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बाजार में देसी खिलौनों का जलवा, लेकिन भारत चूक कहां रहा है?

नीतिगत प्रोत्साहन से भारत के खिलौना उद्योग ने रफ्तार तो पकड़ ली पर उन्नत इंजीनियरिंग और बड़े पूंजी निवेश के अभाव में इसकी पूरी क्षमता का इस्तेमाल नहीं कर पा रहा है

हरियाणा के मानेसर में स्मार्टिविटी टॉय की एक फैक्ट्री
हरियाणा के मानेसर में स्मार्टिविटी टॉय की एक फैक्ट्री
अपडेटेड 20 सितंबर , 2024

खिलौनों के आनंद के बिना बचपन की कल्पना कर पाना मुश्किल है. हरेक खिलौना हर उस बच्चे के विकास की कहानी को पिरोने वाला अनिवार्य धागा है जिसने कभी किसी प्यारे-से टेडी बीयर को गले लगाया है, ब्लॉक से चित्र-विचित्र दुनिया बनाई, या पिक्चरबुक के पन्ने में खो गया है. यह बात उनके माता-पिता से बेहतर कौन जानता है?

दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में असिस्टेंट प्रोफेसर 38 वर्षीया किरण बाला को लीजिए. तीन बच्चों—आठ बरस की एक बेटी और 18 महीने के जुड़वां बच्चों—की मां किरण अपने छोटे-छोटे बच्चों को व्यस्त रखने और उनका स्क्रीन टाइम कम से कम करने के लिए खिलौनों का बहुत ज्यादा सहारा लेती हैं.

वे कहती हैं, ''शिक्षक होने के नाते, जिसे पढ़ाने और खुद पढ़ने में तालमेल बिठाना पड़ता है, मेरे बच्चों को लंबे वक्त तक व्यस्त रखने के लिए खिलौने बहुत जरूरी हैं.'' दूसरे माता-पिता की तरह किरण जानती हैं कि खासकर छह महीने से पांच साल के बीच की उम्र के बच्चों में बुनियादी हुनर विकसित करने में मदद के लिए खिलौने बहुत अहम हैं. 

भारत में खिलौना बाजार तेजी से बढ़ रहा है. इसकी वजह है बच्चों की बढ़ती संख्या और खर्च योग्य आमदनी, बढ़ता मध्य वर्ग, और बच्चे के विकास में खेल की अहमियत को लेकर जागरूकता. 2022 में इस क्षेत्र के 1.5 अरब डॉलर (12,300 करोड़ रु.) के होने का अनुमान था. यह 12 फीसद से ज्यादा की सीएजीआर से बढ़ रहा है और 2028 में इसके 3 अरब डॉलर (24,600 करोड़ रु.) पर पहुंच जाने का अनुमान है. मगर विशेषज्ञों का कहना है कि इसका संगठित बाजार महज 10 फीसद है, खासकर यह देखते हुए कि इस पर असंगठित छोटे कारोबारियों का दबदबा है, और अवसर कहीं ज्यादा बड़ा है.

नीतियों के जरिए बढ़ावा

खिलौना क्षेत्र पर सरकार का ध्यान प्रमुखता से है. उसका लक्ष्य भारत को खिलौनों के निर्माण और स्रोत का वैश्विक केंद्र बनाना है. आर्थिक थिंक टैंक ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव (जीटीआरआई) ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि मजबूत नीतिगत प्रोत्साहन की बदौलत वित्त वर्ष 2019 से वित्त वर्ष 2024 के बीच खिलौनों का निर्यात 10.9 करोड़ डॉलर (896 करोड़ रुपए) से 40 फीसद बढ़कर 15.1 करोड़ डॉलर (1,250 करोड़ रुपए) पर पहुंच गया, जबकि आयात 30.4 करोड़ डॉलर (2,500 करोड़ रुपए) से 79 फीसद घटकर 6.5 करोड़ डॉलर (535 करोड़ रुपए) पर आ गया.

इसकी वजहें बहुतेरी हैं. 2019 तक भारत के खिलौनों के बाजार पर चीन के सस्ते खिलौनों का दबदबा था. इस मसले से निबटने के लिए सरकार ने फरवरी 2020 में आयात शुल्क 20 फीसद से बढ़ाकर 60 फीसद और फिर मार्च 2023 में 70 फीसद करके आयात को महंगा बना दिया. नतीजा यह हुआ कि जीटीआरआई के आंकड़ों के मुताबिक, भारत के खिलौना बाजार में चीन की हिस्सेदारी वित्त वर्ष 2019 में 87 फीसद से घटकर वित्त वर्ष 2024 में 64 फीसद पर आ गई.

