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पायल कपाडिया की परवरिश ने कैसे गढ़ा उनका सिनेमा?

'ऑल वी इमेजिन ऐज लाइट' की डायरेक्टर पायल कपाडिया अपनी इस फिल्म की वजह से इन दिनों देश-दुनिया में खूब सुर्खियां बटोर रही हैं

फिल्मकार पायल कपाडिया
फिल्मकार पायल कपाडिया
अपडेटेड 7 दिसंबर , 2024

मुंबई के लोअर परेल में चारों ओर इमारतों से भरे इलाके में विशालकाय खंभे की तरह निकली 20 मंजिला कांच की बिल्डिंग वन वर्ल्ड सेंटर. इसी में बैठीं फिल्मकार पायल कपाडिया गहरे उतार-चढ़ावों से गुजर रही हैं. ठीक अपनी फिल्मों के किरदारों की तरह. मुंबई में जन्मी और यहीं रह रही 38 वर्षीया फिल्मकार को पता है कि वे उसी मिल की जमीन के टुकड़े पर खड़ी इमारत में बैठी हैं जहां बने घर को उनकी फिल्मऑल वी इमेजिन ऐज लाइट की एक किरदार को अंतत: गंवाना पड़ा था.

वे कहती हैं, "मैं प्रगति के खिलाफ नहीं हूं और किसी भी तरह अतीत से चिपकी रहना नहीं चाहती, लेकिन कभी यहां रह और काम कर चुके लोग अब इस जगह तक नहीं पहुंच सकते. पब्लिक स्पेस इस तरह से खो देना मुझे परेशान करता है. यही वह पहली चीज है जो शहर का विकास होने पर भेंट चढ़ती है." कपाडिया इन दिनों पब्लिसिटी पर निकली हैं. करीब पांचेक महीने से यह सिलसिला चल रहा है.

तभी से जब मई में ऑल वी इमेजिन ऐज लाइट ने कान फिल्म फेस्टिवल में ग्रैंड ज्यूरी प्राइज जीता और वे इस प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह का दूसरा सबसे बड़ा अवार्ड जीतने वाली पहली भारतीय फिल्मकार बनीं. इस बीच कपाडिया पहली बार अमेरिका गईं, जहां प्रतिष्ठित टेलुराइड फिल्म फेस्टिवल में उनकी यह फिल्म दिखाई गई; टाइम 100 नेक्स्ट समारोह में शरीक हुईं; और क्राइटेरियन वीडियो लाइब्रेरी घूमीं, जो किसी भी स्वतंत्र फिल्मकार का सपना होता है.

राणा डग्गूबाती की स्पिरिट मीडिया ने इस स्वतंत्र फिल्म के वितरण अधिकार हासिल किए, जिसकी बदौलत यह 22 नवंबर को अंतत: सिनेमाघरों में पहुंच रही है. वे कहती हैं, "फिल्म को मिल रही हर चीज पर मुझे सुखद आश्चर्य है. फिल्म निर्माण में...काश मैं कह पाती कि कुछ गारंटी है, पर (यहां) कभी कोई गारंटी नहीं. यह किसी दूसरे फेस्टिवल में भी जा सकती थी जहां इस पर इतना ध्यान नहीं दिया जाता. समितियों में लोग ही तो होते हैं और उनकी प्रतिक्रिया के बारे में आप कुछ नहीं कह सकते."

सच. तभी तो इस फिल्म को ऑस्कर में सर्वश्रेष्ठ अंतरराष्ट्रीय फीचर फिल्म की श्रेणी में भारतीय प्रविष्टि के तौर पर नहीं चुना गया. माना जा रहा था कि यह भले अंत में न चुनी जा सके पर नामांकन तक तो पहुंच ही जाएगी. लेकिन ऑल वी इमेजिन ऐज लाइट को दरकिनार करके लापता लेडीज चुन ली गई. फिल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया की पूरी तरह पुरुषों से बनी समिति को लगा कि कपाडिया की फिल्म में 'भारतीय सिनेमा' का टच नहीं है. कपाडिया स्वीकारती हैं कि इस तर्क से वे 'चकरा' गईं. वे कहती हैं, "मुमकिन है यह टेक्निकल बात हो क्योंकि प्रोड्यूसर फ्रेंच हैं."

