scorecardresearch

यादें : अपनी ही शर्तों पर जीने वालीं कोसी की उषा

उनकी प्रामाणिक लेखनी को देखकर ही हंस के संपादक राजेंद्र यादव ने कहा था, "फणीश्वरनाथ रेणु के बाद उषाकिरण खान की रचनाओं में ही गांव के मिट्टी की खुशबू मिलती है"

मशहूर साहित्यकार उषाकिरण खान (1945-2024)
मशहूर साहित्यकार उषाकिरण खान (1945-2024)
अपडेटेड 27 फ़रवरी , 2024

उषाजी नहीं रहीं. भले ही वे 78 साल की हो गई थीं, कई दफा सार्वजनिक आयोजनों में व्हीलचेयर पर नजर आती थीं, कभी-कभी बीमार होने के चलते किसी जलसे में नहीं भी पहुंच पातीं. फिर भी बिहार, खासकर पटना के साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक हलकों में उनकी लगभग सतत् मौजूदगी रहती.

तभी तो इतवार 11 फरवरी की दोपहर उनके निधन की खबर पर उन्हें जानने-चाहने वालों की स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी: अरे! हम जैसे पत्रकारों को लगता था कि मिथिला, बिहार, साहित्य, स्त्री, इतिहास, संस्कृति किसी भी मसले पर उनसे कभी भी कुछ भी पूछा जा सकता है.

सात साल पहले दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में उन्होंने मेरी पहली किताब रेडियो कोसी का विमोचन किया था. कुछ दिनों बाद उन्होंने फोन करके बताया कि किताब उन्होंने पूरी पढ़ ली है और इसमें एक-एक अक्षर सही लिखा है. वे कोसी के इलाके की थीं. उनकी कहानियों में कोसी के पेट में उगने वाले पटेर के रंग हैं, वहां के जीवन का संघर्ष और वहां की औरतों की कहानियां हैं.

उसके बाद मेरा उनसे सहज रिश्ता बनता चला गया. पर उनके जाने के बाद सोशल मीडिया पर सैकड़ों लोगों के संस्मरणों से पता चला कि हर पीढ़ी के अनुभवी और नए लेखकों के साथ उनके रिश्ते थे. हिंदी में भी और मैथिली में भी. कोई उन्हें अम्मा बुला रहा था, कोई दीदी, कोई मां. सबके लिए वे उतनी ही सहजता से उपलब्ध रहतीं. वह लेखक हो, पत्रकार, आयोजक या पाठक.

दरभंगा में एक सामाजिक अभियानी जगदीश चौधरी के घर जन्मी उषाकिरण खान को बचपन से कोसी के पेट पकड़िया गांव में उस समाज के बीच रहने का मौका मिला जो सबसे अधिक वंचित था. पिता वहां लोगों की मदद करने गए थे और आश्रम भी खोला था. उनके जीवन में भीषण पढ़ाकू रामचंद्र खान जैसे पति का लंबा साथ रहा. हाल के वर्षों में ही उन्होंने विवाह की पचासवीं वर्षगांठ का आयोजन किया था, जो एक साहित्यिक आयोजन सरीखा ही हो गया था.

रामचंद्र खान की चर्चा एक सख्त पुलिस अधिकारी के तौर पर भी रहती थी. इलाके के अपराधी उनके नाम से कांपते, ऐसी कथाएं हमने सुनीं. हिंदी के जन कवि बाबा नागार्जुन जो मैथिली में वैद्यनाथ मिश्र यात्री के नाम से जाने जाते थे, उनके लिए पिता तुल्य थे. वे उनकी कहानियां अक्सर सुनातीं.

नागार्जुन और पति के बीच हुए झगड़े के बारे में भी बतातीं. इस विरासत ने उनके लेखन को अत्यंत समृद्ध किया और वे लगातार कोसी के दर्द और इतिहास के किरदारों की कहानियां हिंदी/मैथिली दोनों में उकेरती रहीं. ग्रामीण जीवन पर उनके प्रामाणिक लेखन को देखकर ही हंस के संपादक राजेंद्र यादव ने कहा था, "फणीश्वरनाथ रेणु के बाद उषाकिरण खान की रचनाओं में ही गांव के मिट्टी की खुशबू मिलती है." 

उन्होंने इतिहास और पुरातत्व की पढ़ाई की और इसी विषय को अरसे तक पढ़ाया भी. उनके कई उपन्यास ऐतिहासिक किरदारों पर केंद्रित हैं. चाहे कवि विद्यापति के जीवन पर आधारित पुस्तक सिरजनहार हो, या शेरशाह सूरी पर लिखी गई किताब अगन हिंडोला या फिर मिथिला के रहने वाले टीकाकार वाचस्पति मिश्र की पत्नी की कहानी पर मैथिली उपन्यास भामती.

उनके जीवन और लेखन पर पुस्तक लिखने वाले वरुण कहते हैं, "उन्होंने इतिहास की किताबें तो लिखीं पर जेपी आंदोलन के बाद के दिनों को लेकर उन्होंने जो कहानियां और उपन्यास लिखे, वे भी किसी इतिहास से कम नहीं." 1977 से शुरू कर उन्होंने 46 किताबें लिखीं. इन दिनों वे बहादुरशाह जफर के पोते गोरगन के जीवन पर उपन्यास लिख रही थीं, जिन्हें आखिरी दिनों में राज दरभंगा ने शरण दी थी और दरभंगा में ही जिनकी कब्र है.

उन्होंने हिंदी और मैथिली की महिलाओं के संगठन बनाए और कई अभियान चलाए. आखिरी दिनों में उन्होंने पटना में आयाम संस्था बनाकर बिहार की स्त्री रचनाकारों को उससे जोड़ा. 2022 में पति रामचंद्र खान गुजर गए तो अगले साल उनकी याद में उन्होंने पटना में बड़ा साहित्यिक उत्सव किया, जो आज भी लोगों के जेहन में है.

वे स्त्री रचनाकारों पर आलोचकों की निगाह न जाने को लेकर दुखी रहती थीं और अक्सर कहतीं कि हमें अपने बीच से समीक्षक तैयार करने होंगे. वे महिलाओं की आजादी की पक्षधर थीं. कुछ साल पहले एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया था कि कई लेखिकाओं की रचनाएं छपने से पहले उनके पति सेंसर करते हैं. यह स्थिति अब बदलनी चाहिए.

पर वे खुद को नारीवादी नहीं कहतीं. न वे वामपंथी थीं, न दक्षिणपंथी. वे बीच में कहीं थीं. वे राजनैतिक मुद्दों पर बहुत टिप्पणियां नहीं करती थीं मगर जो बातें उन्हें गलत लगती, उस पर टिप्पणी करने से खुद को रोकती नहीं, भले उनके रिश्ते खराब हो जाएं.

मैथिली लेखक और रंगकर्मी कुणाल कहते हैं, "कई मामलों में मैं उन्हें अग्रज मानता था क्योंकि उन्होंने उन संस्थाओं के खिलाफ खुला स्टैंड लिया जो धनबल के बूते रचनाकारों को अक्सर लाभ पहुंचातीं. ज्यादातर रचनाकार ऐसी संस्थाओं के मसले पर चुप्पी साध लेते. मगर वे लगातार विरोध करती रहीं."

Advertisement
Advertisement