिपक्षी दलों के बीच जब चुनाव लड़ने के प्रश्न पर भी सहमति नहीं है तो क्या आप आशा कर रहे हैं कि चुनाव के बाद सरकार चलाने के प्रश्न पर वे एक मत हो पाएंगे?
उत्तर: (हंसी) एकता के अभाव में सरकार कैसी! सरकार के गठन के लिए सत्तारुढ़ दल को पराजित करना होगा और उसके लिए पहले एकता चाहिए. सिद्धांत रूप से आपकी बात से मैं जरा भी असहमत नहीं हूं लेकिन जहां तक कांग्रेस की पराजय और प्रतिपक्षी दलों की एकता का प्रश्न है, उस संबंध में ये स्मरण रखिए कि राजनीतिक दलों की एकता और संघर्ष की उत्पत्ति, ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण होती है.
प्रश्न: क्या आगामी चुनाव में आपका दल मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ चुनावी समझौता कर सकता है?
उत्तर : मार्क्सबादी पार्टी के साथ जनसंघ का चुनाव समझौते का कोई प्रश्न ही नहीं उठता.
प्रश्न: अगर सोशलिस्ट पार्टी और मार्क्सबादी दल आदि का 'वामपंथी जनतांत्रिक मोर्चा' फिर से सक्रिय हो जाए तो क्या ऐसी स्थिति में जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी से भी समझौता तोड़ लेगा?
उत्तर: नहीं. सोशलिस्ट पार्टी से हमारा चुनावी समझौता किसी भी स्थिति में हो सकता है। वैसे हम उसे सुझाव देंगे कि वो सीपीएम से दूर हट जाए.
प्रश्न: राजनीतिक दलों की संख्या में अत्यधिक बढ़ोत्तरी के संबंध में आपका क्या विचार है? वर्तमान व्यवस्था में किन-किन दलों का औचित्य हो सकता है?
उत्तर : औचित्य के बारे में तो मैं नहीं कहूंगा लेकिन इतना निश्चित है कि राजनीतिक दलों की संख्या में कमी होनी चाहिए. वर्तमान आन्दोलन का प्रभाव राजनीतिक दलों की संख्या बृद्धि पर निश्चित रूप से पड़ेगा.
प्रश्न: क्या निर्दलीय जनतंत्र और 'जनता' उम्मीदवार की अवधारणा में किसी तरह का साम्य है?
उत्तर : 'जनता' उम्मीदवार की अवधारणा वस्तुत: निर्दलीय परिवेश से अधिक सर्वदलीय सहमति को प्रकट करती है और राजनीतिक दलों के सत्ता-लोभ को जनता की गंगा-यमुना में विसर्जित करने का प्रयत्न करता है. जबकि 'निर्दलीय जनतंत्र' की अवधारणा एक राजनीतिक दर्शन है जो संविधान व लोकतंत्र को हस्तक्षेप, धमकी और दबाव से मुक्त रखने के लिए श्री जयप्रकाश नारायण द्वारा प्रस्तुत किया गया है. लेकिन इस निर्दलीय जनतंत्र की स्थापना करने के लिए भी एक मजबूत राजनीतिक दल की आवश्यकता है.
(ये कह वाजपेयी हंस उठे, उनका स्पष्ट तात्पर्य था कि इस आन्दोलन में जनसंघ ही एकमात्र वो राजनीतिक दल है जो जयप्रकाशजी के निर्दलीय जनतंत्र की स्थापना की क्षमता रखता है!)
प्रश्न: सत्तारूढ़ दल पर आपलोगों का आरोप है कि वो अलोकतांत्रिक आचरण कर रहा है, जबकि प्रतिपक्ष को अपनी बात कहने की हर तरह की सुविधा अभी भी प्राप्त है?
उत्तर : लोकतंत्र में राजनीतिक दलों के संग जिस तरह का सत्तारुढ़ दल का आचरण होना चाहिए वो आज किसी रूप में नहीं हो रहा है. आज देश में राजनीतिक हत्याओं की बाढ़ आ गई है, भिन्न-भिन्न बहानों से जेल में राजनीतिक बंदियों को गोली से उड़ाया जा रहा है. प्रदर्शन और जुलूस पर एक सौ चौवालीस लगा दिया जाता है. आकाशवाणी पर श्री जयप्रकाशजी के भाषण को पूरी तरह से ब्लैक आउट कर दिया जाता है. इस तरह से सरकार के लोकतंत्र-विरोधी आचरण का कितने प्रमाण गिनाऊं?
