अपने नाम से ही सिनेमा के बने-बनाए फरमे तोड़ने की मुनादी करती हालिया रिलीज हुई मराठी फिल्म है आत्मपॅम्फलेट. आत्मचरित्र या आत्मकथा जैसी किताबी नहीं, जिसमें स्मृति-घटनाएं-शिक्षा सब कुछ हो. बल्कि स्वयं पर एक पम्फलेट. एक इश्तेहारी पर्चा जो सीखने-सिखाने के बोझ से तो आजाद है ही, साथ में उसे सलाहियत है 'कहने में सिर्फ कहने’ की.
न कोई छिपा हुआ अर्थ, न ढंका हुआ विमर्श. एक सदी के अंत पर मुस्कराता हुआ खालिस व्यंग्य, जो अपने पहले ही फ्रेम में साफ कह देता है कि ''सर्व-सामान्य की आत्मकथा कहने का कोई तुक नहीं, क्योंकि इसे कोई क्यों सुनेगा?’’ नब्बे के दशक में स्कूल की पढ़ाई करते आशिष बेंडे के गिर्द इस फिल्म की कहानी बुनी गई है.
आशिष को उम्मीद है कि एक दिन वे अपने स्कूल में पढ़ने वाली सृष्टि से अपना प्यार जाहिर कर सकेगा. इश्क में दुनिया रोड़े अटकाती है, ऐसी कहानियां इन बच्चों ने सुनी भर ही हैं. इसलिए आशिष और उसके प्यार के बीच जमाने भर की दीवार है जिसे लांघने में मदद करना आशिष के दोस्तों को अपना फर्ज मालूम देता है.
एकबारगी यह फिल्म स्कूली प्यार का मासूम-सा बयान लग सकती है लेकिन आशिष से जुड़ी हर जरूरी घटना असल में पूरे देश के इतिहास से जुड़ी जरूरी घटनाओं के ठीक साथ घटती है. एक प्यारी-सी कहानी से ऊंच-नीच, गैर-बराबरी और जिंदगी के कई सरोकारों को टटोलती इस फिल्म के निर्देशक हैं आशिष अविनाश बेंडे.
तो क्या आत्मपॅम्फलेट आशिष की अपनी कहानी है? इसके जवाब में वे कहते हैं, ''पूरी तरह नहीं, लेकिन आप पाएंगे कि आशिष की जगह हममें से कोई भी अपने बचपन को उस किरदार में पूरी तरह फिट पाता है. सभी के पास बचपन में प्यार के किस्से होंगे, सबका एक ऐसा दोस्त होगा जो सही-गलत के परे हमेशा उसका साथ देने को तैयार खड़ा रहता होगा. किसी रोज स्कूल में हमें पता चलता है कि एक साथ खाना खाने वाले दोस्तों में हर कोई जाति और धर्म के आधार पर अलग तरीके से पहचाना और बरता जाता है. इस तरह यह कहानी हम सबकी कहानी बन जाती है.’’
अपनी पहली ही फिल्म में आशिष बिल्कुल नई और धारदार कहन से नए सांचे गढ़ने का साहस करते हैं. यह खतरा उठाने की हिम्मत आती है फिल्म की लिखाई से. इसे स्क्रीनप्ले में इतने सटीक तरीके से साधा गया है कि आप हैरान हुए बिना नहीं रह पाते.
आशिष कहते हैं, ''मराठी थिएटर और सिनेमा के दिग्गज नाम परेश मोकाशी को मैं अपने बचपन के किस्से सुनाता रहता था. एक दिन परेश की पत्नी मधु जो खुद भी लेखक हैं, उन्होंने कहा कि मुझे यह कहानी लिखनी चाहिए. काफी टालने के बाद जब 'बिना कहानी लिखे घर में प्रवेश वर्जित’ जैसे हालात बने तो मजबूरी में टूटा-फूटा लिखकर मधु को दिखाया. फिर मधु ने मेरे साथ यह कहानी लिखनी शुरू की.’’
लेकिन इसी कहानी को चुपचाप लिखते परेश अपनी पत्नी मधु और दोस्त आशिष की नजर में तब तक नहीं आए जब तक उन्होंने कहानी अपने तरीके से पूरी लिख नहीं ली. कहानी पर परेश के नजरिए की ताकत का अंदाजा लगाने के लिए इतना ही जानना काफी है कि, जब परेश ने साल 2009 में दादासाहब फाल्के की जीवनी पर फिल्म हरिश्चंद्राची फैक्ट्री बनाई तो वह 82वें अकादमी पुरस्कारों के लिए भारत की तरफ से ऑफिशियल एंट्री बनी. फिल्म ने उसी साल सर्वश्रेष्ठ मराठी फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी जीता.
आत्मपॅम्फलेट जिस तरह के सवालों से जूझती है, बहुत संभव था कि यह एक उपदेशात्मक फिल्म में बदल जाती. सही-गलत को बताकर अंडरलाइन करने के खतरे से इस फिल्म को परेश का जादुई नरेशन साफ बचा ले जाता है. इसके पीछे जाहिरा तौर पर परेश का दशकों का थिएटर अनुभव काम आता है. वहां से उपजी प्रयोगधर्मिता परेश को सिनेमा की चौथी दीवार तोड़ने (ब्रेकिंग द फोर्थ वॉल) की समझ देती है और कई बार फिल्म में किरदार सीधे दर्शक से बात करने लगता है.
