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मेरे सामने आसमां और भी हैं

विधायक, सांसद, मंत्री, विधानसभाध्यक्ष, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष. बिहार-झारखंड के नेता इंदर सिंह नामधारी कई अहम पदों पर रहे लेकिन अपनी स्वतंत्र सोच के चलते उन्हें पार्टी छोड़नी पड़ी. धर्म की सियासत को लेकर वाजपेयी, आडवाणी और फिर नरेंद्र मोदी की सोच को आकार लेते हुए उन्होंने करीब से देखा.

इंदर सिंह नामधारी
इंदर सिंह नामधारी
अपडेटेड 28 जुलाई , 2023

पुस्तक अंश

धर्म एवं राजनीति में कशमकश: तब भारतीय जनसंघ का पलामू में नया-नया आगमन हुआ था. संगठन के प्रमुख चिंतक दीनदयाल उपाध्याय जब डाल्टनगंज आए तो रघुबीर बाबू (एक वकील) मुझे भी अपने साथ साहित्य समाज पुस्तकालय के प्रशाल में ले गए. उन दिनों देश के बेरोजगार युवा आक्रोश में थे और आगजनी की खबरें सुर्खियों में रहा करतीं. उपाध्याय जी ने बड़े ही आकर्षक ढंग से पूछा, ''यदि लक्ष्यहीन युवाओं को राष्ट्र-निर्माण के काम में लगा दिया जाए तो वे तोड़-फोड़ का रास्ता क्यों अपनाएंगे?’’ उनका बौद्धिक सुनकर मैं इतना प्रभावित हुआ कि मेरा जनसंघ के प्रति झुकाव और बढ़ गया. इस तरह 1966 ने मेरे जीवन की दिशा ही बदल दी.

अगले साल 1967 में बिहार चुनाव का बिगुल बज गया और संघ के कई प्रमुख सदस्यों ने मेरा नाम भी उछाल दिया. न चाहते हुए भी मैं पटना से आई एक इंटरव्यू कमेटी के सामने पेश हो गया. सभी टिकटार्थियों के साक्षात्कार के बाद समिति ने मेरे नाम की घोषणा कर दी तो मेरा परिवार हैरान हो गया. हर बार की तरह इस बार भी मेरे भाइयों ने मेरे निर्णय का सम्मान रखा.

मेरे चौथे भाई महेंद्र ने तो कपड़े की दुकान पर बैठे-बैठे जोर-शोर से मेरा प्रचार करना भी शुरू कर दिया. उन दिनों जनसंघ का मुख्य नारा था ''धर्म, धेनु, धन एवं धरती की रक्षा के लिए जनसंघ को वोट दें.’’ किसे पता था कि दीवारों पर लिखे गए यह नारे आज के वक्त की तकदीर लिखेंगे. जनसंघ के इन नारों पर कम्युनिस्ट पार्टी के प्रत्याशी प्रो. बी.पी. वाजपेयी मुझ पर अक्सर यही तंज कसा करते कि ''नामधारी अपने धन की रक्षा करने के लिए ही राजनीति में आए हैं.’’

एक सिख विधायक की अग्नि-परीक्षा: अपनी धर्मनिरपेक्षता का प्रमाण केवल डाल्टनगंज की जनता ने ही नहीं दिया. पहली बार जीतने के बाद भाजपा ने भी मुझे विधायक दल का नेता चुन लिया जबकि 1980 के चुनाव में लालमुनि चौबे एवं शैलेंद्र नाथ श्रीवास्तव जैसे कद्दावर नेता भी चुनाव जीतकर आए थे जो दोनों ही आगे जाकर सांसद भी बने. बिहार की जात-पात की राजनीति में किसी सिख का विधायक दल का नेता चुना जाना एक साहसिक कदम भी था. मेरे चुनाव के पीछे बिहार भाजपा के तत्कालीन प्रभारी मुरली मनोहर जोशी की अहम भूमिका रही. उन्होंने भाजपा में मेरे मेन्टोर की भूमिका तो निभाई लेकिन पार्टी से मेरी विदाई भी उनके कारण ही हुई.