यही नहीं, जनवरी 2021 में सरकार खिलौनों को गुणवत्ता नियंत्रण ऑर्डर (क्यूसीओ) के तहत ले आई. इससे सभी खिलौनों के लिए, चाहे वे देश में बने हों या आयातित, भारतीय मानकों पर खरा उतरना जरूरी हो गया. इसका अनिवार्य मतलब यह था कि कोई भी कंपनी भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) के लाइसेंस के बिना भारत में खिलौने नहीं बेच सकती. इसका मकसद यह पक्का करना था कि बच्चे घटिया या जहरीली सामग्री के संपर्क में न आएं.

केपीएमजी इंडिया में इकोनॉमिक ग्रोथ, गवर्नमेंट और पब्लिक सर्विसेज के को-लीड और नेशनल लीड मोहित भसीन कहते हैं, ''इन दोनों पहलकदमियों ने खिलौनों के भारतीय मैन्युफैक्चरर के लिए खेल के मैदान को बराबरी का बनाने में मदद की. बीआइएस ने जनवरी 2024 तक 1,454 घरेलू और 36 विदेशी खिलौना निर्माताओं को भारत में बेचने के लाइसेंस दिए.''

उद्योग और आंतरिक व्यापार संवर्धन विभाग के संयुक्त सचिव संजीव कहते हैं, ''कुछ साल पहले तक खिलौनों का खालिस आयातक होने से हटकर भारत अब न केवल खिलौनों का निर्यात करता है, बल्कि उन्हें चीन को भी निर्यात करता है.''

बढ़ती मांग

उपभोक्ताओं की तरफ से भी बढ़ावा मिला. आकांक्षाओं से बलबलाते मध्यम वर्ग के माता-पिता आज अपने बच्चों के लिए प्रीमियम और अच्छी गुणवत्ता के खिलौनों पर खर्च करना चाहते हैं. भारत में टॉय रिटेलर टॉयज 'आर' अस और बेबीज 'आर' अस लॉन्च करने वाले एस टर्टल के सह-संस्थापक और सीईओ नितिन छाबड़ा कहते हैं, ''आज महंगे खिलौनों की बिक्री सस्ते खिलौनों की बिक्री से बेहतर है.''

मसलन, बेंटले मोटर्स की बेंटले ट्राइसाइकिल जिसकी कीमत 40,000 रुपए है, उनके सबसे ज्यादा बिकने वाले उत्पादों में से एक है. उनके स्टोर में औसत खरीदारी मूल्य 2,000 रुपए है. मेकाशी टॉयज के मालिक कार्तिक जैन का कहना है कि उनकी कंपनी गुड़िया और बोर्ड गेम सहित आम खिलौने बनाने से हटकर पूरी तरह 10,000 रुपए से 20,000 रुपए के बीच कीमत की बच्चों की इलेक्ट्रिक कारें बनाने पर ध्यान देने लगी.

भारत की खिलौनों की कहानी पर वैश्विक रिटेलर का ध्यान भी गया है—आइकिया और वॉलमार्ट भारत से खिलौने लेने लगी हैं. नतीजा यह हुआ कि देश के सबसे बड़े टॉयमेकर फन्सकूल इंडिया ने अपनी निर्माण क्षमता दोगुनी कर दी. शैक्षिक और लर्निंग टॉय ब्रांड स्मार्टिविटी भी मौजूदा वित्तीय साल में अपनी क्षमता में 70 फीसद की जबरदस्त बढ़ोतरी कर रहा है.

अंतरराष्ट्रीय ब्रांड भी चाइना प्लस वन स्ट्रेटजी के तहत भारत को खिलौनों के निर्माण केंद्र के रूप में देख रहे हैं. भसीन कहते हैं, ''हैस्ब्रो, फेरेरो, स्पिन मास्टर, हॉर्नबी हॉबीज, आइएमसी टॉयज वगैरह अपने भारतीय कॉन्ट्रैक्ट मैन्युफैक्चरर के जरिए खिलौने मंगवाने की ज्यादा से ज्यादा कोशिश कर रहे हैं.''

