
जापान की राजधानी टोक्यो से तकरीबन 200 किमी दूर तोकामाची सिटी के पहाड़ी इलाके में एक म्यूजियम है. मिथिला म्यूजियम नाम से चल रहे इस संग्रहालय में बिहार की प्रसिद्ध मिथिला पेंटिंग के कई दुर्लभ चित्र प्रदर्शित हैं. हैरत की बात यह है कि मिथिला और बिहार में इस कला पर केंद्रित म्यूजियम या आर्ट गैलरी आज भी नहीं है, मगर जापान के इस दुर्गम इलाके में यह म्यूजियम मिथिला पेंटिंग के कलाकारों और उसे पसंद करने वालों के लिए 1982 से ही चल रहा है.
इसकी शुरुआत करने वाले मिथिला पेंटिंग के शैदाई तोकियो हासेगावा हैं. उनकी पहचान एक चर्चित संगीतकार के तौर पर रही है. मगर वे मिथिला पेंटिंग के संरक्षण और संवर्धन में 40 साल से अधिक समय से जुटे हैं. पिछले दिनों हासेगावा एक कार्यक्रम के सिलसिले में पटना आए थे. यहां के बिहार म्यूजियम में उनके प्रसिद्ध स्टोन म्यूजिक का एक शो था. इस मौके पर इंडिया टुडे ने उनसे उनके जीवन, मिथिला म्यूजियम और मिथिला पेंटिंग के प्रति उनके प्रेम के बारे में बातचीत की.
1948 में जापान के टोक्यो शहर में एक समुराई परिवार में जन्मे हासेगावा ने बताया कि भारत की संस्कृति से उन्हें हमेशा से प्रेम रहा है. इसकी वजह यह भी है कि भारत और जापान की संस्कृति और परंपरा, खास कर मैत्री संस्कृति एक जैसी है. इसके पीछे शायद बुद्ध के उपदेश रहे हों. उन्होंने जब महज 21 की उम्र में पहला म्यूजिक बैंड बनाया तो उसका नाम ताजमहल ट्रैवलर्स रखा.

यह अवान्गार्ड म्यूजिक (लीक से हटकर नए तरकीबों वाला) एक अनूठा म्यूजिक बैंड था, जिसमें सात म्यूजीशियन थे. 1971 में उन्होंने इस बैंड के साथ पूरे यूरोप की सैर की और जगह-जगह शो किए. वे बताते हैं, ''उस दौर में पश्चिमी दुनिया में बहुत अशांति थी.’’ जब वे जापान लौटे तो उनका देश कई तरह की पर्यावरण संबंधी परेशानियों से जूझ रहा था.
उनका शहरों की घनी आबादी और यहां के प्रदूषण और तनाव से मोहभंग होने लगा. वे एक ऐसी जगह तलाशने लगे जो प्रकृति के करीब हो. वे बताते हैं, ''चौबीस साल की उम्र में मुझे एक बार खुदकुशी करने की तीव्र इच्छा हुई. इसकी वजह यह थी कि मैं फेमस हो गया था, मगर फेमस होने से पहले जो लोग मुझे प्रेम करते थे, वे बाद में बेगानों जैसा व्यवहार करने लगे.’’
इसी उथलपुथल के बीच हासेगावा जापान के तोकामाची शहर के पास एक पहाड़ी पर गए, जहां भीषण बर्फबारी होती थी. उन्होंने तय किया कि वे बर्फ के तले दबकर जान दे देंगे. वे पहाड़ी पर लेटे थे, बर्फ उन पर गिर रही थी. वे एकटक चांद को देखे जा रहे थे. उनका इरादा अटल था. इसी दौरान उन्होंने एक खरगोश वहां उछलता-कूदता पाया. उससे उन्हें जीने की प्रेरणा मिली और खुदकुशी का इरादा छोड़ दिया. इस घटना के बाद हासेगावा के जीवन में तीन बड़ी चीजें हुईं:

वे हमेशा के लिए उसी पहाड़ी इलाके में बस गए; खरगोश को उन्होंने गुरु मान लिया और मांसाहार छोड़ दिया; चांद से उन्हें बहुत प्रेम हो गया. इसी दौरान भारत से एक जापानी युवा लौटकर आया और उनसे मिला. उसने उन्हें एक मिथिला पेंटिंग दिखाई, जो कलाकार गंगा देवी की थी. हासेगावा कहते हैं, ''उस पेंटिंग में मुझे अपूर्व शांति और प्रकृति से प्रेम की छवि नजर आई और बहुत सुकून मिला.’’ पेंटिंग में एक बाघ की तसवीर थी जिसके शरीर पर छोटे-छोटे चांद बने थे. हासेगावा को चांद से प्रेम हो ही चुका था. उस पेंटिंग ने उनके मन में मिथिला पेंटिंग के प्रति प्रेम जगा दिया.
