
आर्थिक उदारीकरण के देश में सूत्रधार, 2004 से 2014 तक प्रधानमंत्री रहे मनमोहन सिंह का 26 दिसंबर को 92 वर्ष की आयु में निधन हो गया. पंजाब के गाह (अब पाकिस्तान में) के एक साधारण परिवार में पले-बढ़े मनमोहन सिंह का देश का 13वां प्रधानमंत्री बनने का सफर उनकी सामर्थ्य, बुद्धिमत्ता और जनसेवा की अटूट प्रतिबद्धता का प्रमाण है. देश की जूझती उत्तर-औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था से उभरती वैश्विक महाशक्ति में तब्दीली में उनका खासा योगदान रहा है.
उन्हें कुछ ही लोग इतने करीब से जानते होंगे जितना प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री मोंटेक सिंह अहलूवालिया. अहलूवालिया ने उनके साथ काम किया, जब वे वित्त मंत्री थे और बाद में जब प्रधानमंत्री बने. 2020 में छपी अपनी किताब बैकस्टेज: द स्टोरी बिहाइंड इंडियाज हाई ग्रोथ इयर्स में अहलूवालिया ने मनमोहन सिंह के व्यक्तित्व के कुछ अहम पहलुओं को स्पष्टता और प्रामाणिकता के साथ सामने रखा.
उनकी इसी किताब के अंश यहां दिए गए हैं, जिसमें उन्होंने नितांत निजी अनुभवों और देश की प्रगति में मनमोहन के अपार योगदान को दो-टूक रेखांकित किया है:
मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाए जाने पर
21 जून, 1991 को जब नई सरकार शपथ लेने वाली थी, मैं वाणिज्य सचिव के पद पर था. शपथ ग्रहण समारोह से पहले प्रधानमंत्री कार्यालय में एक बैठक में बुलाए जाने पर मुझे सुखद आश्चर्य हुआ. वहां मौजूद लोगों में डॉ. मनमोहन सिंह भी थे जो जिनेवा स्थित 'साउथ कमिशन' में तीन साल काम करने के बाद हाल ही देश लौटे थे.
उन्हें विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का अध्यक्ष और तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर का आर्थिक सलाहकार नियुक्त किया गया था. प्रधानमंत्री पद के लिए मनोनीत पी.वी. नरसिंह राव ने हमें इस विषय पर चर्चा के लिए बुलाया था कि अगले दिन देश के नाम अपने पहले संबोधन में उन्हें क्या कहना चाहिए क्योंकि देश आर्थिक संकट से जूझ रहा था और उन्हें संदेश देना था कि इस संकट से निबटने के लिए सरकार क्या करने वाली है.
बैठक के शुरू में ही राव ने स्पष्ट कर दिया कि सरकार को कठिन निर्णय लेने होंगे और समाधान के कुछ नए तरीके तलाशने होंगे. उन्होंने कहा, 'हमें अपने दिमाग के जाले साफ करने होंगे.' फिर बैठक के आखिर में कहा, 'मनमोहन, आप जानते हैं कि क्या करने की जरूरत है. बेहतर होगा, आप नॉर्थ ब्लॉक के अपने दफ्तर में बैठकर इस पर एक मसौदा तैयार करें कि मुझे टीवी पर क्या कहना चाहिए और शाम तक मुझे भेज दें?'

तब मुझे पहली बार एहसास हुआ कि मनमोहन सिंह नए वित्त मंत्री होंगे! मैं उन्हें 15 साल से जानता था. तब वे आरबीआई के गवर्नर थे और ईशर और मैं अपने बच्चों को लेकर मुंबई में उनके परिवार के पास रहने गए थे. उन्होंने और उनकी पत्नी गुरशरण कौर ने हमारे बच्चों के उस प्रवास को यादगार बनाने के लिए काफी कुछ किया.
प्रधानमंत्री राव वित्त मंत्री के लिए इससे बेहतर विकल्प नहीं चुन सकते थे. मनमोहन सिंह को अंतरराष्ट्रीय और देश के वित्तीय हलकों में व्यापक सम्मान हासिल था. उनको पता था कि उन्हें अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए कई गांठों को खोलना होगा, और वे इस बारे में दूसरों से बेहतर जानते थे कि व्यवस्था कैसे काम करती है और किन पहलुओं में सुधार की जरूरत है.