अग्रणी ग्लोबल ब्रांड असमोडी ने जून 2022 में अपने लोकप्रिय बोर्ड गेम अबालोन के निर्माण और वितरण के अधिकार फन्सकूल इंडिया को दे दिए. भारत के सबसे बड़े कॉन्ट्रैक्ट मैन्युफैक्चरर में से एक एकस ने दिसंबर 2023 में कर्नाटक के अपने कारखानों में डिज्नी के लाइसेंस के तहत पुलबैक कारें बनाने के लिए स्टोन सफायर के साथ समझौते पर दस्तखत किए. यह फर्म कर्नाटक में भारत का पहला टॉय मैन्युफैक्चरिंग क्लस्टर, कोप्पल टॉय क्लस्टर, भी विकसित कर रही है, जो जुलाई 2023 में चालू हो गया.

बाधाएं

चीन ने मैन्युफैक्चरिंग 1980 के दशक में शुरू किया था जबकि भारत में यह क्षेत्र अभी उभर ही रहा है और इलेक्ट्रॉनिक और रिमोट वाले खिलौनों और वीडियो गेम जैसे महंगे खिलौनों की श्रेणियों में क्षमताओं का अभाव है. टॉय एसोसिएशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष अजय अग्रवाल कहते हैं, ''भारत में सॉफ्ट टॉय, बोर्ड गेम, लकड़ी के खिलौने, पजल आदि बनाने की पर्याप्त क्षमता है लेकिन स्थानीय स्तर पर इलेक्ट्रॉनिक खिलौनों का निर्माण अभी शुरू हुआ ही है और इस दिशा में नतीजा मिलने में अभी एक-दो साल लगेंगे.''

वैसे भी, खिलौने बनाना बहुत जटिल काम है, जिसके लिए सबसे पहले तो टूलिंग में अच्छा-खासा निवेश करने की जरूरत पड़ती है. ज्यादातर खिलौने प्लास्टिक और इंजेक्शन मोल्डिंग तकनीक का उपयोग करके बनाए जाते हैं, जो काफी महंगी है. एकस के चेयरमैन और सीईओ अरविंद मेलिगेरी कहते हैं, ''डॉलहाउस जैसे किसी एक उत्पाद, जिसमें 50 के करीब छोटे-मोटे हिस्से शामिल होते हैं, को तैयार करने के लिए 1,00,000 डॉलर (करीब 82 लाख रुपए) से 2,50,000 डॉलर (2 करोड़ रुपए) के बीच पूंजी निवेश की जरूरत पड़ सकती है.

अगर कोई ब्रांड 50-60 उत्पाद बना रहा है तो इस उम्मीद के साथ उसे हर उत्पाद के लिए ऐसी भारी-भरकम राशि का निवेश करना होगा कि वे तैयार होते ही बिक जाएंगे.'' इसके अलावा, खिलौने का हर हिस्सा सुरक्षा मापदंडों पर खरा उतरे, इसके अनुपालन में भी खासी लागत आती है.

भारत का खिलौना बाजार बढ़ रहा है, पर उतनी बड़ी मात्रा की पेशकश नहीं कर रहा है जितने बड़े पैमाने पर मैन्युफैक्चरर के लिए जरूरत है. एस टर्टल के छाबड़ा कहते हैं, ''हमने भारत में अभी तक अपना प्राइवेट लेबल बनाना शुरू नहीं किया है.'' वे यह भी कहते हैं कि स्केल और 'ऑर्डर की न्यूनतम मात्रा' हासिल करने की जरूरत पूरी होने में अभी साल-दो साल लगेंगे. वे यह भी बताते हैं, ''यह चूजे और अंडे वाली स्थिति है.''

मूल योजना कुछेक छोटे सैटेलाइट स्टोर के साथ कुछेक बड़े फॉर्मेट (25,000 वर्ग फुट) वाले स्टोर खोलने की थी. वे कहते हैं, ''आज हमारा 13,000 वर्ग फुट का सबसे बड़ा स्टोर मुंबई में है. वजह यह है कि स्टोर को भरने के लिए हमारे पास काफी वैरायटी नहीं है.'' एस टर्टल धीरे-धीरे स्थानीय स्रोतों से खिलौने मंगवाना बढ़ा रहा है, योजना मौजूदा चार स्टोरों से तीन साल के अंत तक टॉयज 'आर' एस के 50 स्टोर खोलने की है.