प्रश्न: कांग्रेस के वर्तमान नेतृत्व के प्रति आपका क्या विश्लेषण है?
उत्तर : कांग्रेस का वर्तमान नेतृत्व अधिनायकवाद के रास्ते पर जा रहा है. पंडित जवाहरलाल नेहरु संसद के प्रति सर्वाधिक जागरूक रहते थे, जबकि श्रीमती गांधी संसद के प्रति उपेक्षापूर्ण दृष्टिकोण रखती हैं. वे विरोधी दलों के प्रति अत्यधिक असहिष्णु हैं.
साथ ही, वर्तमान नेतृत्व कम्युनिस्ट पार्टी का पक्षधर भी है और इस तथ्य को वो सोवियत-भारत मैत्री से ढंकने की कुचेष्टा करता है. जबकि वस्तुस्थिति ये है कि सोवियत मैत्री और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी दोनों अलग-अलग बाते हैं. कांग्रेस के विभाजन के समय कम्युनिस्टों के संग उनकी मित्रता का रहस्य तो समझ में आता था, लेकिन आज के दिन इस गठबंधन का क्या औचित्य है ये समझ नहीं आता!
इसके अलावा, वर्तमान नेतृत्व एक ऐसे राजनीतिक दल के क्रियाकलापों को प्रतिबिंबित कर रहा है जो दो नंबर के पैसे पर पल रहा है और भीतरी व बाहरी चारित्रिक संकट का सामना कर रहा है. दल के भीतर सबके सब एक दूसरे को चोर कह रहे हैं.
प्रश्न: क्या आगामी लोकसभा चुनाव में 'जनता उम्मीदवारों' की विजय के बाद आप संविधान सभा के पुनर्गठन की संभावना देख रहे हैं?
उत्तर : किसी भी कार्य के पीछे उसके औचित्य पर विचार करना होगा. मेरे विचार से गत छब्बीस वर्षों में संविधान को लागू करने में क्या-क्या त्रुटिया हुई हैं उसकी जांच-पड़ताल होनी चाहिए. सत्ता का विकेंद्रीकरण, केंद्र-राज्य संबंध, राज्य की आर्थिक क्षमता और उसका स्रोत, नागरिक के मूल अधिकार इत्यादि समस्याओं को दृष्टि में रखते हुए संविधान पर एक आयोग का गठन अवश्य होना चाहिए. उस आयोग की अनुशंसा के बाद ही संविधान सभा के पुनर्गठन की मांग उठाई जा सकती है.
प्रश्न: लोकसभा और विधानसभाओं से प्रतिनिधियों को वापस बुलाने के मुद्दे पर आपकी क्या राय है?
उत्तर : सिद्धांतत: मैं इससे सहमत हूं. लेकिन इस नागरिक अधिकार का उपयोग किस संस्था के माध्यम से, किन परिस्थितियों में और किन प्रक्रियाओं के अंतर्गत किया जाए-ये गंभीर विचारणीय विषय हैं. वैसे हारे हुए लगभग सभी उम्मीदवार मतदान के तत्काल बाद ही हस्ताक्षर अभियान शुरू कर देंगे और फिर विजेता व्यक्ति के लिए मुश्किल हो जाएगी. हां, तुलमोहन राम जैसे प्रतिनिधियों को किसी भी परिस्थिति में अवश्य वापस बुला लेना चाहिए.(हंसी) (तुलमोहन राम बिहार से ही एक सांसद थे और उन पर लाइसेंस स्कैंडल के नाम से भ्रष्टाचार का मुकदमा चल रहा था)
प्रश्न: कलकत्ता में जयप्रकाशजी पर लाठी से प्रहार और मोरारजी भाइ के अनशन पर प्रतिपक्ष की तरफ से अनुकूल प्रतिक्रिया व्यक्त कर क्या श्री शेख अब्दुल्ला फिर से नई भूमिका का संकेत दे रहे हैं?
उत्तर : शेख अब्दुल्ला जीवन का व्यापक अनुभव प्राप्त कर चुके हैं और सत्ता से संघर्ष की स्थिति में रहे हैं. आज वे फिर से मुख्य राष्ट्रीय धारा के साथ हैं जिसका सत्तारूढ़ दल और प्रतिपक्ष भिन्न-भिन्न दो किनारा है. अपने विचार के आधार पर वे किसी भी पक्ष के साथ खड़े हो सकते हैं. वैसे उनका हालिया वक्तव्य उनकी नई भूमिका से ज्यादा उनके सुदृढ़ चरित्र का परिचय ज्यादा देता है.
