इसी साल जनवरी में अभिनेता-निर्देशक दानिश इकबाल ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) के सम्मुख सभागार में एक ट्रेनिंग कोर्स के लोगों के सामने कथाकार कुणाल सिंह की साइकिल कहानी के साथ एक नया प्रयोग किया. वे ही किरदार, सूत्रधार, फिर दोनों से बाहर आकर खुद दानिश की शक्ल में दर्शकों और अपने म्यूजिशियन से बतियाना.
सोच-विचार के बाद इसे 'बुनकर' नाम देने वाले दानिश कहते हैं, ''इस शैली का अंकुर दरअसल अंकुर जी के कहानी का रंगमंच से ही फूटा है." बीसेक साल पहले इस्मत चुगताई, मंटो वगैरह की कहानियां मंचित करने के दौरान मशहूर अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने भी कुछ ऐसा ही कहा था: ''यह मानने में मुझे जरा भी हिचक नहीं कि मैं अंकुर जी से ही इंस्पायर्ड हूं. वे बहुत सारा हिंदुस्तानी लिटरेचर सामने लाए हैं. मैं बहुत आभार मानता हूं कि अंकुर जी ने रास्ता दिखाया." (इंडिया टुडे, 1 नवंबर, 2004)
दरअसल, दोनों कलाकारों की बात का सिरा कहानी का रंगमंच शैली से जुड़ा है और 78 वर्षीय देवेंद्र राज अंकुर को उसका प्रणेता माना जाता रहा है. न कोई सेट, न साजसज्जा, न खास प्रॉप्स, न ही विशुद्ध अभिनय. आलेख-अभिनेता और दर्शक, इसका सीधा-सा फलसफा है. ठीक 50 साल पहले उन्होंने कथाकार निर्मल वर्मा की तीन कहानियों को लेकर एनएसडी रंगमंडल के साथ तीन एकांत नाम से यह प्रयोग किया था. बाद में इसी तीन एकांत को प्रख्यात रंग निर्देशक सत्यदेव दुबे ने अमरीश पुरी के साथ दोहराया.
मई में उनके प्रयोग के 50 साल पूरे होने के मौके पर हाल में पांच प्रस्तुतियों का कथारंग नाम से एक उत्सव सम्मुख सभागार में हुआ. उसी में शामिल विजय पंडित की कहानी जोगिया राग की अभिनेत्री निधि मिश्रा के शब्दों में, ''किरदार, सूत्रधार, अभिनेता, ऑब्जर्वर...स्टेज पर सब कुछ आप ही हैं. इस लिहाज से यह किसी भी ऐक्टर के लिए बेहद चैलेंजिंग है."
कथाकार अजित कौर की आत्मकथा से तीन कहानियां लेकर 1992-93 में की गई वागीश सिंह-हेमा सिंह की प्रस्तुति खानाबदोश देश और दुनिया भर में खासी चर्चित रही. हेमा की राय में, ''इस शैली के लिए अभिनेता की गहरी साहित्यिक समझ जरूरी है, जो इससे जूझते हुए और गहरी होती है."
अंकुर ने 500 कहानियों के मंचन के बाद संख्या गिनना छोड़ दिया. पर शुरुआत उन्हें याद है, ''उस वक्त एक कौंध आई कि एक बार ऐसे भी कहानी को स्टेज पर लाकर देखते हैं. बस शुरू कर दिया. लोगों ने स्वीकार भी कर लिया तो सिलसिला चल पड़ा." यह ऐसा चला कि नाट्यशास्त्र, रंग स्थापत्य और मॉडर्न इंडियन ड्रामा समेत सात विषय पढ़ाने वाले अंकुर को इसी से जोड़कर देखा जाने लगा.
1982 में कलकत्ता में एक वर्कशॉप में न्यौता मिलने पर उन्होंने दो बांग्ला कहानियां कीं. प्रतिक्रियाएं आईं कि 'बादल सरकार का थर्ड थिएटर सुना है, अब इसे क्या फोर्थ थिएटर कह सकते हैं?' अंकुर के ही शब्दों में, ''मुझे लगा कि लोग रिसीव कर रहे हैं." एनएसडी ने 1994 में इसे रेगुलर सिलेबस का हिस्सा बनाया जो 2008 तक चला. पंकज त्रिपाठी, आशुतोष राणा, कुमुद मिश्र सरीखे अभिनेता इस प्रोसेस से गुजर चुके हैं.
लेकिन कई बड़े रंगकर्मी अंकुर को इस शैली का प्रणेता कहे जाने पर ऐतराज करते हैं. ''कहानियां तो रंगमंच की शुरुआत से उसका हिस्सा रही हैं. वे प्रणेता कैसे हो गए?" एक दिग्गज नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं. अंकुर स्पष्ट करते हैं, ''हम कब क्रेडिट ले रहे हैं? हमको और अभिनेताओं को मजा आ रहा है. मैंने कभी नहीं कहा कि मैं ही अकेला कर रहा हूं. पर दूसरे लोग जायका बदलने के लिए करते हैं." वैसे भी, (बर्टोल्ट) ब्रेष्ट ने अपना रंगमंच 50 साल किया? बादल सरकार ने (थर्ड थिएटर) 50 साल किया, वे पूछते हैं.
अंकुर ने मोहन राकेश, गिरीश कारनाड, बादल सरकार की बजाए हमेशा नए नाटकों और खासकर कहानियों को मंचन के लिए चुना. और दिग्गज रंगकर्मी रामगोपाल बजाज के शब्दों में, ''अंकुर ने अपने इस महत्वपूर्ण प्रयोग में कहानी का कहानीपन बनाए रखा. और उस पहल की निरंतरता को भी." 15 साल बाद एनएसडी ने हाल में फिर उन्हें छात्रों के साथ कहानियों के मंचन के लिए बुलाया. 50 साल में प्रयोग, प्रेरणा और बहस का खुद एक दिलचस्प किस्सा बन गया है कहानी का रंगमंच.