रुपए का अवमूल्यन 'हॉप, स्किप ऐंड जंप'
आर्थिक संकट से निबटने के पहले कदम के तौर पर 1 जुलाई, 1991 को रुपए के मूल्य में 9 फीसद अवमूल्यन की घोषणा की गई. वाणिज्य सचिव के तौर पर मुझे फैसले की जानकारी नहीं थी. लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं था कि यह सही कदम था. हालांकि, 9 फीसद का अवमूल्यन बहुत कम लग रहा था. दो दिन बाद, दूसरे अवमूल्यन के कारण कुल अवमूल्यन तकरीबन 19 फीसद हो गया, जो भुगतान संतुलन (बीओपी) संकट से निबटने के लिए अधिक उचित समायोजन था.
डॉ. मनमोहन सिंह ने बाद में मुझे बताया कि प्रधानमंत्री राव के कहने पर दो-चरण में किया गया था. डॉ. सिंह ने मुझे यह भी बताया कि उसकी रूपरेखा तैयार करते हुए उन्होंने जल्दी-जल्दी एक हस्तलिखित नोट तैयार किया और प्रधानमंत्री के हस्ताक्षर से स्वीकृति प्राप्त की.
इस फैसले से आरबीआई के तत्कालीन गवर्नर एस. वेंकटरमणन और डिप्टी गवर्नर सी. रंगराजन को अवगत कराया गया, जो विनिमय दर प्रबंधन के प्रभारी अधिकारी थे. निश्चित तौर पर वे आसन्न अवमूल्यन के बारे में जानते थे और इससे सहमत थे. इस प्रक्रिया को अनौपचारिक रूप से 'हॉप, स्किप ऐंड जंप' नाम दिया गया था ताकि गोपनीयता बनाए रखकर टेलीफोन पर जिक्र कर सकें.
मुद्रा अवमूल्यन के फैसले की शुरुआती दौर में खासी कड़ी आलोचना भी हुई. डॉ. मनमोहन सिंह ने जब तत्कालीन राष्ट्रपति आर. वेंकटरमण को अवमूल्यन की जरूरत के बारे में बताया तो वे इससे कतई सहमत नहीं थे. राष्ट्रपति ने अपनी नाखुशी से प्रधानमंत्री को भी अवगत कराया और वे इतने चिंतित थे कि उन्होंने वित्त मंत्री से दूसरा अवमूल्यन रोकने को कहा!
लेकिन जैसा तय था, मनमोहन सिंह आरबीआई को 3 जुलाई को बाजार खुलने से पूर्व दूसरा कदम उठाने का निर्देश पहले ही दे चुके थे. जब उन्होंने प्रधानमंत्री के अनुरोध पर रंगराजन को फिर बुलाया, ताकि यह आकलन किया जा सके कि क्या दूसरे चरण को रोकना संभव है, तो रंगराजन ने कहा, सहमति के आधार पर वे पहले ही कदम उठा चुके हैं.
आर्थिक विकास के पुरोधा
ईशर और मैं दोनों ही वित्त मंत्री को सदन में बजट भाषण देते देखने गए थे. उन्होंने एक अलग ही उत्साहपूर्ण टिप्पणी के साथ भाषण समाप्त किया, जिसे बहुत उद्धृत किया गया है, "जैसा कि विक्टर ह्यूगो ने एक बार कहा था, 'धरती पर कोई ताकत उस विचार को नहीं रोक सकती जिसका वक्त आ गया हो.' मैं इस सम्मानित सदन को बताना चाहता हूं कि दुनिया में प्रमुख आर्थिक शक्ति के तौर पर भारत का उभरना ऐसा ही विचार है. पूरी दुनिया को यह बात साफ-साफ सुन लेनी चाहिए. भारत अब पूरी तरह जाग चुका है. हम जीतेंगे. हम इस मुश्किल दौर से उबर जाएंगे."

मनमोहन सिंह का मजबूती के साथ किया गया आकलन दूरदर्शी साबित हुआ. ठीक 10 साल बाद, 2001 में जिम ओ'नील के नेतृत्व में गोल्डमैन सैक्स रिसर्च टीम ने भारत को उन ब्रिक देशों (ब्राजील, रूस, भारत, चीन) में से एक के तौर पर पहचाना, जो भविष्य में वैश्विक विकास का मुख्य स्रोत हो सकता है.
