भारत और पाकिस्तान की सरहदें यूं तो आमतौर पर सियासी घमासान और दूसरे कारणों से हमेशा गर्म रहती आई हैं. सरहदों के बीच से दोनों तरफ के लिए नम हवा का कोई झोंका कभी आता-जाता दिखा तो बेशक कलाकार बिरादरी और उसमें भी शास्त्रीय संगीत के कारण. और जिस कलाकार के नाम पर कड़ुआहट पिघल जाया करती थी—वे थे उस्ताद हुसैन बख्श गुल्लू.
मखमली आवाज के इस गवैये ने 5 दिसंबर, मंगलवार की सुबह 9 बजे प्राण त्याग दिए. लंबी बीमारी ने उन्हें तोड़ दिया था. मोटे तौर पर हुसैन बख्श का जाना कहने को तो एक गवैये का निधन ही कहलाएगा. लेकिन उनके न रहने से पाकिस्तान के सांगीतिक माहौल में जो खालीपन आएगा, उसकी भरपाई वर्तमान पाकिस्तान में तो लगभग असंभव है. गवैयों के गवैये थे वे. यानी उन्हें पसंद करने वालों की फेहरिस्त में ऐसे नाम अधिक थे जो स्वयं बड़े गवैये हुए.
उधर की एक और बड़ी शख्सियत मेहदी हसन ने खुद कुबूला था कि फुर्सत में वे हुसैन बख्श को सुना करते हैं. और इधर, लता मंगेशकर भी उनकी बेहद दीवानी थीं. हुसैन बख्श जब-जब भारत आते लता जी उन्हें अपने घर हमेशा आमंत्रित कर सुनतीं. व्यक्ति के तौर पर विनम्रता की मूर्ति थे वे. पैसे के प्रति भी उनका रुख ठंडा होता था. सिखाना उन्हें हमेशा अच्छा लगता था. लाहौर के अलहमरा आर्ट कौंसिल में कक्षाएं लेने जाते तो ऑटो में बैठकर.
पाकिस्तान के रागदारी संगीत में उस्ताद सलामत-नजाकत के बाद दोनों ओर लोकप्रिय कलाकारों की सूची में हुसैन बख्श अकेले नाम साबित हुए थे. भारत में उनके गाने का अंदाज दिग्गजों को चौंकाता था. वजह थी तैयारी, मिठास और चैनदारी. मूलत: वे शास्रीय गवैये नहीं थे, लेकिन किसी भी शास्त्रीय गायक से अधिक टक्कर और सुर में भीगा गाना गाते थे.
उनकी पहचान उपशास्त्रीय गायक के रूप में बनी. हालांकि वे ख्याल भी बेजोड़ गाते थे, तब इस बात का अंदाज लगाना मुश्किल होता था कि ठुमरी, काफी और गजलों में भी वे उतने ही पारंगत हैं. आमतौर पर क्लासिकल गवैये जब सुगम रचनाएं पेश करते हैं तो पता लग जाता है लेकिन भारत-पाक के गवैयों में वे इकलौते ऐसे थे जिन्होंने विधाओं को उनके समूचे गौरव और विधागत खूबियों के साथ गाया. घालमेल किया न कमतर साबित हुए.
पंजाब के गुरुदासपुर में 1946 जन्मे और विभाजन की अफरा-तफरी के बाद लाहौर चले आए उस्ताद हुसैन बख्श गुल्लू के भीतर, जब तक जिंदा रहे, भारत को लेकर नमी का एक कोना हमेशा सुरक्षित रहा. उनकी दीवानगी में सरहद कभी आड़े नहीं आई. वे इस पार भी उतने ही सुने गए. मधुरानी जैसी गजल गायिका ने तो दिल्ली टेलीविजन से उनका गाना बजता देखकर उन्हें अपने घर बुलवाकर घंटों सुना था.
हुसैन बख्श ने इस बात का खुलासा भी (इंडिया टुडे से बातचीत के दौरान) किया था कि उनकी पहली महफिल मधुरानी के कारण ही हुई थी. वे भी मधुरानी की महीन गायिकी के उतने ही मुरीद थे. सिने पार्श्व गायिका जसपिंदर नरूला की पीएचडी का विषय ही उस्ताद हुसैन बख्श की गायिकी रहा है.
अस्सी की ओर बढ़ना और उस पर बीमारी. वे भी शिथिल होने लगे थे. महफिलें बंद हो चुकी थीं लेकिन मन तो वहीं, कहीं रमा हुआ था. रुझान बराबर बनाए रखा. पाकिस्तान का सांस्कृतिक महानगर लाहौर उनका रहवास था. लेकिन भारत और बाहरी मुल्कों में भी बराबर बुलाए जाते रहे. मुंबई, दिल्ली, कोलकाता में खूब गाया. भारत के पंजाब में हरिवल्लभ संगीत समारोह में भी उनकी आवाज गूंजी थी.
कोलकाता में गाने आए तो सारंगी संगत के लिए नौजवान—सरवर हुसैन को आयोजकों ने सामने कर दिया. पहली भेंट ग्रीन रूम में हुई. सरवर ने सारंगी छेड़ी और खां साहब के मुंह से सहसा निकला—''अच्छी रूह है!’’ सरवर बताते हैं बचपन से ही हुसैन बख्श को वे सुनते आए हैं. जब महफिल खत्म हुई तो अगले दिन की रेकॉर्डिंग में भी उन्हें बजाने का आग्रह उस्ताद हुसैन बख्श ने यह कहते किया कि सारंगी यदि मनमाफिक न हो तो गवैये का मूड बिखर जाता है. इसीलिए वे हारमोनियम की संगत में गाना पसंद करते हैं.
"भारत में माशाअल्लाह रागदारी को लेकर अच्छी दीवानगी है." वे कहा करते थे लेकिन पाकिस्तान में इसका घटता सिरा उन्हें दुखी कर देता था. पटियाला गायिकी का यह दर्जेदार रंग उनके दोनों बेटों चांद-सूरज में हूबहू उतरा है. उनके जाने के साथ सियासी टकराव में झुलसते पाकिस्तान की रचनात्मक खूबियों का एक बड़ा नाम बुझ गया.
—राजेश गनोदवाले