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साहिर की रूह को दुबारा जिंदा करता नाटक 'मैं पल दो पल का शायर हूं'

यह नाटक साहिर के सदाबहार नगमों में गुंथी एक शायराना जिंदगी का दो घंटे का थिएट्रिकल किस्सा है. इसका गवाह बनते हुए कई बार आप भूल जाते हैं कि दरअसल आप एक नाटक देख रहे हैं

साहिर लुधियानवी के रूप में अभिनेता दानिश हुसैन
साहिर लुधियानवी के रूप में अभिनेता दानिश हुसैन
अपडेटेड 27 फ़रवरी , 2024

साहिर ने ही कहा था: फन जो नादार तक नहीं पहुंचा, अभी मयार तक नहीं पहुंचा. अल्फाज के मानी जब तक कतार में सबसे पीछे खड़े आदमी के सामने भी न खुल जाएं, कामयाब नहीं माने जा सकते. उन्हीं साहिर की फानी जिंदगी के इस इटर्नल किस्से में वे खुलते भी हैं और खिलते भी. बेरहम बाप और खुद्दार मां के दरमियान होकर गुरबत से क्रिएटिव शोहरत तक.

उनके पहले ही कलेक्शन तल्खियां के छा जाने के बाद वे एक फिल्म प्रोड्यूसर से मिलने पहुंचते हैं. वह दराज से कलेक्शन निकालकर देखता है, सामने बैठे 24 साल के दुबले-से नौजवान की ओर बेयकीनी से घूरता है फिर चिल्ला पड़ता है: 'भाग यहां से, बहरूपिया कहीं का.' एक बार के बाद जीवन में दोबारा हवाई सफर न करना, लता मंगेशकर के सामने उनके नगमों को नीचा दिखाए जाने पर अपने गाने उनसे फिर कभी न गवाना, संगीतकारों से एक रुपया ज्यादा फीस लेना और उनके ऐंठने पर उनके असिस्टेंट्स को ही बतौर संगीतकार खड़ा कर देना...

नाटक 'मैं पल दो पल का शायर हूं' ऐसी कितनी ही शर्तों के सिट्टे में बिंधी और उनके सदाबहार नगमों में गुंथी एक शायराना जिंदगी का दो घंटे का थिएट्रिकल किस्सा है. इसका गवाह बनते हुए कई बार आप भूल जाते हैं कि दरअसल आप एक नाटक देख रहे हैं. स्टेज के दाईं ओर साहिर के नग्मे गाते और स्टोरी नैरेट करते 5-6 कलाकार; बाईं ओर टेबल, लैंप आदि के बीच आराम कुर्सी पर, साहिर बने 52 वर्षीय दानिश हुसैन. गतियां ठहरी-सी. पर वाचिक और गायन इतना प्रगाढ़ कि पलक झपकना भी जैसे खटके.

साहिर लुधियानवी बतौर शायर और फिल्मी नग्मानिगार हिंदुस्तान की हवाओं में पैबस्त हैं. एक रेफरेंस पॉइंट, एक मुहावरा हैं: कोई साहिर-सा. उनका किस्सा कहने के और भी प्रयोग हुए हैं पर यह अलहदा और हटकर है.

मीर हुसैन अली और हिमांशु बाजपेयी की दो अलग-अलग ट्रैक वाली स्क्रिप्ट को एक में पिरोकर यह प्ले एक ओर साहिर की जबान में खुलता है और साथ-साथ उनके कंटेंपररीज़ के हवाले से. न अभिनय में किसी शैली का साज-सिंगार न स्टेज का प्रपंच. सारा फोकस किस्से पर, आइबॉल टु आइबॉल.

दानिश, जो नाटक के निर्देशक भी हैं, साफ करते हैं: "साहिर जो कह रहे हैं, उसमें खुद इतनी गहराई है कि कुछ और नाच-कूद करने की जरूरत ही नहीं. इकबाल का वह शेर है ना कि दिल से जो बात निकलती है असर रखती है, पर नहीं ताक़त-ए-परवाज मगर रखती है.

पर हां, बतौर ऐक्टर आप उन अल्फाज को अपना तभी बना सकते हैं जब उनकी गहराई में डूबें. शांतनु हार्लेकर और सृजनी भट्टाचार्य की गायिकी गानों को ढंग से संभालती है. कद्दावर अभिनेता, गायक और लाइव म्यूजिक की वजह से यह महंगा प्रोडक्शन है. इसीलिए छह महीने पहले मुंबई के पृथ्वी थिएटर में प्रीमियर के बाद इस हफ्ते दिल्ली में भारत रंग महोत्सव के तहत इसका चौथा शो था. अगला शो 24 फरवरी को हैदराबाद के शिल्पकला वेदिका में है.

दिल्ली में महमूद फारूकी के साथ दास्तानगोई का हिस्सा रहे दानिश बाद में अभिनय पर फोकस करने मुंबई कूच कर गए. फिल्में तो कर ही रहे हैं पर वे कहते हैं, "ऑडियंस की आंखों में देखते हुए अभिनय का जो सुख है उसका कोई मोल नहीं."

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