
- गजेंद्र सिंह भाटी
कभी इंडियन सिनेमा के सबसे मौलिक सर्जकों में से एक कनु बहल को फ्रांस के ल मॉन्ड अखबार ने 'जैक्सन पॉलक ऑफ इंडियन सिनेमा’ पुकारा. अमेरिकी पेंटर पॉलक कला में अपने अमूर्त अभिव्यंजनावाद के लिए ख्यात थे. कनु वह भी हैं, और कुछ अन्य भी हैं. बीते दस वर्षों में उनकी तीनों फीचर फिल्में—तितली, डिस्पैच, आगरा—मूर्त और अमूर्त से मिलकर अंकुरित हुई हैं.
उन्होंने बाहरी यथार्थ को भी थामा, अनगढ़ भीतरी भावनाओं को भी. पॉलक कहते थे, ''मैं अपनी पेटिंग के भीतर ही हूं, उसके बाहर नहीं खड़ा हूं.’’ उनकी तरह कनु भी अपने फ्रेम्स में अपनी चेतना, क्रोध, ऊर्जा और अस्तित्व के रंग उड़ेलते हैं. कुछ अन्य जब होते हैं तो कनु बेजां निर्मम और तटस्थ आलोचक होकर कथाएं रचते हैं. कभी कभी तो यह लगने लगता है कि वह अपने पात्रों पर जरा भी तरस नहीं खाते.
जो कनु दुनिया के एलीट आर्टहाउस फिल्मोत्सवों की आंख के तारे हैं; जिनकी पहली ही फिल्म तितली 2014 में 'कान’ की अति दुर्गम 'अं सर्तेन रगाद’ श्रेणी में गई; और, जिनकी आगरा को 2023 में वहां पांच मिनट का स्टैंडिंग ओवेशन मिला, वे कट्टर सतर्क हैं कि उनकी फिल्में एलीट न हो जाएं और दर्शक के लिए सुगम रहें.

बावजूद इसके कि वे अपने क्राफ्ट के स्तर पर इंतिहाई गैर-कमर्शियल हैं. यूं एक क्राइम जर्नलिस्ट पर केंद्रित मनोज बाजपेयी अभिनीत थ्रिलर डिस्पैच ही उनकी सबसे मेनस्ट्रीम फिल्म कही जा सकती है. लेकिन फिर उनकी आगरा ऋत्विक घटक की क्लासिक मेघे ढाका तारा वाली व्यथित अंतरात्मा लिए हुए है जो हर दर्शक को समान रूप से बींधती है.
आगरा बहुत विचलित करने वाली फिल्म है. हार्ड. दिमाग खराब कर देने वाली. यह गुरु की कहानी है जो ताजमहल और ब्रिटिश काल में अपने पागलखाने के लिए मशहूर शहर में रहता है. उसका घर भी कुछ पागल मुर्गियों के दड़बे-सा है. नीचे गुरु अपनी मां के साथ रहता है. ऊपर पिता अपनी गर्लफ्रेंड के साथ.
घर के दो और हितधारक हैं. यानी कुल छह. सबको अपने कमरे, अपना स्पेस चाहिए. दमन और यौनिकता के घर्षण से जला गुरु का मस्तिष्क विकृत हो चुका है. इतना कि स्टीव मेक्वीन की शेम का सेक्स-एडिक्शन से तंग कुख्यात ब्रैंडन भी गुरु के आगे स्वस्थ लगता है.
साल 2023 में कान फिल्म फेस्टिवल में दिखाई गई इस फिल्म को काफी सराहना भी मिली थी. अब 14 नवंबर को यह फिल्म भारत में रिलीज हुई है. यह एक स्वतंत्र फिल्ममेकर की फिल्म है, नतीजा फिल्म का उतना शोर-शराबा नहीं है. लेकिन अब फिल्म के निर्देशक कनु बहल ने ‘आगरा’ को पर्याप्त स्क्रीन न मिलने की बात कहते हुए बड़ी मल्टीप्लेक्स सिनेमा चेन्स पर तंज कसा है. इसके पीछे उन्होंने कथित बड़ी फिल्मों को कारण बताया है.
दस साल पहले जब कनु ने तितली के बाद इस फिल्म को लिखना शुरू किया तो जो लिखा उससे डर गए. पीछे हट गए. फिर खतरनाक डेनिश फिल्मकार लार्स वोन ट्रियेर की एडिटर मॉली स्टेन्सगार्द ने टोका कि जो करना चाहते हो कर क्यों नहीं रहे. तब झिझक जाती रही. नतीजतन, अब वह अभिव्यक्ति इतनी प्रखर है कि आगरा के कुछ दृश्य देखते हुए आपका दम घुटता है. इसका क्लाइमेट कैद करता है. गुरु का फिनाइल पीने वाला सीन हो, या यौन मनोविकारों के चलते घर की ही एक लड़की के साथ रेप करने का प्रयास वाला सीन तो सुन्न कर जाते हैं.
