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विदेश की एक हिंदी कहानी

मारवाड़ में पला बढ़ा, जेएनयू में पढ़ा-कढ़ा एक प्रोफेसर कैसी कैसी अनूठी युक्तियों से अमेरिका की ऑस्टिन यूनिवर्सिटी में दुनिया भर के छात्रों को हिंदी की तालीम दे रहा.

विदेशी छात्रों को हिंदी सिखाते
विदेशी छात्रों को हिंदी सिखाते
अपडेटेड 21 अप्रैल , 2023

शख्सियतः डॉ. दलपत सिंह राजपुरोहित

फिर देखिए एक जुनूनी शख्स का! वह राजस्थान में मारवाड़ के भी दूरदराज के पाली जिले के सोकड़ा गांव से निकलता है. पहला ठिकाना जोधपुर; दूसरा निर्णायक ठिकाना दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, वहां से दुनिया में लाखों-करोड़ों के सपनों के शहर अमेरिका के न्यूयॉर्क की कोलंबिया यूनिवर्सिटी; और फिर वहां से भी करीब 2,500 किमी दूर, अमेरिका की 140 साल पुरानी यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सस ऐट ऑस्टिन.

2019 से इसी के कॉलेज ऑफ लिबरल आर्ट्स में हिंदी भाषा और साहित्य पढ़ा रहे हैं डॉ. दलपत सिंह राजपुरोहित. दुनिया के अलग-अलग खित्तों से आए छात्रों के लिए वे दक्षिण एशिया को नजदीक से जानने-समझने का जरिया भी हैं. उर्दू में भी उनकी महारत है. हिंदी नाटक और सिनेमा भी उनके विषय हैं. गौरतलब है कि मौजूदा हिंदी सिनेमा के कुछ सितारों खासकर फिल्मी परिवारों से ताल्लुक रखने वालों को भी उन्होंने अपनी कक्षा में पढ़ाया है.

दलपत 2008 में जब हिंदी और उर्दू के प्राध्यापक बनकर न्यूयॉर्क पहुंचे, उन्हीं दिनों आशुतोष गोवारिकर की बहुचर्चित फिल्म जोधा अकबर  रिलीज हुई थी. मुगलकाल के शिखर को दर्शाती इस फिल्म में मल्लिका-ए-हिंदुस्तान, आमेर की राजकुमारी जोधाबाई और शहंशाह अकबर के जीवन और प्रेम के प्रसंग हैं. दलपत अक्सर इस फिल्म के गाने अपनी कक्षाओं में पढ़ाने के सिलसिले में इस्तेमाल करते हैं. मसलन अपनी बदकिस्मती से उबरने को भजन गातीं जोधा: कान्हा सुनो न/तुम बिन पाऊं कैसे चैन/तरसूं तुम्हीं को दिन रैन.

इसी तरह सूफी संगीत के जादू में डूबकर आध्यात्मिक रोशनी तक पहुंचते अकबर: ख्वाजा मेरे ख्वाजा/दिल में समा जा/शाहों का शाह तू/अली का दुलारा. हिंदी साहित्य की शुरुआती आधुनिकता भी तो कुछ-कुछ भक्ति और सूफियाना रंगों में ऐसी ही रंगी हुई है. दलपत कहते हैं, ''किसी समाज को सहजता से समझने के लिए उसका सिनेमा बहुत मदद करता है.

खासकर उसका संगीत, उसकी भाषा और भूगोल वगैरह से जुड़े रेफरेंस. यह विडंबना ही है कि भारत में हिंदी का अकादमिक जगत भारतीय सिनेमा को लगभग अप्रासंगिक ही समझता है. कई बार इसे लोकप्रिय माध्यम के रूप में नकार दिया जाता है लेकिन जिन्होंने हिंदुस्तान में कदम भी न रखा हो उनके लिए तो उसे समझने के लिए भारतीय सिनेमा एक खिड़की है.’’

हिंदुस्तान में हिंदी पढ़ने-सीखने वालों के लिए यह कल्पना करना भी मुश्किल होगा कि विदेश में किसी छात्र के लिए हिंदी सीखना और किसी अध्यापक का उसे सिखाना कितनी बड़ी चुनौती होती है. भरत भाई/कपि से उरिन हम नाहीं  इतनी छोटी-सी कविता पंक्ति को समझाने के लिए छात्रों को पहले पूरी रामायण और उसके घटनाक्रम से वाकिफ कराना होगा. दलपत इसी चुनौती में अपने लिए अवसर तलाशते आए हैं. हिंद की हिंदी को विश्व की हिंदी में तब्दील करते हुए वे अपने छात्रों को आधुनिक भारत के संदर्भ पढ़ाते हैं. इसके साथ वे उन्हें हिंदी भाषा और उसकी संस्कृति के पहलुओं और काल से भी परिचित करवाते हैं.

लय और छंद भी उनके लिए बड़ा सहारा बनते हैं. उन्हीं के शब्दों में, ''छंद याद रखना छात्रों के लिए आसान होता है. छंद की लय के जरिए आप गूढ़ से गूढ़ विचारों को भी आसानी से समझकर, याद रख सकते हैं.’’ इस पर बात करते-करते वे नेमोनिक्स पर पहुंच जाते हैं. नेमोनिक्स यानी स्मृति विज्ञान, एक ऐसी विधा जिसके जरिये आप दुनिया के किसी भी विषय को आसानी से समझ और याद कर सकते हैं. शायद इसीलिए दर्शन को समझने का सबसे आसान रास्ता गीतों और भजनों से होता हुआ जाता है. दलपत के लिए सिनेमा के गीत भी नेमोनिक्स बनते हैं.