भारत का संगठित खिलौना बाजार बहुत छोटा है, इसलिए निर्माता वैश्विक बाजारों पर ध्यान दे रहे हैं. गिगल्स, फन डफ, हैंडीक्राफ्ट्स और प्ले ऐंड लर्न जैसे ब्रांड्स 32 देशों में निर्यात करने वाले फन्सकूल इंडिया ने इस वित्त वर्ष में 40 देशों तक विस्तार की योजना बनाई है. एमआरएफ समूह की कंपनी फन्सकूल इंडिया के सीईओ आर. जसवंत कहते हैं, ''बिक्री का करीब 60 फीसद हिस्सा निर्यात से आता है—इसमें हमारे ब्रांड्स का निर्यात और अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के लिए मैन्युफैक्चरिंग शामिल है.''

स्मार्टिविटी जैसे ब्रांड दुनियाभर में बिक्री के लिए अमेजन के ग्लोबल सेलिंग प्रोग्राम का फायदा उठा रहे हैं. स्मार्टिविटी के सह-संस्थापक अश्विनी कुमार कहते हैं, ''अमेरिकी खिलौना बाजार भारत से 20 गुना बड़ा है और निर्यात से हमारी कमाई तेजी से बढ़ रही है. वित्त वर्ष 2023 में 15 फीसद की तुलना में हमें चालू वित्त वर्ष में निर्यात से 50 फीसद राजस्व हासिल होने की उम्मीद है.''

हालांकि, भारत को सस्ते श्रम का फायदा मिलता है. मेलिगेरी के मुताबिक, ''खिलौना एक श्रम-प्रधान उद्योग है और भारत में मजदूरी चीन की तुलना में एक-तिहाई और वियतनाम की तुलना में करीब आधी है. इसलिए हमें इस मोर्चे पर 5-10 फीसद की बचत होती है.'' साथ ही जोड़ा कि मैन्युफैक्चरिंग में कुल मिलाकर जिस तरह की प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है, वह जरूर चिंता का विषय है. ऐसा इसलिए है क्योंकि भारत में कच्चे माल की कीमतें चीन की तुलना में अधिक हैं, जो उत्पाद लागत की 50-60 फीसद हैं. इसके अलावा, लॉजिस्टिक्स लागत में अतिरिक्त 3 फीसद खर्च आता है.

खिलौना बनाने में काम आने वाली कई प्रमुख चीजें जैसे गुड़िया के लिए कांच की आंखें, मोती, नकली पत्थर, विभिन्न प्रकार के प्लास्टिक, इलेक्ट्रिक मोटर और रिमोट-कंट्रोल उपकरण आदि अब भी आयात किए जाते हैं. जीटीआरआई रिपोर्ट के मुताबिक, खिलौने बनाने में इस्तेमाल होने वाली सामग्री का आयात तैयार खिलौनों के आयात की तुलना में बहुत अधिक है. भारत ने वित्त वर्ष 24 में गुड़िया की कांच की आंखें, मोतियों और नकली पत्थरों के लिए 13.72 करोड़ डॉलर (1,130 करोड़ रुपए) का आयात किया, जबकि खिलौनों का कुल आयात 65 लाख डॉलर (535 करोड़ रुपए) था.

स्मार्टिविटी के कुमार कहते हैं, ''कुल मिलाकर, चीन और भारत में निर्मित खिलौनों के बीच लागत अंतर 40 फीसद था, लेकिन समय के साथ यह घटकर 20 फीसद रह गया है. इसकी प्रमुख वजह यह है कि चीन में सरकार मैन्युफैक्चरिंग पर सब्सिडी देती है.''

इसके अलावा, प्रोडक्ट डेवलपमेंट में विशेषज्ञता का अभाव भी है. फन्सकूल के जसवंत कहते हैं, ''किसी खिलौना ब्रांड को निरंतर सफलता तभी मिल सकती है, जब वह फटाफट नए खिलौने बाजार में उतारे. लेकिन हमारे पास अभी देश में नवाचार के लिए उस तरह की प्रतिभा नहीं है.'' उद्योग विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि अनधिकृत तरीके से ही सही लेकिन चीन से उत्पादों का आयात अभी भी जारी है. हालांकि, यह पहले की तरह बड़ी मात्रा में नहीं हो रहा. इन्हें वियतनाम और कंबोडिया के रास्ते यहां लाया जा रहा है.

