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बहरूपिए का यूं विदा होना

पूरे 11 साल देश-दुनिया में जलवा दिखाने के बाद रिटायर हो रहा कंपनी थिएटर ग्रुप का नाटक पिया बहरूपिया. शेक्सपियर की रोमांटिक कॉमेडी पर खांटी हिंदुस्तान अंदाज में रचे गए इस प्ले के कलाकार उसे लेकर हुए जज्बाती.

चलो, वक्त हो गया सखी :पिया बहरूपिया नाटक का एक दृश्य
चलो, वक्त हो गया सखी :पिया बहरूपिया नाटक का एक दृश्य
अपडेटेड 19 जुलाई , 2023

यही कोई 11 साल धमाल मचाने के बाद एक नाटक रिटायर हो रहा है. पर विदाई की कहानी उसके आगाज से. सूत्रधार स्टेज पर आकर शुरू होता है: विलियम भाई शेक्सपियर ने एक नाटक लिखा था बारहवीं रात. उसको जरा मैंने अपने स्टाइल में लिखा है. नाउ, आइ विल टेल यू बेसिक-सी कहानी. एक था राजा, एक थी रानी.

अब राजा पड़ गया रानी के प्यार में. राजा ने प्रपोज किया और आइडिए लगाए पचास. लेकिन रानी के रियल ब्रदर का हो गया स्वर्गवास. अब एक दिन एक लड़की लड़का बनके आ गई राजा के दरबार में. राजा ने रख लिया उसको मैसेंजर. महल से लेके रानी के घर तक डेली पैसेंजर. अब ये सॉफ्ट-सा लड़का रानी के दिल को भा गया और लड़के का दिल राजाजी पे आ गया. तो ये बन गया मोहब्बत का ट्राएंगल.

मुंबई के कंपनी थिएटर ग्रुप का म्यूजिकल नाटक पिया बहरूपिया सवा दो घंटे तक इसी अदा-ओ-अंदाज में चलता जाता है. दर्शक लंदन के ग्लोब थिएटर के हों, चिली के, चीन, क्यूबा, ऑस्ट्रेलिया के या फिर, दिल्ली, मुंबई, बेंगलूरू या भोपाल के. कर्टेन कॉल होने तक मंदस्मित मुस्कान और दांत निपोरने से लेकर लोटमपोट और लहालोट होने की परिभाषाओं में उनके चेहरे की मांसपेशियों को पढ़ा जाता रहा है.

गुदगुदाने की इसी ताकत के बूते इसने भाषा और जबान की सीमाओं को तोड़ते हुए हर उम्र और तबके के दर्शकों को आगोश में ले लिया. उसी का नतीजा था कि यह दुनिया में सबसे ज्यादा ट्रैवल करने वाले हिंदुस्तानी नाटकों में से एक बन गया. 11 साल के बाद रिटायर होने की कड़ी में अब यह छह शहरों के आखिरी सफर पर है. मुंबई, बेंगलूरू, दिल्ली, पुणे और वडोदरा के बाद अहमदाबाद में 30 जुलाई को यह अपने फैन्स को खिलखिलाने का आखिरी मौका देगा. वैसे जी5 ओटीटी पर यह उपलब्ध रहेगा.

पिया बहरूपिया हिंदुस्तानी थिएटर के कैनवस पर एक अप्रत्याशित रोमांच की तरह नुमायां हुआ. दरअसल, यह 2012 में लंदन के ग्लोब थिएटर में हुए 37 नाटकों के वर्ल्ड शेक्सपियर फेस्टिवल का हिस्सा था. भारत से इसमें मौका मिला शेक्सपियर के नाटकों के मंजे हुए डायरेक्टर-ऐक्टर मुंबई के अतुल कुमार को. पिछले हफ्ते वे दिल्ली में थे.

झमाझम मॉनसून के बीच कमानी सभागार के सन्नाटे में उसके ठीक बीचोबीच एक सीट पर अकेले बैठे. शाम के शो के लिए साउंड सेट कराते हुए. तीन घंटे बाद जिसे ठसाठस भर जाना है. पूरे सिलसिले को वे याद करने लगते हैं. ''उन्होंने मुझे ओथैलो समेत तीन नाटक दिए थे. हैमलेट और किंग लियर जैसी ट्रैजिडीज़ मैं रजत (कपूर) के साथ कर चुका था. ओथैलो भी उसी तरह का था. तो मैंने थोड़ा लाइटर प्ले ट्वेल्थ नाइट चुना.’’