कलात्मक किस्सागो

ऑल वी इमेजिन ऐज लाइट इसलिए भी प्रबल दावेदार हो सकती थी क्योंकि यह मुंबई की तीन महिलाओं की मर्मस्पर्शी और लुभावनी ड्रामा फिल्म है. प्रभा (कनी कुसरुति) और अनु (दिव्य प्रभा) मलयाली नर्सें हैं. प्रभा अपने उस पति का इंतजार करते हुए ऊहापोह में है जिसने जर्मनी जाने के बाद कोई खबर तक न भेजी. अनु एक मुस्लिम लड़के के साथ दबे-छिपे रिश्ते में है. वह जानती है कि उसके मां-बाप कभी इसे मंजूर न करेंगे. उधर पार्वती (छाया कदम) 'दस्तावेज' न होने के चलते शहर का अपना घर गंवा बैठती है और रत्नागिरि में समुद्र के किनारे अपने गांव के घर लौटने को मजबूर हो जाती है.

स्वप्निल माहौल में शूट की गई इस फिल्म में मुंबई की लोकल ट्रेनों, बाजारों और अस्पतालों को इतने असरदार ढंग से उकेरा गया है जितना पहले कभी किसी फिल्म ने नहीं किया. कपाडिया और उनके मुख्य सहयोगी और साथी रणबीर दास ने नीले रंग के जरिए अपार संभावनाओं और अकेलेपन को इस तरह उभारा कि उसे चौतरफा अफरा-तफरी के बीच भी महसूस किया जा सकता है.

ऑल वी इमेजिन ऐज लाइट में वह सब है जो अब कपाडिया की फिल्मों की पहचान है—धीमी आवाजों में काव्यात्मक एकालाप, अस्पष्ट आवाजें और उनके साथ पिरोई गई गीतात्मक छवियां, तरह-तरह की जीवंत ध्वनियां और बारीक सियासी टिप्पणियां. अपनी प्रक्रिया के बारे में वे खुद कहती हैं, "मुझे लगता है कि ध्वनियों और छवियों में बेसुरापन चीजों के बारे में सोचने के लिहाज से ज्यादा परतों का निर्माण करता है."

फिल्म कमेंट पत्रिका ने उनकी प्रक्रिया को 'आर्टफुल डॉक्युफिक्शन' कहा. कपाडिया के अपनी पटकथाओं तक पहुंचने के तरीके के पीछे बहुत मेहनत से सिद्ध पद्धति है. ऑल वी इमेजिन ऐज लाइट  के लिए उन्होंने और उनके रिसर्चर ने दो साल में करीब 200 लोगों से बात की और पहली बार प्रवासी के तौर पर मुंबई में रहने के उनके अनुभव के बारे में पूछा. उनके शब्दों में, "मुझे लगता है मेरी कल्पना का दायरा सीमित है. लोगों से बात करके मुझे बहुत कुछ मिलता है, उनका मैनरिज्म, हाव-भाव, और अपनी निजी जिंदगी में वे कैसे हो सकते हैं...जी गई जिंदगियों और देखी गई चीजों के बारे में ज्यादा जानने को मिलता है." कलात्मकता उनकी फिल्मों के शीर्षकों तक जाती है, चाहे वह शॉर्ट फिल्म ऐंड ह्वाट इज द समर सेइंग (2018) हो या अ नाइट ऑफ नोइंग नथिंग (2021) या ऑल वी इमेजिन ऐज लाइट, जिसे उन्होंने अपनी मां की एक पेंटिंग से लिया.