बाद में दक्षिण अफ्रीका को जोड़कर इस संक्षिप्त नाम को ब्रिक्स कर दिया गया. बाद के वर्षों में रूस और ब्राजील की वृद्धि दर में उतार-चढ़ाव देखने को मिला. चीन 30 साल तक 10 फीसद से अधिक की दर से विकास के बाद अब धीमा पड़ गया है. भारत की समग्र वृद्धि दर में उतार-चढ़ाव देखने को मिला है लेकिन यह अपेक्षाकृत मजबूत बनी हुई है. पिछले 15 वर्षों में भारत की आर्थिक विकास दर औसतन 7.5 फीसद रही है.
मनमोहन सिंह की पत्नी गुरशरण कौर ने ईशर को बताया कि बतौर वित्त मंत्री उन कठिन वर्षों के दौरान वे सुबह जब अपने दफ्तर जाने के लिए तैयार होते थे तो अक्सर दसवें गुरु का अपना पसंदीदा शबद गुनगुनाते थे: देह शिवा बर मोहे इहे, शुभ करमन ते कबहूं न टरूं; न डरूं अरि से जब जाए लडूं, निश्चय कर अपनी जीत करूं. मनमोहन सिंह के लिए धर्म एक नितांत निजी मामला था. लेकिन उन्हें करीब से जानने वाली और खुद गुरबानी गुनगुनाने वाली ईशर ने मुझे बताया कि बाहर से एकदम सौम्य सिख नजर आने वाले मनमोहन को गुरबानी से जबरदस्त ताकत मिलती है.
सुधारों का श्रेय
यह सवाल उठना लाजिमी है कि सुधारों का श्रेय नरसिंह राव और मनमोहन सिंह में से किसे मिलना चाहिए. जवाब आसान नहीं है. राव को अर्थव्यवस्था संभालने में विशेषज्ञता की वजह से मनमोहन सिंह को चुनने का पूरा श्रेय जाता है. यही नहीं, राव ने हर कदम पर उनका समर्थन किया. उसके बिना, कोई सुधार संभव नहीं था. राव ने यह भी माना कि अगर भारत को अपनी पूरी क्षमता का लाभ उठाना है तो बदलाव जरूरी हैं.
पुरानी मानसिकता में बंधे कांग्रेस के अधिकांश वरिष्ठ नेताओं के विपरीत वे व्यावहारिक थे और बदलाव को तैयार थे. वे निजी क्षेत्र के निवेश संबंधी निर्णयों पर नियंत्रण घटाने की जरूरत समझते थे और बतौर उद्योग मंत्री इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाया. हालांकि, मुझे ऐसा नहीं लगता कि उन्होंने अर्थव्यवस्था की पूरी क्षमता के इस्तेमाल के लिए जरूरी व्यापक बदलावों के महत्व को समझा.
व्यापार उदारीकरण, लचीली विनिमय दर और वित्तीय क्षेत्र में सुधार जैसे बदलाव मुख्यत: मनमोहन सिंह की विशेषज्ञता और बुद्धिमत्ता के कारण संभव हो पाए. वे जानते हैं कि ऐसे सुधार किस तरह एक-दूसरे से जुड़े हैं और उन्होंने पूरी कुशलता से अमल किया. डॉ. मनमोहन सिंह ने एक बार मुझे बताया था कि राव एकदम स्पष्टवादी थे, उन्होंने कहा था, "मनमोहन, आगे बढ़ो, जो जरूरी है करो. पार्टी और लोगों को सुधारों की जरूरत के बारे में समझाओ. कामयाब हुए तो मैं श्रेय लूंगा. नाकाम हुए तो दोषी तुम होगे."

प्रधानमंत्री पद से हटने के कुछ वर्षों बाद राव नई दिल्ली में एक पुस्तक विमोचन समारोह में बोल रहे थे. उनसे प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री के बीच संबंधों पर टिप्पणी करने को कहा गया. इस पर उन्होंने कहा कि वित्त मंत्री पर आर्थिक नीति तैयार करने और उसे लागू करने का जिम्मा होता है लेकिन उनका प्रभावी होना प्रधानमंत्री के समर्थन पर निर्भर करता है.