यानी शेक्सपियर की रोमांटिक कॉमेडी, वह भी नौटंकी स्टाइल में. कारण? अतुल की अपनी कल्चरल रूट्स से कनेक्शन. ''मैं दिल्ली से हूं. मेरे पड़दादा मथुरा-वृंदावन में भक्त थे. साल में 2-3 बार उनसे मिलने जाते थे तो खूब रास और नौटंकी देखता. मैं विलायत से पढ़कर आया था. वैसे ही मॉडर्न नाटक करता. नौटंकी शैली में कभी किया नहीं था. तो सोचा, कोशिश करते हैं.’’ उस माफिक आर्टिस्ट चुनने के लिए ऑडिशन में मथुरा से पारंपरिक नौटंकी के 3-4 एक्सपर्ट बुलाए गए. फिर शुरू हुई रिहर्सल. अलग-अलग भाषा-प्रांत के ऐक्टर और उनके आंचलिक संगीत के साथ इंप्रोवाइजेशन.

पंजाबी, गुजराती, बुंदेली, मराठी, बांग्ला. यहां अतुल को थोड़ा अंदेशा हुआ कि कहीं खिचड़ी न बन जाए. ''लोग कहें कि फेस्टिवल ऑफ इंडिया लेकर इंग्लैंड आ गए. 26 जनवरी की परेड हो रही है. पर शेक्सपियर ने बचा लिया. इधर-उधर गए पर स्क्रिप्ट से बंधे रहे.’’ कॉस्ट्यूम भी किसी अंचल विशेष से न जोड़कर कॉमन रखा गया, जिससे पता न चले कि ये किरदार हैं कहां के. लेकिन असर तो आ ही रहा था. मशहूर अभिनेत्री गीतांजलि कुलकर्णी सिजैरियो के किरदार में नौटंकी का चौबोला गाती हैं: खुद खुदा ने बनाई ये तस्वीर है, पार दिल के जो जाए ये वो तीर है.

रांझा है वो तेरा, उसकी तू हीर है, मेरे राजा की हालत गंभीर है. इसमें मराठी संगीत-नाटक की परंपरा का फ्लेवर आ ही जाता है. और फूल सिंह बनीं जबलपुर की नेहा सराफ का टिपिकल बुंदेली का यह डायलॉग: सौ टेंसन हैं दुनिया में, कबहूं मकान कबहूं दोकान, लै लेहों जान तो ना सर्दी ना जोखाम. ये तुम काय हमैं टाइपकास्ट करबे पे तुली हो? अतुल ने संवादों और अदायगी में ऐक्टर्स की छाप पड़ने से रोका नहीं. बस अतिरेक का ख्याल रखा.

अब आया 28 अप्रैल, 2012. लंदन का ग्लोब थिएटर. पूरी तैयारी के बावजूद एक अंदेशा, एक खटका-सा क्योंकि इसका पहला शो वहीं हो रहा था. एक विचार यह भी आया कि जैसा भी है हिंदी में है, अंग्रेजों को समझ नहीं आएगा. अतुल मुस्कराहट रोक नहीं पाते, ''गंदा भी हुआ तो इसे यहीं खतम करेंगे. हिंदुस्तान जाके किसी को नहीं बताएंगे. पर लोग हंस-हंस के पागल हो गए. विश्वास नहीं हुआ. लगा कि ये तो चलता ही जा रहा है.’’

ग्लोब थिएटर का एक तार गीतांजलि से भी जुड़ता है. 2007 में उन्होंने यहां पति अतुल कुणकर्णी के साथ एक प्ले देखा था. कम से कम टेक्निकलिटीज; न माइक, न साउंड सिस्टम; लाइट्स भी जनरल. पूरा दारोमदार ऐक्टर के कंधों पर. पति से उन्होंने कहा, ''मुझे इस जगह पर परफॉर्म करना है. और पांच साल बाद मैं वहां नाटक कर रही थी. मुझे लगा जैसे शेक्सपियर के सभी किरदारों ने मेरी हसरत सुनकर कुछ कॉन्सपिरेसी की मेरे साथ.’’

वह दिन और आज का दिन. बहरूपिया रुका नहीं. एशिया, ऑस्ट्रेलिया, यूरोप, उत्तरी अमेरिका, लैटिन अमेरिका. 2015 का चिली का महीने भर का दौरा पूरी टीम को भुलाए नहीं भूलता. वहीं के रंकागुआ शहर के वाकए को गीतांजलि कुछ इस तरह बयान करती हैं: ''वहां बुलफाइटिंग एरेना में हमारा शो था. 5,000 की ऑडियंस. बहुत ही अजीब लग रहा था.