परिवार दा मामला

मशहूर कलाकार नलिनी मलानी की बेटी कपाडिया की सौंदर्य दृष्टि और अपने किरदारों के प्रति नरमदिली उनकी परवरिश से आई है. कपाडिया याद करती हैं कि किस तरह वे और उनकी बहन 'सस्ती से सस्ती आर्ट बुक्स' और बच्चों की किताबें खरीदने के लिए हर हफ्ते मां के साथ फ्लोरा फाउंटेन और काल्बादेवी में सेकंड हैंड बुक स्टॉलों पर जाया करती थीं. इनमें से कुछ किताबें अब भी उनके पास हैं. स्कूल के बाद कपाडिया को उनकी मां के स्टुडियो में छोड़ दिया जाता, जहां वे पेंट और छोटी-छोटी बेतरतीब चीजों से भरे 'मनोरंजन बॉक्स' के साथ खुद को व्यस्त रखतीं. कपाडिया कहती हैं, "मैं जो देख रही होती, उसे सजा-संवार देने पर वे बड़ा ध्यान देती थीं. वाकई बहुत छोटी उम्र से उन्होंने स्वतंत्र सोच को बढ़ावा दिया."

कपाडिया अपनी फिल्मों में लौट-लौटकर आने वाले सपनों के प्रति खिंचाव का श्रेय अपने मनोविश्लेषक पिता को देती हैं. वे कहती हैं, "जागने पर अपने सपनों और उनके मायनों के बारे में बात करना हमारी जिंदगी का हिस्सा था. अगर आपने एक निश्चित किस्म का सपना देखा तो वे सहानुभूति रखते. मुझे लगता था कि यह अपने वक्त से कहीं आगे की बात थी." यह भी बहुत काम आया कि उनके पिता को शहरों से प्यार था. कपाडिया बताती हैं, "उन्हें सड़कों की बहुत अच्छी जनाकारी थी. हर बार यह एक नया रोमांच होता. इतवार को हम भूलेश्वर जाते और ढोकला-जलेबी खाते. वे उम्दा किस्सागो भी थे."

अलबत्ता खुद कपाडिया ने बचपन और किशोरावस्था का एक दशक मुंबई से बाहर आंध्र प्रदेश के ऋषि वैली स्कूल में बिताया. 17 साल की उम्र में लौटने पर उन्होंने सेंट जेवियर्स कॉलेज से पढ़ाई की, जहां उनके ज्यादातर दोस्त मुंबई से बाहर के थे. सिनेमा से कपाडिया का परिचय जल्द ही शुरू हो गया, जब उन्होंने आनंद पटवर्धन सरीखे फिल्मकारों की डॉक्युमेंट्री देखी.

इसके अलावा मां को वीडियो आर्टवर्क्स के लिए फिल्में एडिट करने के साथ ही डॉक्युमेंट्री, शॉर्ट और एनिमेशन फिल्मों के लिए जाने गए मुंबई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल (एमआईएफएफ) और एक्सपेरिमेंटा सरीखे फिल्म समारोहों में हिस्सा लेते देखा. यहीं भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई) के छात्रों की शॉर्ट फिल्में देखते हुए वे पुणे स्थित इस प्रतिष्ठित संस्थान में आवेदन करने के बारे में सोचने लगीं. वे कहती हैं, "इस जगह को लेकर एक रोमांटिसिज्म था. मुझे याद है वह ऐसी जगह लगती थी जहां छात्र वाकई कुछ नया करने की कोशिश कर रहे थे."

सीखने की मुश्किल राह

पहले प्रयास में कपाडिया को 2007 में एडिटिंग के कोर्स में दाखिला नहीं मिल सका. सो उन्होंने सोफिया कॉलेज से मास कम्युनिकेशन की पढ़ाई की और फिल्मकार शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर के साथ जुड़ गईं. बाद में वीडियो कलाकार तेजल शाह के साथ काम किया. उनके बारे में डूंगरपुर कहते हैं, "मुझे याद है वे शिद्दत से काम पूरा करतीं. उनमें कलात्मक झुकाव बहुत था. उनके पास वह था जो दूसरे नहीं सोचते थे, गजब की व्याख्या." चक्र उस वक्त पूरा हुआ जब इस साल मुंबई फिल्म फेस्टिवल के आर्टिस्टिक डायरेक्टर डूंगरपुर ने ऑल वी इमेजिन ऐज लाइट को ओपनिंग फिल्म बनाया.