वे 1978 में भारत आए. उन्होंने मिथिला चित्रकला को बढ़ावा देने वाली प्रसिद्ध कला संरक्षक पुपुल जयकर से भेंट की और उन्हें यह चित्र दिखाया. तब उन्हें पता चला कि यह चित्रकला बिहार के मिथिला इलाके में बनाई जाती है. उसके बाद हासेगावा के मन में इस चित्रकला के संरक्षण का ख्याल आया.
मिथिला पेंटिंग चर्चित होने लगी और उसे पश्चिमी दुनिया के कला प्रशंसक खरीदकर ले जाने लगे. हासेगावा डर गए कि इस चित्रकला का हाल भी जापान की पारंपरिक चित्रकला उकियो-ई जैसा न हो जाए. उसे भी विदेश में खूब सराहना मिली और आज उसके ज्यादातर प्रमुख चित्र यूरोप और अमेरिकी गैलरी में हैं. वे चाहते थे कि एशिया की यह कला एशिया में ही रहे.
हासेगावा कहते हैं, ''उसके बाद मैं मिथिला पेंटिंग के एक कलाकार से मिला, जो अपने साठ चित्र मुझे किराए पर देने के लिए तैयार था मगर जल्द ही वह फेमस हो गया और उसने मुझे चित्र देने से इनकार कर दिया. 1981 में तभी मैं पहली बार बिहार आया, मधुबनी गया और गंगा देवी से मिला. वे मेरे साथ जापान आ गईं और मैंने उनके चित्रों के साथ मिथिला म्यूजियम की शुरुआत की.’’ हासेगावा हर साल मिथिला पेंटिंग के कुछ कलाकारों को वहां ले जाते और वे वहां रहकर चित्र तैयार करतीं.
गंगा देवी के अलावा, कर्पूरी देवी, महासुंदरी देवी, बौआ देवी और गोदावरी दत्ता जैसी चर्चित मिथिला पेंटिंग की कलाकार वहां कई दफे गईं और लंबे अरसे तक रहीं. इस प्रक्रिया में वहां मिथिला पेंटिंग के कई चर्चित चित्र बने. इनमें गंगा देवी की 'सूर्यमुखी का पेड़’ और गोदावरी दत्ता की 18 फुट ऊंची पेंटिंग 'त्रिशूल’ प्रमुख हैं. आज की तारीख में मिथिला म्यूजियम में तीन हजार से अधिक मिथिला पेंटिंग हैं. हासेगावा गंगा देवी की पेंटिंग के बड़े प्रशंसक हैं और उन्हें एशिया का पिकासो कहते हैं.
मिथिला म्यूजियम के निर्माण से लेकर कलाकारों को वहां ले जाने और रखने तक के अभियान में उन्हें भारत या जापान की सरकार से न के बराबर मदद ली. सारा खर्च दोस्ती और मिथिला पेंटिंग के चाहने वालों की मदद से चलता रहा. 1998 तक वे 160 से अधिक कलाकारों को जापान ले गए. उसके बाद जापान के आर्थिक मंदी का शिकार होने पर अभियान थोड़ा धीमा पड़ने लगा.
नए कलाकारों में किसी को हासेगावा अपने साथ नहीं ले जा पाए हैं. वे मायूसी के साथ कहते हैं, ''नए कलाकार 'खर्चा’ मांगते हैं.’’ और उनके पास अब 'खर्चा’ देने के लिए बहुत पैसे नहीं हैं. इसके बावजूद वे म्यूजियम को संवारने में जुटे हैं. वे कहते हैं, ''मैं इस म्यूजियम को दुनिया के संग्रहालयों का लीडर बनाना चाहता हूं.’’