इतनी दूर से दिख रहे थे हम स्टेज पर. लेकिन जो शो हुआ, हमने कभी सोचा नहीं था. वी वर फीलिंग लाइक रॉकस्टार्स.’’ अतुल जोड़ते हैं, ''ह्यूज एटमॉस्फियर. मैंने कहा, यहां कैसे होगा नाटक! ये तो गलत जगह आ गए. डेढ़-दो घंटे तक तो ऑडियंस ही आती रही. खचाखच भरा स्टेडियम. बस से हमें स्टेज तक ले जाया गया. वी गॉट वेरी इमोशनल. वी स्टार्टेड क्राइंग. ऐसा मजमा हमने कभी देखा नहीं था.’’

एक से दूसरा शहर. देर से सोना. उठ नहीं पाना. फ्लाइट छूटना. पासपोर्ट खोना. उसी देश में अटकना. इंडियन एंबेसी के चक्कर लगाना. तरह-तरह के वाकए. ताइवान में अजीब-सी मछली और केकड़े खा लेने से कलाकारों के पेट खराब हो गए. उलटी-दस्त के बीच ही शो. लेकिन इस सफर का सबसे खूबसूरत पहलू आपस में इश्क-मोहब्बत का रहा. आपस में शादियां हुईं. ग्रुप में पिछले 11 साल में बने जोड़ों से तीन बच्चे पैदा हुए. उन्हीं में से एक, नाटक के अनुवादक/सूत्रधार/सेबस्टियन अमितोष नागपाल और नेहा (सराफ) का बेटा अनय भी अब कास्ट का हिस्सा बन गया है.

पिया बहरूपिया में लंदन के पहले शो के नौ कलाकार ही आज तक इसे करते आए हैं. गीतांजलि, अमितोष और नेहा के अलावा इनमें हैं: मानसी मुल्तानी (लेडी ओलीविया) गगन रियार (टोबी चाचा), मंत्रमुग्धा (सेबस्टियन), सागर देशमुख (ड्यूक ओरसिनो), सौरभ नायर (मालवोलियो) और तृप्ति खामकर (मारिया). देश-विदेश में इसकी मांग बढ़ रही थी और उधर कलाकार सिनेमा/ओटीटी में मसरूफ होने लगे थे. ऊहापोह में फंसे अतुल ने एक और टीम बनाने का फैसला किया.

''एडिलेड (ऑस्ट्रेलिया) में एक बड़े फेस्टिवल वालों ने बुलाया कि आइए, यहां, सिडनी ओपेरा हाउस और मेलबर्न में भी करिए. अब मेन टीम का शिकागो (अमेरिका), वैंकूवर और टोरंटो (कनाडा) का तय शेड्यूल था. मैंने झट से दिल्ली आकर नई टीम बनाई. अनामिका तिवारी, तीतास दत्ता, नेपाल गौतम, रौनक खान और सुधीर रेखरी वगैरह को लेकर. नए गानों और थोड़े अलग अनुवाद के साथ.’’ यानी एक ग्रुप का एक ही नाटक एक ही समय पर दो टीमों के साथ दो महाद्वीपों में हो रहा था.

शेक्सपियर के ट्वेल्थ नाइट के इस नितांत देसी प्रस्तुति में म्युजिक एक अहम बल्कि केंद्रीय किरदार की तरह है. अभिनेताओं के गले की रागदारी एक पहलू है. लेकिन इसमें गूंथे गए पॉपुलर आंचलिक गीतों/भजनों को रंगसंगीत के दिग्गज आमोद भट्ट ने जिस तरह से मेलोडी में ढाला-बांधा है, वह पूरे प्ले को एक लय देता है. चौक पुराओ माटी रंगाओ, आज मेरे पिया घर आवेंगे; अरे मोड़ा मोड़ी के खुल गए भाग टूट लई जलमछरी; रंगमहल में अजब सहर में आजा रे हंसा रे भाई; मुख चंद्र नैन कजरारे. मेरे साहेबा मैं तेरी हो मुक्की हां. प्ले में इन्हें सुनिए, इसका अंदाजा लग जाएगा.