आशिकी (1990) वाले रोमैंटिक हीरो राहुल रॉय को डैडीजी के प्रॉब्लमेटिक और तरस खाने वाले पात्र में देखना अनूठा है. उतना ही विलक्षण है द व्हील ऑफ टाइम जैसी विराट फैंटेसी सीरीज में जादूगरनी के मनरंजक रोल के बाद प्रियंका बोस को कैफे चलाने वाली विधवा प्रीति के यकीनी रोल में देखना है, जिसका पैर पोलियो से खराब है और लंगड़ाकर चलती है.
अपनी फिल्मों के जरिए कनु चिकित्सकीय निष्पक्षता से घर की राजनीति, पीढ़ी दर पीढ़ी बुराइयों की चक्रीयता, पितृसत्ता, यौनिकता, शहरी स्थानों, दम घोंटने वाले स्थानों में रहते लोगों की मनोदशा, अपराध की उत्पत्ति, पत्रकारिता, समाज की सड़ांध और इन सबके बीच के अंतर्संबंधों पर मौलिक, कलात्मक टिप्पणियां कर रहे हैं. अपने लिए उन्होंने अत्यंत कठोर मार्ग चुना है, जहां कम्फर्ट कम है और कष्ट ज्यादा. सिर्फ खरे सिनेमा की साधना के लिए.
सिने-सुझाव
कस्बा 1991
अपनी बौद्धिक-कलात्मक फिल्मों के लिए जाने गए कुमार शहानी की यह अपेक्षाकृत सादी और दिलचस्प रचना है. चेखव की एक कहानी इसकी बुनियाद है. हिमाचल में एक कस्बे का मिलावटखोर कारोबारी (मनोहर सिंह) खूब मुनाफा कूटता है. पगलैट बेटे (रघुबीर यादव) की महत्वाकांक्षी बीवी (मीता बसिष्ट) के इरादे और हैं. एक जगह वह कहती है: ''कोल्हू की मार मेरी और तेल की धार साहूकार?’’ मीता तो खैर शहानी-मणि कौल कैंप की पसंदीदा थी पर इसमें रघुबीर, मनोहर सिंह और बड़े बेटे के रोल में शत्रुघ्न सिन्हा को एक अलग अंदाज में देखते हैं.
कहां देखें: यूट्यूब
मिडसॉमर 2019
कुल चार फिल्में बनाने अमेरिका के एरी एस्टर आज के दौर के गंभीर फिल्मकारों में शुमार हैं. इस हॉरर में उन्होंने जैसे जीते-जागते खौफ को परदे पर उतारा है. अपने बॉयफ्रेंड के साथ स्वीडन के एक गंवई इलाके के सामुदायिक उत्सव में शामिल होने गई डैनी (फ्लॉरेंस पुग) वहां जान लेने-देने के के क्रूर-बेरहम रिवाज को देख हक्का-बक्का है. इस फिल्म से पुग तो खैर स्टार बनीं लेकिन किस्से के साथ-साथ इसका फिल्मांकन इतना कलात्मक है कि ढाई घंटे से ऊपर की होने के बावजूद आपको बांधे रखती है.
कहां देखें: मूबी
डॉ. बी.आर. आंबेडकर: नाउ ऐंड देन 2023
बढ़ते दलित उत्पीड़न के संदर्भ में फिल्मकार ज्योति निशा की यह डॉक्युमेंट्री मौजूं बन गई है. रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद हुए आंदोलन की फुटेज, सुखदेव थोरात, बेजवाड़ा विल्सन, अंजुम रजब अली, पा. रंजीत समेत कई विशेषज्ञों की मौजूं टिप्पणियों को समेटते हुए यह करीने से बुनी गई है. सहारनपुर की एक पीडि़ता ग्रामीण का बयान गहरा असर करता है: ''हमारे बाबासाहेब के लिए मर जांगे, मिट जांगे पर उनकी बेज्जती ना होनी चाहिए.’’
कहां देखें: मूबी
थ्री बिलबोर्ड्स आउटसाइड एबिंग, मिसौरी 2017
यह फिल्म दरअसल एक मां के साहस की दास्तान है. बलात्कार के बाद कत्ल की गई अपनी बेटी के हत्यारों के न पकड़े जाने पर वह शहर के बाहर के तीन बड़े विज्ञापन पट किराए पर लेती है और उन पर लिखकर विरोध जताने लगती है. यह उसका एक गांधीवादी नजरिया है. इसे फ्रांसिस मैन्न्डरमंड (68) के अभिनय के लिए देखना चाहिए. 60 की वय में उन्होंने ऐसे उद्विग्न और ऊहापोह से भरे चिîा को पूरी गरिमा के साथ परदे पर उतारा.
कहां देखें: अलग-अलग प्लेटफॉर्म

