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उस्ताद राशिद खान: आखिरी आदमी को भी अपना संगीत सुनाने की चाहत रखने वाले कलाकार

दिल से गाने वाले इस संपूर्ण कलाकार के गले में जैसे एक खुदाई कारीगरी थी.

स्मृति: उस्ताद राशिद खान (1968-2023)
स्मृति: उस्ताद राशिद खान (1968-2023)
अपडेटेड 31 जनवरी , 2024

कायनात में तो बेशुमार गायक हैं. पर किसी युग में जन्मजात गायक कम ही होते हैं. गायकी के उस्ताद राशिद खान उन्हीं में थे जो तिहाई या वक्त से पहले 55 की उम्र में प्रस्थान कर गए. रामपुर-सहसवान घराने के वारिस राशिद बचपन से विलक्षण प्रतिभा के धनी थे, जिस पर बस शास्त्रीय संगीत की धुन सवार थी. वे स्कूल जाना नहीं चाहते थे. उन्हें लगता था कि उनकी तलब बस संगीत है.

उत्तर प्रदेश के बदायूं में जन्मे राशिद ने शुरुआत में नाना उस्ताद निसार हुसैन खान और चाचा उस्ताद गुलाम मुस्तफा खान से संगीत सीखा और पहला कंसर्ट 11 बरस की उम्र में 1978 में किया. अप्रैल 1980 में जब निसार हुसैन उनके दादा के साथ कोलकाता जा बसे, तो वे भी 10 की उम्र में कोलकाता आ गए. जल्द ही वे संगीत रिसर्च एकेडमी से भी जुड़ गए थे.

1994 आते-आते वे तमाम कंसर्ट में गा रहे थे और जल्द ही उस्ताद के तौर पर माने जाने लगे. संतूरवादक पंडित सतीश व्यास कहते हैं, "कड़ी मेहनत और रियाज के दम पर वे दूसरों से बहुत पहले शिखर पर पहुंच गए, जबकि दूसरे अभी ऊपर चढ़ने की जद्दोजहद में ही लगे थे." राशिद बहुत कम बोलते थे. पत्रकार के तौर पर इंटरव्यू में उनसे सवालों के जवाब निकलवाने के लिए मुझे खासा जूझना पड़ता था. वे दरअसल अपने बारे में बोलने के बजाय संगीत को बोलने देते थे.

बताते हैं उनके गुरु ने उन्हें सिखाना शुरू करने और रागों के विस्तार में जाने से पहले बरसों उनसे पहला सुर 'सा’ गाने का रियाज करवाया. यही वजह थी कि वे पूरी तरह से तैयार और ऊंचे स्वर से ज्यों ही 'सा’ गाते, उसी पल राग को स्थापित कर देते थे. तमाम सप्तकों—मंद्र, मध्य, तार—पर गायन की उनकी सहजता अद्भुत थी. हारमोनियम वादक विनय मिश्र कहते हैं, "खां साहब की आवाज में खुदाई कारीगरी थी. उनकी सोच और राग को देखने का अंदाज अलग था. वो दिल से गाते थे, दिमाग से नहीं." यही वजह है कि उनके कंसर्ट हाउसफुल होते और सारे टिकट जल्द बिक जाते.

अपने कई संगीत समारोहों में उन्हें बुलाने वाले व्यास कहते हैं, "राशिद शुद्ध गवैए थे. उनके विचार और मन संगीत में डूबे थे. उनके संगीत में राग की प्रामाणिकता अनूठी थी. वे शास्त्रीय संगीत के लिए बने थे." कई लोग उन्हें संपूर्ण कलाकार कहते हैं, जिसने खयाल, ठुमरी, दादरा और यहां तक कि गजलों में भी महारत हासिल की.

तभी तो पंडित भीमसेन जोशी ने युवा राशिद को गाते सुनकर आंसू पोछते हुए कहा, "शास्त्रीय संगीत के भविष्य को लेकर चिंतित था. इस लड़के को सुनने के बाद जी को तसल्ली हो गई." सच, राशिद आगे चलकर ऐसा सितारा बने जो अपनी उम्र और साथी संगीतकारों से बरसों आगे था. सितारवादक शुभेंद्र राव कहते हैं, "उनके गले की जवारी एकदम मुकम्मल थी और वह खालिस रियाज और तालीम से ही हासिल की जा सकती थी."

शास्त्रीय गायन के अलावा राशिद उन लोगों के लिए संगीत का सेतु थे जिन्हें इसकी ज्यादा माहिती नहीं थी. वे क्रॉसओवर संगीतकार थे, जिन्होंने तलत अजीज और हरिहरन सरीखे गजल गायकों और गीतकार अमिता परसुराम वगैरह के साथ काम किया. वे कहते थे, "मैं आखिरी आदमी को भी अपना संगीत सुनाना चाहता हूं." जब वी मेट के अत्यंत लोकप्रिय गाने आओगे जब तुम साजना में अपनी आवाज को उन्होंने अमर बना दिया.

यह अब भी रेडियो स्टेशनों पर खूब बजता है. इस फिल्म के निर्देशक इम्तियाज अली याद करते हैं, "यह गाना उनसे गवाने का आइडिया संगीतकार संदेश शांडिल्य का था. डर था कि वे इनकार कर देंगे. डरते-डरते कोलकाता गया और शागिर्द की तरह उनसे मिला. उन्हें गाना अच्छा लगा. रिकॉर्डिंग बूथ में उन्होंने कहा कि हमें उनसे नए गायक की तरह बर्ताव करना चाहिए क्योंकि वे फिल्मी गानों में नए थे. उन्होंने हमसे कहा कि हम जैसा कहेंगे वे वैसा ही करेंगे. इतने विनम्र!"

उनके कई अनसुने किस्से हैं. कंसर्ट पर यात्रा के दौरान वे ड्राइवरों को जमकर बख्शीश देते. और कोई दुखड़ा सुना देता तो उसका दर्द हल्का करने का हर जतन करते. वे सच्चे दिल वाले थे. उस्ताद अपने नजरिए में परंपरावादी थे फिर भी आधुनिक, साधक, कलाकार और सच्चे मानवतावादी इंसान थे. उधार की जिंदगी में कोई इससे ज्यादा और क्या हो सकता है. राशिद को अपने ठिकाने में दाखिल होते देख सृष्टा गुनगुना रहा होगा: आओगे जब तुम साजना, अंगना फूल खिलेंगे; बरसेगा सावन झूम झूमके, दो दिल ऐसे मिलेंगे. अलविदा उस्ताद.

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