वे कहते हैं, "मुझे पायल में एक ऐसे सच्चे मौलिक कलाकार का उदय दिखता है जो अपनी भाषा खोजना और अभिव्यक्त करना चाहती है. उनका काम मिनिएचर पेंटिंग आर्टिस्ट जितनी बारीकियों वाला होता है. ऑल वी इमेजिन ऐज लाइट में वे न केवल मुंबई के मानव मन का बल्कि अस्तित्वाद का भी लैंडस्केप उकेरती हैं."

कपाडिया एफटीआईआई को भूलीं नहीं. पांच साल काम करने के बाद उन्हें लगा कि फिल्मकार के तौर पर सफर शुरू करने से पहले उन्हें एक 'स्ट्रक्चर' की जरूरत है. वे कहती हैं, "एक सीमा के बाद मैं जैसे अटक-सी गई थी. मैं इतनी स्वतंत्र नहीं थी कि कह सकूं, मैं यह अपने दम पर कर सकती हूं." उसी वक्त 2012 में डायरेक्शन वाले बैच में उन्हें प्रवेश मिल गया.

कपाडिया ने शॉर्ट फिल्में बनाते हुए और पुर्तगाल के मिगुएल गोम्स और थाइलैंड के अपिचतपोंग वीरसेताकुल सरीखे फिल्मकारों पर प्रोजेक्ट करते हुए संस्थान में पांच साल बिताए. वे गजेंद्र चौहान को एफटीआईआई का चेयरमैन बनाए जाने के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों में भी शरीक हुई थीं. एफटीआईआई कपाडिया और उनसे एक साल सीनियर दास के लिए निर्णायक रहा.

वे कहती हैं, "हर चीज के लिए मुझ पर एफटीआईआई का कर्ज है. यह लोगों से मिलने का बहुत अहम वक्त और जगह थी." दास इतना और जोड़ते हैं, "अपने विचारों और साथ ही अपने सिनेमाई तौर-तरीकों के साथ प्रयोग करने की जो आजादी हमें थी, उसकी बदौलत हम अपने पहले से सोचे-समझे विचारों को लगातार चुनौती दे पाए."

कपाडिया स्वीकारती हैं कि इन दिनों उन्हें लेटरबॉक्स्ड ऐप पर अपनी फिल्म की समीक्षाएं पढ़ने का नशा-सा है. "वे अजीब होती हैं...मैं यह सोचकर भी उदास हो जाती हूं कि वे इसे समझे क्यों नहीं. मैं बस इतना चाहती हूं कि लोग इसे पसंद करें...आप ही यह फिल्म हैं." कपाडिया अब उस काम पर लौटने को उत्सुक हैं जिसे रोज करके उन्हें सुख मिलता है—लेखन. मुंबई में एक और फिल्म सेट का विचार उनके मन में पक रहा है, हालांकि यह अभी 'धुंधला-सा' है. इतना तय है कि कपाडिया की नजर ऐसे अफसानों तक पहुंचेगी, उन्हें देखेगी और विचार करेगी जो यथास्थिति को चुनौती भले न देते हों पर परेशान जरूर करते हों.

ऐसा करते हुए वे गहन और सुंदर होंगे. वे कहती हैं, "किसी भी शख्स के लिए, जो उस दुनिया के बारे में सोचता है जिसमें वह रह रहा है, उस पर प्रतिक्रिया न कर पाना मुश्किल है. मैं देश की दशा-दिशा के बारे में प्रतिक्रिया व्यक्त किए बिना रह ही नहीं सकती. अगर हम प्रतिक्रिया नहीं करते तो हम सब घोर नावाकिफ और अज्ञानी होंगे." कपाडिया ऐसा होने से इनकार करती हैं और भारतीय सिनेमा इससे बेहतर होता है.