आम भारतीय परिवारों की तरह दलपत के भी घर में बड़े भाई ने उन पर दबाव तो विज्ञान पढ़ने का ही बनाया था. राजस्थान में पाली जिले के 900 की आबादी वाले सोकड़ा गांव के एक मध्यमवर्गीय परिवार से निकलकर 1999 में वे राजपुरोहित समाज के हॉस्टल में रहकर पढ़ने जोधपुर पहुंचे. राजस्थान की धर्मशालाओं और प्याऊ वाले ठिकानों पर घूमते-फिरते उनका राब्ता दादू दयाल नाम के एक कवि से हुआ. यह कवि कभी सिर्फ पशु-पक्षियों को पानी पिलाने की बात करता है या फिर कभी सामाजिक जीवन में जाति के निराकरण की कथा बांचता है.

खैर, घर के इस सबसे छोटे सदस्य ने विद्रोह कर जोधपुर में हिंदी साहित्य में स्नातक किया. वैसे पिता ने उनका साथ दिया. सत्संगों में अक्सर गाने वाले उनके पिता साहित्य में दलपत की अभिरुचि को समझ चुके थे. संस्कृत, अंग्रेजी और हिंदी साहित्य पढ़ते हुए दलपत की कल्पनाएं खुलने लगीं. शेक्सपियर की ट्वेल्फ्थ नाइट और जॉर्ज बर्नार्ड शॉ की कैंडिडा जैसी रचनाओं को पढ़ते हुए उन्होंने भारत के प्रख्यात शिक्षण संस्थान जेएनयू से स्नातकोत्तर करने का सपना देखा.

वे बताते हैं, ''जेएनयू में दाखिले के बाद मेरी जिंदगी ने जैसे यू टर्न लिया. यहां आकर जब मैंने अपने जैसे ग्रामीण इलाकों, टियर टू शहरों और विदेशों से भी आए बच्चों को एक साथ एक ही क्लास में पढ़ते देखा तब मुझे समझ में आया कि किसी भी देश में पब्लिक एजुकेशन सिस्टम कितना महत्वपूर्ण होता है. जेएनयू में पढ़ते हुए जब इतने कम पैसों में बिना किसी हीन भावना के मुझे वर्ल्ड क्लास एजुकेशन मिली तब मैंने जाना कि ऐसी संस्थाओं का न सिर्फ सामाजिक बल्कि राष्ट्रीय उत्थान में कितना बड़ा योगदान है.’’

वहीं पढ़ते हुए उन्होंने भक्ति काल पर प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल के सान्निध्य में काम करने का मन बनाया. वैसे शुरुआत में उनकी इच्छा मारवाड़ी संतों पर शोध करने की थी. पर उन्हीं के शब्दों में, ''पुरुषोत्तम सर ने साफ कह दिया कि जब तक भक्ति काल के अनकहे-अनसुने पहलुओं पर मूल पाण्डुलिपियों को लेकर काम नहीं करोगे तो हमारे साथ शोध का इरादा भूल जाओ. उन्होंने ही मेरा शोधकार्य दादूपंथ पर आधारित होने का फैसला किया.’’ बाद में हिंदी साहित्य के 'शंकराचार्य’ माने जाने वाले श्रीसुंदरदास पर उन्होंने शोध किया जो 2022 में सुंदर के स्वप्न के रूप में छपकर आया.

बहरहाल 2008 में एम. फिल. का वाइवा पेश करने के एक ही दिन बाद दलपत दुनिया के सबसे चमकीले नगरों में शुमार न्यूयॉर्क पहुंचते हैं और एक दशक तक वहीं की कोलंबिया यूनिवर्सिटी में हिंदी-उर्दू पढ़ाते हैं. और फिर 2019 से यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सस ऐट ऑस्टिन. हिंदी भाषा, सिनेमा और भक्ति साहित्य. इस अनोखे मेल के साथ डॉ. दलपत सिंह राजपुरोहित अपना मुकाम बना रहे हैं.

विदेशी छात्रों को हिंदी सिखाने की मजेदार चुनौती
 

अगर 'बादल’ का मतलब अंग्रेजी में क्लाउड्स होता है, तो 'कल हो ना हो’ (2003) में जावेद अख्तर 'हर घड़ी बदल रही है धूप जिंदगी’ से बादलों की बात कर रहे हैं क्या? हिंदी में 'गुड आफ्टरनून’ को क्या कहते हैं? बस नमस्ते? विदेशी छात्रों को हिंदी सिखाते हुए डॉ. दलपत को उनकी कुछ ऐसी ही दुविधाओं को भी दूर करना होता है.

वे बताते हैं कि विदेशी छात्रों को दिक्कत बस यहां होती है कि वे सोचते अंग्रेजी में हैं और लिखते हिंदी में. हंसते हुए डॉ. दलपत कहते हैं, '' मुझे उनके प्रयासों को देखकर बड़ा मजा आता है. डिक्शनरी देखकर, नए गाने और शब्द सुनकर वे अपने हिसाब से वाक्य बनाते हैं, लेकिन भाषा को समझने के लिए सबसे जरूरी है उसके सामाजिक परिवेश को समझना.’’ और यही वजह है कि वे अपने छात्रों को हिंदी सिखाने के लिए बॉलीवुड की फिल्मों और उनके गानों का खूब सहारा लेते हैं.

—चंद्राली मुखर्जी

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