आयातक नियमों में अस्पष्टता का फायदा उठाते हैं और बिना ब्रांड वाले खिलौने लाते हैं, जिसमें 20 फीसद आयात शुल्क लगता है, और वे बिना जुड़े खिलौने आयात करते हैं. इस संदर्भ में लकड़ी के खिलौने और मॉन्टेसरी गतिविधियों में काम आने वाली सामग्री बनाने वाली कंपनी अरिरो के कार्यकारी निदेशक वसंत तमिलसेल्वन कहते हैं, ''इसीलिए, वे वितरकों को 55-60 फीसद तक बेहतर मार्जिन दे पाते हैं, जो भारतीय ब्रांडों के लिए संभव नहीं है.'' यह उद्योग फरवरी के अंतरिम बजट में घोषित प्रोडक्शन लिंक्ड इनसेंटिव योजना का भी इंतजार कर रहा है, जिससे इस क्षेत्र को बढ़ावा मिलने की संभावना है.

कुल मिलाकर, खिलौना उद्योग एक महत्वपूर्ण पड़ाव पर पहुंच चुका है और अगले एक-दो साल दीर्घकालिक समस्याएं सुलझाने और भारत की पूरी क्षमता को उपयोग में लाने के लिहाज से महत्वपूर्ण साबित होंगे. हालांकि, यह कोई बच्चों का खेल नहीं है.

सबकी दिलचस्पी का मामला

निर्यात बढ़ने और आयात घटने से भारत की बढ़ती निर्माण क्षमता जगजाहिर होती है.

मौज की टोकरी

इलेक्ट्रॉनिक्स इनसे आवाजें निकलती हैं, चलते-फिरते हैं और लाइट जलती हैं.

स्पोर्ट्स स्केट बोर्ड और साइकिल जैसी चीजें जिनसे बच्चे बाहर खेल सकते हैं.

बोर्ड गेम और पजल्स चेस, लूडो, कैरम बोर्ड जैसे टेबल पर रखकर खेलने वाली चीजें.

ऐक्शन हीरो और डॉल छोटी आकृतियां जो खिलौना बन गई हैं.

कंस्ट्रक्शन टुकड़ों से एसेंबल करना या बनाना.

एजुकेशनल बच्चों को रंगों और अक्षरों का बोध कराने के साथ अन्य चीजें भी सिखाते हैं.

प्लश या नर्म खिलौने नकली फर वाले, सॉफ्ट मटीरियल से भरे कपड़े के खिलौने.

फलने-फूलने की वजहें

स्थानीय मैन्युफैक्चरिंग बढ़ाने के लिए सरकार के प्रमुख कदम

> चीनी आयात को हतोत्साहित करने के लिए इंपोर्ट ड्यूटी फरवरी 2020 के 20% के मुकाबले मार्च 2023 में 70% की गई.

> सभी खिलौनों के लिए, चाहे वे देश में बने हों या आयातित हों, भारतीय सुरक्षा मानक अपनाना अनिवार्य है.

> भारत ने दो मुक्त व्यापार समझौतों पर दस्तखत किए हैं—यूएई के साथ सीईपीए और ऑस्ट्रेलिया के साथ ईसीटीए ताकि भारतीय खिलौना निर्यातकों को जीरो ड्यूटी मार्केट पहुंच उपलब्ध कराई जा सके.

राह के रोड़े

मैन्युफैक्चरर्स के सामने पेश मुश्किलें

> भारतीय बाजार की जरूरतें उस मात्रा में नहीं हैं जो मैन्युफैक्चररर्स के लिए मुनाफे का सौदा बन सकें.

> महंगी श्रेणी के खिलौनों जैसे इलेक्ट्रॉनिक टॉय का ईकोसिस्टम बनने में अभी समय लगेगा.

> कच्चे माल की कीमतें जो कि उत्पाद की कीमत का 50-60 फीसद हैं, अभी भी भारत में चीन के मुकाबले अधिक हैं.

> खिलौना निर्माण में लगने वाली कुछ खास चीजें जैसे गुड़िया या डॉल के लिए कांच की आंखें, बीड्स, नकली पत्थर, कई तरह के प्लास्टिक, मोटर्स और रिमोट कंट्रोल आदि को आयात करना पड़ता है.

> प्रोडक्ट के विकास के लायक प्रतिभाशाली लोगों की कमी.

> चीन से अनधिकृत तौर पर आयात निरंतर जारी है जो कि थोड़ी मात्रा में है.

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