उन्होंने कहा, ''प्रधानमंत्री के समर्थन बिना वित्त मंत्री कुछ भी नहीं है. यह प्रधानमंत्री का समर्थन ही है जो शून्य से पहले एक लगाकर उसे 10 बना देता है." यह बात बड़े ही करीने से कही गई थी. मुझे ऐसा लगा कि स्पष्ट तौर पर राव की बारीक विवरण तैयार करने, तकनीकी तौर पर उसे प्रमाणित करने और सार्वजनिक रूप से जरूरतों का बचाव करने के लिहाज से 'सुधारों के वास्तुकार' होने का श्रेय लेने की कोई इच्छा नहीं थी.
डॉ. सिंह ने यह सब बेहद आत्मविश्वास के साथ किया था और इसने उन्हें सुधारों का सच्चा सूत्रधार बना दिया. लेकिन यह भी सच है कि अगर राव ने मनमोहन सिंह का समर्थन नहीं किया होता तो यह सब कुछ नहीं हो पाता और राव चाहते थे कि उन्हें इसी बात का श्रेय मिलना चाहिए. जाहिर है, राव इस श्रेय के पूरी तरह हकदार भी थे.
बतौर प्रधानमंत्री रिकॉर्ड
मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल के अंत में जनता के बीच जिस तरह से नकारात्मक धारणा बनी, उसने मुझे आहत किया. उन्होंने 10 वर्ष तक प्रधानमंत्री के तौर पर काम किया, वे जवाहरलाल नेहरू के बाद सबसे लंबे समय तक प्रधनमंत्री पद पर रहने वाले पहले व्यक्ति थे. 10 वर्ष के इस कार्यकाल में पहले सात वर्ष उनकी सरकार ने शानदार प्रदर्शन किया था.
उस दौरान अर्थव्यवस्था ने औसतन 8.4 फीसद की वृद्धि दर्ज की, जो अब तक की सबसे तेज वृद्धि दर है. प्रधानमंत्री के तौर पर उनके कार्यकाल के दौरान ही भारत कम आय वाले विकासशील देश से मध्यम आय वाले देशों की निचली श्रेणी में पहुंच गया और दुनिया में सबसे तेजी से उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाओं में से एक बना. भारत के निजी क्षेत्र ने वैश्विक स्तर पर पहचान बनानी शुरू की और उसे विकास के संभावित मजबूत इंजन के तौर पर देखा जाने लगा.
उनके कार्यकाल में ही भारत में गरीबों की कुल संख्या में कमी आई और 13.8 करोड़ लोगों को गरीबी से बाहर निकाला गया. प्राथमिक विद्यालय में दाखिला लगभग शत प्रतिशत के स्तर पर पहुंचा. हालांकि शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए बहुत कुछ करने की जरूरत बाकी है. जीवन प्रत्याशा में सुधार हुआ और देश को 2014 में पोलियो मुक्त घोषित किया गया. पहले देश में नियमित तौर पर लगभग 1,00,000 पोलियो के मामले सामने आते थे. वे एटमी क्षेत्र में भेदभाव मिटाने में सफल रहे, जिसने भारत को एटमी आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) में अन्य देशों के विशेषाधिकारों से वंचित कर रखा था.
ऐतिहासिक एटमी करार
वर्ष 2008 में भारत-अमेरिका एटमी करार इस लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण था कि उसने हमारे रिएक्टरों के लिए यूरेनियम ईंधन जैसे एटमी पदार्थों पर तमाम तरह के आयात प्रतिबंधों को हटाने की राह खोली, जिनकी आपूर्ति बेहद सीमित होती थी. यही नहीं, अमेरिका के साथ रक्षा सहयोग को व्यापक स्तर पर पहुंचाने में भी अहम भूमिका निभाई. मनमोहन सिंह का स्थिर नेतृत्व एटमी समझौते को सफल बनाने में काफी अहम साबित हुआ. उन्होंने प्रमुख लोगों की एक टीम बनाई और उनके बीच सहयोग के साथ आम सहमति स्थापित की, और यह रणनीति कारगर रही.