इस तरह से पिया बहरूपिया में सारे किरदारों के मूल नाम (मालवोलियो, ओलीविया, सिजैरियो वगैरह) बरकरार रखे जाने के बावजूद इसका पूरा मिजाज शुरू से हिंदुस्तानी ही रहा है. और धीरे-धीरे यह कलाकारों की नसों में बस गया. इसे करते वक्त वे इस कदर सहज होते हैं कि बीच-बीच में ऑडियंस से भी बतिया लेते हैं. अतुल चुटकी लेते हैं, ''नाटक के वक्त स्टेज के पीछे इनकी आपस में चल रही होती है. एक दूसरे का मजाक उड़ाते रहेंगे.

खींचते रहेंगे. एक-दूसरे को सरप्राइज दे देंगे. और स्टेज पर अगर कोई अपनी लाइन भूल गया तो वहीं एक-दूसरे पर हंसते हैं. ऑडियंस को भी समझ आ जाता है, फिर सब मिलके उस ऐक्टर पर हंसते हैं. जैसे गांव की नौटंकी होती है, जिसमें गलतियां भी उसका हिस्सा बन जाती हैं.’’ यह नाटक अब उस तरह का हो गया है. नेहा बताती हैं, ''अब तो इस नाटक के डायलॉग लोगों को रट गए हैं. वे साथ-साथ बोलने लग जाते हैं. किसी ने 40 तो किसी ने 50 शो देखे हैं. वे बाकायदा पंच के साथ डायलॉग बोलते हैं. सामने से हमें उनका मुंह चलता हुआ दिखता है.’’

बोल सांचे दरबार की जै, बोल शेक्सपीर बाबा की जै. मां दी बच्ची ओलीविया नूं ले बैट्ठा सिजैरियो दा प्यार, कंपनी जगराता मंडली दे टैलेंट हंट कलाकार. किस्से में थोड़ी-थोड़ी देर पर इस तरह से नई उठान लाने के लिहाज से इसका तर्जुमा भी कम दिलचस्प न था. इसका जिम्मा मिला था हिंदी मीडियम फिल्म के संवादलेखक, हरियाणे में पले-बढ़े युवा रंगकर्मी अमितोष नागपाल को. उन्हें गंभीर चीजों को रस लेकर करने में मजा आता है. वे मानते हैं कि सबको सब समझ में आए ये जरूरी नहीं.

उनकी प्रोसेस नाटक के मिजाज से मेल खा गई. बल्कि यूं कहें कि नाटक को यह मिजाज उनके लिखे हुए से ही मिला. वे हंसते हुए याद करते हैं, ''मैंने चार दिन में अनुवाद कर डाला. लोगों ने अचरज दिखाया तो मैंने कहा कि पांचवें दिन मुझे याद ही नहीं रहेगा, कहानी जा कहां रही है. अतुल ने मदद के लिए नो फियर शेक्सपियर नाम की किताब दी. बोले, इसमें साधारण इंग्लिश है. मैंने कहा, मेरे लिए साधारण इंग्लिश और शेक्सपियर की इंग्लिश एक ही बात है. मुझे दोनों के लिए डिक्शनरी देखनी है.

तू छोड़ दे. मुझे उतना समझ आ रहा है कि क्या कह रहा होगा. मतलब कम समझ की बात कुछ ऐसे पिच हुई कि कमाल हो गया.’’ अनुवाद को देखकर अतुल भी हैरत में पड़ गए. इस पर अमितोष का ऑब्जर्वेशन था: ''हरियाणे का कोई भी आदमी इसे ट्रांसलेट करे तो मुझे नहीं लगता कि इससे कमतर होगा.’’

अपने 275-280 शो के जरिए इस नाटक ने भारतीय रंगमंच के लिए बड़े पैमाने पर नए दर्शक तैयार किए हैं. उसी का सबूत है कि 30 जुलाई के आखिरी शो के भी टिकट बमुश्किल ही उपलब्ध होंगे. कलाकारों को दर्शकों के इस तरह के भी मैसेज मिलते हैं कि यह नाटक उनके लिए अब एक ड्रग की तरह है. वे आते हैं, देखते हैं, इसके सारे जोक्स उन्हें पता हैं तो वे अब हंसते भी नहीं. लेकिन भीतर से खुश होके जाते हैं. ऐसा नशा हो गया है ये.