प्रयोगों का सिलसिला आत्मपॅम्फलेट बनने के दौरान भी चलता है. कोविड महामारी की चपेट में आए निर्देशक आशिष 23 दिन अस्पताल (जिसमें सात दिन आइसीयू) में रहकर वापस घर लौटे तो एक बड़ी समस्या उनका इंतजार कर रही थी. वे बताते हैं, ''हम आधी फिल्म शूट कर चुके थे और तभी लॉकडाउन लग गया.
बच्चों की बढ़ती उम्र के साथ चेहरे की बनावट और आवाज में अंतर आता है और यह हमारी बाकी बची शूटिंग के लिए सबसे बड़ा खतरा था. किसी तरह गुजरात के दमण में शूटिंग की परमिशन तो मिली लेकिन मैं अस्पताल से लौटकर ठीक से चल भी नहीं पा रहा था. आखिरकार मैंने पुणे में घर में बैठकर लाइव स्ट्रीमिंग के सहारे दस दिन का शूट किया. गुजरात में सेट पर लाउड स्पीकर्स के जरिए मेरी आवाज सुनाई देती थी और मैं पुणे में कैमरे का फ्रेम अपने लैपटॉप पर देखता था.’’
ऐसी मुश्किलों के बदले यह फिल्म दर्शकों से मांग करती है कि सायास हास्य में गूंथकर आप तक कहानी पहुंचाने की कोशिश के बीच आपकी छठी इंद्री जागती रहे. फिल्म का कॉमिक नरेशन चाहता है कि स्कूल में दाखिले के लिए बच्चों के बीच जब 'बौद्ध होकर दाखिला पा सकने’ पर बहस हो रही हो, या अयोध्या में बाबरी विवाद की वजह एक बच्चे को दूसरा बच्चा लग रहा हो तो इन सबका असर इन बच्चों पर मापने में आपकी चैतन्यता कोई चूक न करे. बिना चूके आशिष के बचपन का अभिनय ओम बेंडखले इतनी सहजता से करते हैं कि इनकी कलाकारी को अगला राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिले तो कोई आश्चर्य की बात न होगी.
हिंदी और मराठी में बराबर जाने गए अभिनेता दीपक शिर्के की स्क्रीन पर वापसी जितनी खुशी लाती है उतना ही असर भी पैदा करती है. आशिष के दोस्त बोर्या के किरदार में चेतन वाघ शानदार अदाकारी से एक खोज साबित होते हैं, जो भविष्य में ज्यादा स्क्रीनटाइम वाले किरदार के लिए मुफीद लगते हैं.
फिल्म की सबसे जरूरी और मजबूत बात यही है कि यह आपको अचानक हाथ पकड़कर किसी कठघरे में नहीं खींच लेती. न तो आप इसे देखते हुए अपने आपको एकाएक किसी क्लास के भीतर पाते हैं, जहां कक्षा में ऊंघता हुआ मास्टर ब्लैकबोर्ड पर 'हर इंसान एक समान है’ लिखे बैठा हो. इसके उलट जान-बूझकर फिल्म उपदेश देने में इतनी बेसुरी हो जाती है कि अनजाने में आप समझाइश की गेंद अपने पाले में पाते हैं और बड़बड़ाने लगते हैं कि इस किरदार की मुश्किलों की असली वजह तो यह है, वह है.
और ठीक यहीं यह फिल्म कामयाब होती दिखती है. जब आशिष की दादी घर से जाती हैं तो बैकग्राउंड में नरेशन चल रहा होता है कि 'औरत को घर से निकालने के लिए मर्द को कोई वजह चाहिए क्या? किसी दिन ज्यादा उमस वाला मौसम भी काफी है इसके लिए’. दर्शक जब खुद ही खुद को समझाने लगे तो यह उसे कहानी के भीतर मिली भरी-पूरी जगह का कमाल है. वैसा स्पेस देने में यह फिल्म दो बार नहीं सोचती.
अमूमन ग्रामीण परिवेश की कहानी कहते 'रीजनल सिनेमा’ के व्याकरण को आत्मपॅम्फलेट कस्बाई कसौटी पर कसने का मन क्यों बनाती है? आशिष इसकी जरूरी वजह बताते हैं, ''एक तो यह भ्रम तोड़ना था कि रीजनल सिनेमा सिर्फ गांव में बन सकता है, दूसरा कि गैर-बराबरी और भेदभाव जैसे मुद्दों का असर शहर में भी होता है.’’ इस असर को मापने की तंदुरुस्त कवायद का ही नतीजा है कि आत्मपॅम्फलेट मुंबई में होने वाले मामी इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में भी उतनी ही असरदार साबित होती है, जितनी बर्लिन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में.
पहली ही फिल्म की सफलता से उत्साहित आशिष मराठी वेब सीरीज से ओटीटी की दुनिया का दरवाजा खटखटाने की तैयारी में हैं. वे फिल्म इंडस्ट्री में टाइपकास्ट होने के खतरे को बखूबी समझते हैं. तभी तो कहते हैं, ''अब कुछ बिल्कुल अलग बनाने की कोशिश में हूं’’ फिलवक्त आत्मपॅम्फलेट से उन्होंने यह तो साबित कर ही दिया है कि एक अच्छी कहानी सुनाने के लिए बड़े बजट और तमाम तामझाम की नहीं, सिर्फ एक चीज की जरूरत होती है और वह है: अच्छी कहानी.