आगे बढ़कर मोर्चा संभालना विशेष तौर पर महत्वपूर्ण था क्योंकि कांग्रेस पार्टी के भीतर कई लोग इस सौदे को लेकर दुविधा में थे. वे अमेरिका के बहुत करीब होने के राजनैतिक परिणामों को लेकर चिंतित थे, क्योंकि उन्हें वामपंथियों का समर्थन खो देने का डर था और यह भी चिंता थी कि अमेरिका के साथ निकटता मुस्लिम मतदाताओं को नाराज कर देगी.
कई अहम बिंदुओं पर प्रधानमंत्री को पार्टी के बाहर से राजनैतिक समर्थन जुटाना पड़ा, जैसे डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने सरकार के समर्थन के लिए समाजवादी पार्टी नेता मुलायम सिंह से बात की. प्रधानमंत्री पूरी कुशलता और धैर्य के साथ उथल-पुथल भरी राजनैतिक स्थिति से उबरने और अपनी पार्टी को एकजुट रखने में कामयाब हुए. यकीनन सोनिया गांधी के समर्थन के बिना यह सब कुछ कर पाना संभव न था, जो पार्टी की दुविधा से वाकिफ थीं.
राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू. बुश के साथ प्रधानमंत्री का बेहतरीन व्यक्तिगत तालमेल काफी मददगार रहा. प्रधानमंत्री के प्रति बुश के मन में सम्मान के भाव की एक झलक मैंने खुद उस वक्त देखी जब वे सितंबर 2008 में एक यात्रा पर वाशिंगटन डीसी में थे. अमेरिकी कांग्रेस की अनिच्छा के बावजूद वित्तीय संकट से निबटने की पहल ट्रबल ऐसेट रिलीफ प्रोग्राम (टीएआरपी) को आगे बढ़ाया जा रहा था. ऐसे तनावपूर्ण माहौल के बीच राष्ट्रपति बुश ने प्रधानमंत्री और उनके प्रतिनिधिमंडल के कुछ सदस्यों को व्हाइट हाउस में एक वर्किंग लंच पर आमंत्रित किया.
मनमोहन सिंह ने इस मौके पर अपने संबोधन में कहा कि वे राष्ट्रपति को ऐसे समय मुलाकात करने के लिए धन्यवाद देते हैं जब वे कांग्रेस को टीएआरपी की मंजूरी के लिए मनाने में बेहद व्यस्त हैं. जवाब में बुश ने उनके बारे में जो कहा, वह काफी प्रभावशाली था, ''श्रीमान प्रधानमंत्री, मैं संकट के इस समय में किसी और से नहीं मिलना चाहूंगा. लेकिन आपसे मिलकर लोगों को बहुत सुकून मिलता है!" मुझे लगा कि यह टिप्पणी बहुत गहरे मायने रखती है. और वाकई थी भी.
आलोचनाओं का स्वागत
वर्ष 2012 में कैबिनेट मंत्री, बैंकर, उद्योगपति, वरिष्ठ संपादक, अर्थशास्त्री, वकील और प्रशासनिक अधिकारियों जैसे तमाम विशिष्ट मेहमान नई दिल्ली के विज्ञान भवन स्थित एक सम्मेलन कक्ष में जुटे. इस मौके पर डॉ. मनमोहन सिंह के सम्मान में अर्थशास्त्रियों के लिखे लेखों पर आधारित किताब इकोनॉमिक रिफार्म्स ऐंड डेवलपमेंट: एसे फॉर मनमोहन सिंह का दूसरा संस्करण लॉन्च किया जाना था, जिसे ईशर और लैन लिटिल (ऑक्सफोर्ड में उनके थीसिस सलाहकार) ने संपादित किया था.
शिकागो स्कूल ऑफ बिजनेस से जुड़े रघुराम राजन सहित एक प्रतिष्ठित पैनल को भारत में आर्थिक सुधारों की चुनौतियों पर चर्चा के लिए बुलाया गया था. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह मुख्य अतिथि थे. माहौल थोड़ा नीरस था. 2011-12 की अंतिम तिमाही में आर्थिक विकास दर घटकर 5.8 फीसद पर आ गई थी और मुद्रास्फीति उच्च स्तर पर थी. विनियामक स्तर पर देरी से बड़ी परियोजनाएं अटक रही थीं. सुप्रीम कोर्ट बमुश्किल दो महीने पहले ही 2जी लाइसेंस रद्द कर चुका था और कोयला ब्लॉक आवंटन पर कैग रिपोर्ट का मसौदा प्रेस में लीक हो गया था.