प्रश्न: बंग्लादेश के अभ्युदय के बाद दिल्ली में आपकी श्री शेख अब्दुल्ला से गुप्त वार्ता हुई थी. उसके बाद से क्या उनके दृष्टिकोण में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन आया है?
उत्तर : जिस समय शेख के संग मेरी पहली वार्ता हुई थी उस समय उनका दृष्टिकोण पाकिस्तान के साथ शांति बनाए रखने और विवाद के हल के लिए अगर पाक-अधिकृत कश्मीर पाकिस्तान को दे भी देना पड़े तो इस पक्ष में था. साथ ही वे चाहते थे कि भारत का अभिन्न अंग रहते हुए भी कश्मीर का दरवाजा पाकिस्तानी पर्यटकों के लिए खोल दिया जाना चाहिए. शेख का विचार ये भी था कि श्रीनगर-रावलपिंडी सड़क मार्ग को चालू रखा जाना चाहिए क्योंकि बर्फबारी के समय श्रीनगर-जम्मू मार्ग अवरुद्ध हो जाता है और कश्मीर को व्यापार में घाटा उठाना पड़ता है. कभी-कभी तो श्रीनगर में नमक तक मिलना दूभर हो जाता है. लेकिन जहां तक अभी का प्रश्न है, अगर भारत सरकार पाक-अधिकृत कश्मीर पर कब्जा जमाने की कोशिश करे तो निश्चय ही शेख उसमें मददगार होंगे.
सहमति के क्षेत्र
साथ ही कुछ ऐसे भी क्षेत्र हैं जहां वर्तमान व्यवस्था और उसके दृष्टिकोण से श्री वाजपेयी प्राय: सहमत जैसे दिखे. वो क्षेत्र है भारत सरकार की विदेश नीति. वैसे कुछ ही दिन पूर्व चीनी दूतवास पर कांग्रेसी सांसद शशिभूषण के नेतृत्व में हुए प्रदर्शन पर तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए वे बोले- "चीनी दूतावास पर कांग्रेसी सांसद शशिभूषण द्वारा प्रदर्शन के नेतृत्व का क्या अर्थ है? आखिर इसमें क्या रहस्य हो सकता है कि इतने दिनों के बाद कांग्रेसियों को तिब्बत की स्वतंत्रता का स्मरण आया है? जब मैंनें, जयप्रकाशजी, डॉ लोहिया और कृपलानीजी ने तिब्बत का प्रश्न उठाया था तो हमें प्रतिक्रियावादी कहा गया, फिर आज इन "प्रगतिशील" लोगों के मन में तिब्बत के प्रति सहानुभूति क्यों जग उठी है? क्या कहीं सोवियत संघ के इशारे पर भारत सरकार चीन के साथ दो-दो हाथ करने की तैयारी तो नहीं कर रही है?
प्रश्न: क्या आप भारत सरकार की नेपाल नीति से सहमत हैं?
उत्तर : सहमति-असहमति की कोई विशेष बात नहीं है. मूल बात ये है कि नेपाल एक बड़े देश का ऐसा पड़ोसी देश है जिसके दूसरी तरफ भी एक विशाल राष्ट्र मौजूद है. ऐसी स्थिति में नेपाल का शंकालु और चतुर हो जाना स्वभाविक है. लेकिन इतना निश्चित है कि नेपाल और भारत की जनता किसी भी स्थिति में इन दोनों देशों को एक दूसरे के विपरीत नहीं जाने देगी.
प्रश्न: अमेरिका अभी भी खुद को विश्व में लोकतंत्र का रक्षक समझ रहा है. इस संबंध में आपका क्या विचार है?
उत्तर : अमेरिका के भीतर में लोकतंत्र अवश्य है लेकिन बाहर में अधिनायकवाद है. मैं लोकतंत्र के नाम पर अमेरिका के सैनिक अड्डा और उपनिवेशवादी नीति का घोर विरोधी हूं.
प्रश्न: सोवियत संघ की विदेशनीति के प्रति आपका क्या विश्लेषण है?