वाजपेयी के आंसू, आडवाणी की नसीहत: मेरे बिहार भाजपा अध्यक्ष बनने से एक साल पहले 1987 में केरल के कोचिन में हुई भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक मुझे भुलाए नहीं भूलती. भाजपा में हिंदुत्व को लेकर चल रहे मंथन के दौरान वाजपेयी जी के अंतर्द्वंद्व को मैंने अपनी आंखों से देखा है. धर्म की राजनीति को लेकर मेरे मन में भी वही अंतर्द्वंद्व शुरू होते देर नहीं लगी.

भाजपा के कट्टर हिंदुत्व की तरफ बढ़ते कदमों से वाजपेयी जी की लाचारी उस समय खुलकर बाहर आ गई जब उसी साल मुंबई की विले पार्ले सीट के उपचुनाव में शिवसेना ने पहली बार जीत हासिल की थी और महाराष्ट्र के प्रमुख भाजपा नेता प्रमोद महाजन ने कोचिन में हो रही केंद्रीय कार्यसमिति की बैठक में बाल ठाकरे से गठबंधन करने का प्रस्ताव रख दिया. इस विषय पर दो घंटों तक जमकर बहस हुई.

अधिकतर वरीय नेताओं का मानना था कि भाजपा और शिवसेना के गठबंधन से हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण हो सकता है. बहस के दौरान वाजपेयी जी मूकदर्शक बने रहे. बहुमत के आधार पर प्रस्ताव को स्वीकृत कर लिया गया. बैठक जब समाप्ति के कगार पर पहुंची तो वाजपेयी जी से समारोप भाषण देने के लिए कहा गया. उन्होंने हाथों से कुछ न बोलने का इशारा किया लेकिन प्रमोद महाजन के आग्रह पर माइक हाथ में लेते ही भावुक हो उठे.

सिसकियां भरते हुए उन्होंने कहा, ''मुझे अब अकेला ही छोड़ दीजिए. मैं अब आपके साथ और नहीं चल पाऊंगा.’’ उनके सब्र का बांध ऐसा टूटा कि उन्होंने आंसू पोंछते हुए यह भी कहा, ''महाराष्ट्र में शादियों के समय शिवसेना दलितों के साथ इतना भेदभाव करती है कि दूल्हे को घोड़ी तक चढ़ने की इजाजत नहीं होती और न ही अपने सामने उनको खटिया पर बैठने ही दिया जाता है. मैंने जनेऊ तोड़कर राजनीति में पैर इसलिए रखा था ताकि धर्म और जात-पात की भावनाओं से ऊपर उठ सकूं.’’ वाजपेयी के भाषण के बाद पूरे हॉल में सन्नाटा-सा छा गया और कुछ वरीय नेता उनके पास सांत्वना देने के लिए पहुंचे.

यह दौर मेरे लिए भी सबसे चुनौतीपूर्ण साबित होने वाला था. आज जब मैं भाजपा के करोड़ों की लागत से बने जिला कार्यालयों को देखता हूं तो अपने कार्यकाल की याद हो आती है. उन दिनों देश के किसी भी राज्य में भाजपा की सरकार नहीं थी. अक्सर किसी विधायक या सांसद के नाम पर मिले हुए क्वार्टर का एक हिस्सा ऑफिस के रूप में इस्तेमाल किया जाता था.

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जून 1989 में भाजपा केंद्रीय कार्यसमिति की पालमपुर बैठक के बाद ही मैं पार्टी नेतृत्व की आंखों में खटकने लगा था. उस बैठक में जब यह प्रस्ताव पारित हो रहा था कि भाजपा अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण को अपने एजेंडे में शामिल करेगी तो मैंने उठकर आडवाणी जी से पूछ डाला कि विगत वर्ष शिमला में हुई बैठक में यह प्रस्ताव पारित हुआ कि पंजाब के हालात बिगड़ने का मुख्य कारण है वहां चल रही गुरुद्वारों की राजनीति.

उन दिनों पंजाब आतंकवाद के दौर से गुजर रहा था और भाजपा का शिरोमणि अकाली दल के साथ गठबंधन नहीं हुआ था. मेरा प्रश्न था कि जब गुरुद्वारों की राजनीति पंजाब को महंगी पड़ रही है तो फिर क्या मंदिर की राजनीति का प्रभाव पूरे देश पर नहीं पड़ेगा? मेरे इस प्रश्न पर आडवाणी जी ने मुझे समझाने की भरसक कोशिश की लेकिन मैं उनके उîार से पूरी तरह संतुष्ट नहीं हुआ.