ईशर ने मंदी की आशंका जताने के साथ सुधारात्मक कार्रवाई की जरूरत को रेखांकित करते हुए चर्चा की शुरुआत की. परिचर्चा के केंद्रबिंदु रघुराम राजन थे, जिन्होंने यह कहकर शुरुआत की कि भारत के आर्थिक सुधारों ने बहुत कुछ हासिल किया है लेकिन चीजें गलत हो रही हैं. विकास की गति धीमी पड़ रही है लेकिन राजनेता अधिक सुधारों पर ध्यान देने के बजाए सब्सिडी और नकद हस्तांतरण जैसी योजनाओं के जरिए लोकप्रिय होने की कोशिश कर रहे हैं.
उन्होंने 'संसाधन राज’ के खिलाफ भी चेताया, जिसने व्यापारियों को प्राकृतिक संसाधनों तक पहुंच के लिए राजनैतिक संबंधों के उपयोग की अनुमति दी थी. यह बात मनमोहन सिंह के व्यक्तित्व के बारे में बहुत कुछ बताती है कि रघुराम राजन की तरफ से इस कदर तीखी आलोचना के बावजूद उन्हें चार महीने बाद ही वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार नियुक्त किया गया. ईशर ने मुझे बताया कि ऐसा करके डॉ. मनमोहन सिंह दरअसल संत कबीर के दोहे को जी रहे थे, जिसमें कहा गया है—निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय, बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय.
बेजोड़ विनम्रता
मनमोहन सिंह ने कभी अपनी उपलब्धियों का बखान नहीं किया. उनको पूरा भरोसा था कि बेहतर यही है कि नतीजे खुद जवाब दें. लेकिन चूंकि न तो उन्होंने और न ही उनकी पार्टी ने इन उपलब्धियों को रेखांकित किया, इसलिए वे कभी राजनैतिक चर्चा का हिस्सा नहीं बन पाईं. मैंने खुद 2013 में इसका अनुभव किया, जब कांग्रेस भारत में गरीबी घटने का श्रेय लेने में असमर्थ या अनिच्छुक दिखी, जिसे दुनिया के बाकी हिस्सों में एक बड़ी उपलब्धि के तौर पर व्यापक सराहना मिल रही थी.
लोगों की याददाश्त कमजोर होती है और इसमें कोई अचरज की बात नहीं थी कि यूपीए-2 के आखिर में पहले सात वर्षों की उपलब्धियां भुला दी गईं और आर्थिक मंदी, निर्णय लेने की क्षमता का अभाव और भ्रष्टाचार के लगातार दोहराए जाते जाते आरोपों का नैरेटिव हावी हो गया.
आखिरी प्रेस कॉन्फ्रेंस में मनमोहन सिंह से जब यह पूछा गया कि वे अपने कार्यकाल के बारे में क्या राय रखते हैं तो अपनी चिरपरिचित विनम्रता के साथ उन्होंने कहा कि उन्होंने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया, ''इतिहास मुझे आज प्रेस की तुलना में अधिक उदारता के साथ आंकेगा."
मुझे कोई संदेह नहीं है कि वे सही साबित होंगे. हालांकि, मैंने उन्हें याद दिलाया कि ऐसा कहते हुए वे विंस्टन चर्चिल को उद्धृत कर रहे थे. वैसे चर्चिल ने आगे कहा था कि इतिहास उन्हें अधिक उदारता से आंकेगा क्योंकि वे उसे स्वयं लिखना चाहते थे! मैंने कई बार डॉ. मनमोहन सिंह से अपने संस्मरण लिखने का आग्रह किया है लेकिन ऐसा हो नहीं पाया.
मोंटेक सिंह अहलूवालिया की लिखी किताब बैकस्टेज: द स्टोरी बिहाइंड इंडियाज हाइ ग्रोथ इयर्स के ये अंश रूपा प्रकाशन, भारत के सौजन्य से पुन: प्रकाशित किए गए हैं.