उत्तर : मैं सोवियत संघ से मित्रता और सक्रिय सहयोग का प्रशंसक हूं. लेकिन अब अमेरिका-रूस के अलावा चीन के एक वैश्विक शक्ति में उदय से सोवियत संघ की नीति में क्रमिक परिवर्तन आ रहा है और वो अमेरिका के साथ मिलकर क्रमश: पूरे संसार को अपने प्रभाव में बांटने की नई तैयारी कर रहा है. मध्य-पूर्व एशिया और भारत के संबंध में इस तरह की प्रच्छन्न सहमति वाली नीति का एक तरह से जन्म हो चुका है. इसका परिणाम यह होगा कि विकासशील देश भी अपनी नई भूमिका का निर्धारण करेंगे.
प्रश्न: वियतनाम युद्ध की समाप्ति पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है? क्या दोनों वियतनाम का एकीकरण तत्काल संभव है?
उत्तर : वियतनाम युद्ध में राष्ट्रवादी तत्वों की विजय हुई है. वैसे ये बात निश्चित है कि इस राष्ट्रीय संघर्ष में कम्युनिस्ट तत्व का महत्वपूर्ण योगदान था. फिर भी वियतनाम के लोगों ने किसी विदेशी सेना को अपनी धरती पर सहायतार्थ उतरने का आमंत्रण नहीं दिया. जहां तक एकीकरण का प्रश्न है, उस संबंध में किसी तरह की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है. वैसे मैं चाहूंगा कि अगर चुनाव के माध्यम से सरकार का गठन हो तो वियतनाम की अधिकांश आंतरिक समस्याओं को सुलझाने में मदद मिलेगी.
गति में काव्य
श्री वाजपेयी से, जो जीवन के प्रारंभ में कवि रहे थे, इसिलिए उनसे यह पूछना स्वभाविक था कि अब उन्होंने कविता लिखना क्यों छोड़ दिया है. इस प्रश्न के उत्तर में वाजपेयीजी ने कहा- "हां, पहले मैं कविता लिखता था, लेकिन अब मैंने छोड़ दिया है. अब तो मेरी गति में ही काव्य है!" कुछ क्षण मौन रहने के बाद वे फिर बोले-"सक्रिय राजनीति और कविता में बड़ा विरोध है. कविता के लिए समय और एकाग्रता चाहिए जो मुझे मिल नहीं पाता है."
उनके इस जवाब पर हमारे मित्र और प्रभावी मैथिली साहित्यकार श्री मार्कंडेय प्रवासी ने तत्काल प्रश्न किया- "इस बात पर अगर कवि-गण आपका घेराव करें तो?"
"मैं उनलोगों को कविता सुनाने लगूंगा," वाजपेयीजी का जवाब था.
नई कविता के संबंध में श्री वाजपेयी का कहना था- "नई कविता मैं पढ़ता हूं और वो मुझे पसंद है. नई कविता में युग की समस्या और उससे भी अधिक उसकी विभीषिका की झलक मिलती है."
वाजपेयीजी अविवाहित हैं, सो इस संबंध में किसी की जिज्ञासा स्वभाविक है. जब हमने उनसे ये पूछा कि क्या देश सेवा के लिए पारिवारिक दायित्व से मुक्त रहने की स्थिति ज्यादा आदर्शमूलक है, तो वाजपेयी थोड़ा गंभीर होकर बोले- "देश-सेवा के लिए पारिवारिक दायित्व से मुक्त रहना एक सुविधाजनक स्थिति हो सकती है, क्योंकि इससे कार्य करने के लिए अधिक समय मिलता है और व्यक्ति को सामान्यत: स्वार्थ से अलग रहने का अवसर प्राप्त हो जाता है. लेकिन हमसे(अर्थात अविवाहित नेताओं से) श्रेष्ठ वे लोग हैं जो पारिवारिक दायित्व का वहन करते हुए भी देश और दल की सेवा करते हैं."
अन्त में चलते समय श्री वाजपेयी अपनी शिष्टता और विनोद-मिश्रित आत्मीय स्वर में ये कहे बिना नहीं रह सके-"देखिएगा भगवन! मेरी उक्तियों में नमक-मिर्च नहीं लगाइयेगा, जैसा जो कहा है वैसे ही छाप दीजिएगा." ये कह वे पुन: मुक्त कंठ हंस पड़े.
नोटः मूल मैथिली में प्रकाशित इस साक्षात्कार का सुशांत झा ने हिंदी में अनुवाद किया है और विरंचि जी ने इसे प्रकाशित करने की हमें विशेष अनुमति दी है.
(अनुवाद: सुशांत झा, सुशांत इंडिया टुडे ग्रुप में वरिष्ठ कॉपी एडिटर हैं)