मेरी असहजता को भांपते हुए आडवाणी जी ने चाय के अंतराल में मुझे फिर अपने पास बुलाया और पुन: समझाने की कोशिश की कि अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण का मसला चूंकि राष्ट्रीय सम्मान से जुड़ा है इसलिए उसकी तुलना पंजाब के गुरुद्वारों की राजनीति से नहीं की जा सकती. आडवाणी जी के समझाने के बावजूद मुझे यह विश्वास हो गया कि भाजपा अब कट्टर हिंदुत्व की ओर बढ़ रही है.

इसका सबूत मुझे 1989 में हजारीबाग में हुए सांप्रदायिक दंगों में मिल गया. रामनवमी के जुलूस के दौरान वहां सांप्रदायिक हिंसा भड़क जाने से 19 लोग मारे गए. बिहार के भाजपा अध्यक्ष की हैसियत से मैं स्थिति का जायजा लेने हिंदू और मुस्लिम इलाकों में गया...मुझे तब बेहद दुख हुआ जब मेरे दौरे के अगले दिन बिहार विधानसभा में भाजपा के विधायक यशोदानंद सिंह ने अखबारों में बयान दे डाला कि ''हजारीबाग में भाजपा का नहीं अपितु मुस्लिम लीग का अध्यक्ष भ्रमण करने गया है.’’ एक राष्ट्रीय पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष का एक ही समुदाय के लोगों को सांत्वना देना क्या सही होता?

चक्रव्यूह का आखिरी द्वार: 2014 में मेरा संसदीय कार्यकाल जब खत्म होने की कगार पर पहुंचा तो मेरे मन में एक गहन अंतर्द्वन्द्व पैदा हो गया—अगला चुनाव लड़ूं या नहीं. तब मैं अपने स्कूली रिकॉर्ड के अनुसार 72 साल का था जबकि मेरी असली उम्र 74 की होने वाली थी. लगभग दो दशक पहले रांची से प्रकाशित एक अखबार ने राज्य के कई प्रमुख नेताओं से लेख के माध्यम से जानना चाहा था कि राजनीतिज्ञों को किस उम्र में चुनावी राजनीति से संन्यास ले लेना चाहिए.

मैंने अपने लेख में सुझाव दिया था कि 75 वर्ष की आयु के बाद नेताओं को बिना किसी हिचकिचाहट के सामाजिक कार्यों में जुट जाना चाहिए ताकि जिस जनता ने उनको इतना मान-सम्मान दिया, वह उनका मार्गदर्शन कर सकें. अमेरिका जैसे उन्नत मुल्क में राष्ट्रपति लगातार दो कार्यकालों से ज्यादा नहीं रह सकता चाहे उसकी उम्र कितनी कम ही क्यों न हो.

वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 75 साल की आयु वाले भाजपा नेताओं को उनके न चाहने के बावजूद रिटायर करवा दिया है. उनके एकतरफा निर्णय से भाजपा के कई पुराने नेता नाराज भी हुए लेकिन प्रधानमंत्री टस से मस नहीं हुए. देखना है कि 75 की आयु पूरी होने पर मोदी खुद पर इस कानून को लागू करते हैं या नहीं? 

एक सिख नेता की दास्तान
लेखक: इंदर सिंह नामधारी
प्रकाशक: वाणी प्रकाशन,
नई दिल्ली,
कीमत: 299 रु.

नरेंद्र मोदी ने 75 साल की आयु वाले भाजपा नेताओं को उनके न चाहने के बावजूद रिटायर करवा दिया. देखना है कि 75 की आयु पूरी होने पर मोदी खुद पर यह कानून लागू करते हैं या नहीं?

वाजपेयी ने कहा, ''मैं आपके साथ और नहीं चल पाऊंगा...मैंने जनेऊ तोड़कर राजनीति में पैर इसलिए रखा था ताकि धर्म और जात-पात की भावनाओं से ऊपर उठ सकूं.’’ उनके भाषण के बाद हॉल में सन्नाटा छा गया.

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