एक फिल्मकार के कुछ ताने-बाने

सिनेमा की अपनी प्रक्रिया पर
मुझे लगता है मेरी कल्पनाशक्ति सीमित है. मैं लोगों से बतिया कर डीटेल्स जुटाती हूं, उनका मैनरिज्म, उनके हावभाव, वे अपनी निजी जिंदगी में कैसे होंगे...इसी तरह से लोगों की अपनी जिंदगी से चीजें जुटाती हूं

अपनी फिल्म के बारे में
हमने ऑल वी इमेजिन ऐज़ लाइट के लिए दो साल तक 200 लोगों से बातचीत में पूछा कि मुंबई में प्रवासी के तौर पर उनका अनुभव कैसा रहा

मुंबई में प्रवासी के तौर पर उनका अनुभव कैसा रहा

मां नलिनी मलानी के बारे में
मैं जिस चीज की ताक में रहती थी, वे वही चीजें करीने से पेश कर देती थीं. एकदम छुटपन से ही वे मेरे भीतर स्वतंत्र सोच के लिए बढ़ावा देती आईं

मुंबई के बारे में पिता की समझ पर
यहां के गली-कूचे वे अच्छे-से जानते थे. उनके साथ घूमना हर बार रोमांच होता. इतवार को हम भूलेश्वर जाते और वहां ढोकला-जलेबी खाते. वे बहुत अच्छे किस्सागो भी थे

एफटीआईआई के बारे में
मेरा हर हासिल एफटीआईआई का है. इस जगह का अपना रोमांटिसिज्म था. मैं इसे ऐसी जगह के रूप में याद करती हूं जहां छात्र हर वक्त कुछ करने की कोशिश में लगे रहते थे

उनका काम

ऑल वी इमेजिन...में कनी कुसरुति

वाटरमेलन, फिश ऐंड हाफ घोस्ट  (2014)
"वे जिंदा हैं, यह याद रखने को वे एक रूटीन का पालन किया करते थे." अपनी पहली ही शॉर्ट फिल्म में कपाडिया ने कविता, फुसफुसाहटों और निराश-उदास प्रेमियों के प्रति अपने लगाव को जाहिर कर दिया था. यह सब उनके बाद के कामों में भी कायम रहा.

ऐंड ह्वाट इज द समर सेइंग  (2015)
कपाडिया एक शहर निकालने वाले का पीछा करते हुए उस पर एक शॉर्ट डॉक्युमेंट्री बनाने के इरादे से निकली थीं. पर इस प्रक्रिया में महाराष्ट्र के कोंडवाल गांव के लोगों के किस्से-कहानियों और उनकी आवाजों का इस्तेमाल करते हुए ग्रामीण जिंदगी का एक सपने-सा लैंडस्केप रच डाला.

द लास्ट मैंगो बिफोर द मॉनसून  (2017)
शॉर्ट फिल्मों का मक्का माने जाने वाले आयोजनों में से एक माने जाने वाले 61वें इंटरनेशनल शॉर्ट फिल्म फेस्टिवल ओबरह्यूसेन में इसने इंटरनेशनल क्रिटिक्स प्राइज जीता.

आफ्टरनून क्लाउड्स (2018)

आफ्टरनून क्लाउड्स त्रिमला अधिकारी


"अपने सपने में मैंने बादलों के पूरे एक सिलसिले को मेरे घर में घुसते हुए देखा..." एक आह के साथ अपने दिवंगत पति को याद करते हुए एक विधवा कुछ इस तरह से कहती है. उसकी केयरटेकर भी वैसी ही उदासी भरे लहजे में समंदर किनारे अपने प्रेमी को याद करती है. एफटीआईआई में कपाडिया की यह आखिरी शॉर्ट फिल्म थी. कान फिल्म फेस्टिवल की सिनेफाउंडेशन कैटेगरी के लिए चुनी जाने वाली यह 12 ऐसी फिल्मों में से—भारत से अकेली—थी.

अ नाइट ऑफ नोइंग नथिंग  (2021)
यह अपने फिल्म स्कूल पर कपाडिया की एक "कलात्मक डॉक्युफिक्शन" थी. इसमें उन्होंने अपने बिछड़े प्रेमी के लिए लिखी चिट्ठियां पढ़ती एक स्त्री की पृष्ठभूमि में एफटीआईआई के 2015 से 2019 के बीच चले छात्रों के विरोध प्रदर्शनों की फुटेज का इस्तेमाल किया. पायल के करिअर की यह निर्णायक फिल्म बनी. इसके कान फेस्टिवल में ला'एल डियोर (द गोल्डेन आइ) द बेस्ट डॉक्युमेंट्री अवार्ड जीता.

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