सवाल है कि इतने पॉपुलर प्ले को और वह भी घोषित तौर पर रिटायर होने की नौबत क्यों आई? कोई भी नया नाटक बनता है, कुछ दिन, महीने या साल चलता है और न होने पर बंद मान लिया जाता है. कारण दो हैं. बकौल अतुल, ''देश भर में इसके इतने चाहने वाले हैं और वे लोग बराबर लिखते रहते हैं कि उनके शहर में आने पर उन्हें शर्तिया खबर की जाए. तो अनाउंस करना इसलिए जरूरी लगा, जिससे कि वे मिस न करें.’’

पर दूसरा कारण ज्यादा रियलिस्टिक है. इसके ऐक्टर मुंबई में फिल्में वगैरह करने, रोजी-रोटी कमाने में व्यस्त हो गए हैं. सबके पास वक्त नहीं. अतुल बताते हैं, ''पिछले साल भर में हमने 17-18 शो मिस किए, मना करना पड़ा. कुछ बिजी ऐक्टर महीने, दो-चार महीने बाद की डेट्स देते हैं तो दूसरे स्ट्रगलर्स का तर्क होता है कि तब उनका कोई प्रोजेक्ट आ गया तो वे नहीं आ पाएंगे. बल्कि इन आखिरी शोज की रिहर्सल के लिए भी बड़ी दिक्कतें हो रही हैं. मैंने सोचा, इससे पहले कि क्वालिटी गिरे और मैं कॉम्प्रोमाइज करना शुरू करूं, उससे अच्छा है कि जब नाटक अच्छा बना हुआ है, लोगों की यादों में अच्छा बसा हुआ है, उसी मोड़ पर उसे रोक दिया जाए.’’

कंपनी थिएटर ग्रुप के कलाकारों के लिए मुंबई का करीब 200 की क्षमता वाला पृथ्वी थिएटर होम ग्राउंड/एक पारिवारिक ठीए जैसा रहा है. उसके नाटक अमूमन वहीं से शुरू होते आए हैं. ऐसे में सबकी चाहत है कि वहां एक शो करके बहरूपिया को विदा किया जाए. लेकिन बड़े पैमाने पर वहां आने वाली अर्जियों को देखते हुए डेट मिलना दुश्वार है.

वैसे, अतुल ने धीरे-धीरे ध्यान हटाना शुरू कर दिया है. अब वे इंटीमेट वेन्यू पर 2-3 ऐक्टर्स के साथ छोटे प्रोडक्शन के बारे में सोच रहे हैं. कहानी, गीत और संगीत. ऐक्टर ही गायक. ''पिछले छह महीने से मुंबई में यह ट्रेंड देख रहा हूं. बहुत मजा आ रहा है. एक बेहद खूबसूरत नाटक पिछले ही हफ्ते देखा. एम.डी. पल्लवी समेत बेंगलूरू की दो तीन सिंगर्स ने दुनिया भर की समंदर से जुड़ी कहानियां गानों के साथ पिरोई थीं. उसी में उनका गाया कबीर का साधो ये मुर्दों का गांव सुनकर मैं तो रो-रो के पागल हो गया. यह शैली मुझे खींच रही है.’’

खैर, जहान भर में लोगों के जज्बात को छेड़कर बहरूपिया एक जज्बाती मोड़ पर आ पहुंचा है, जहां से उसे आखिरी बार पीछे मुड़कर देखना है. फिर तो यादों में बचेंगे शेक्सपीर बाबा के इस किरदार के किस्से. गुजरे हुए जमाने का अब तजकिरा ही क्या, अच्छा गुजर गया, बहुत अच्छा गुजर गया. अच्छा बहरूपिया, विदा.

''चिली के रंकागुआ शहर में इसका शो बुलफाइटिंग रिंग में था. 5,000 की भीड़. डर लग रहा था पर शो हुआ वह भी अविश्वसनीय. हम लोग खुद को रॉकस्टार जैसा महसूस कर रहे थे’’
गीतांजलि कुलकर्णी, नाटक में सिजैरियो और वायोला के किरदार में


''इसी नाटक को करते हुए कलाकारों में बॉन्डिंग, इश्क-मोहब्बत और शादियां भी हुईं. उन्हीं जोड़ों में से एक अमितोष-नेहा का बेटा अनय (फोटो में तीनों) भी आखिर के शोज में हिस्सा बना. पर कलाकारों की व्यस्तता के कारण सबने मिलकर इसे बंद करने का फैसला किया है’’ 
अतुल कुमार, डायरेक्टर, पिया बहरूपिया.

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